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    ड्रैगन के सीमा समझौतों के उल्लंघन के बाद मुश्किल दौर से गुजर रहे भारत-चीन संबंध

    By Jagran NewsEdited By: Sanjay Pokhriyal
    Updated: Tue, 29 Nov 2022 02:24 PM (IST)

    भारत व चीन के बीच बहुत कुछ असामान्य है तो कुछ-कुछ अनुकूलता और प्रतिकूलता के बीच संतुलन भी। फिर हम चीन को किस नजरिये से देखें साझेदार प्रतियोगी अथवा व्यवस्थागत प्रतिद्वंद्वी? वैसे दोनों देश इलाके में वर्चस्व के लिए प्रतिद्वंद्वी हैं।

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    कारोबार की दृष्टि से प्रतियोगी और कुछ अर्थों में साझेदार भी।

    नई दिल्‍ली, जेएनएन। भारत के अतिरिक्त जापान, दक्षिण कोरिया, फिलीपींस, इंडोनेशिया, वियतनाम, उत्तर कोरिया, सिंगापुर, मलेशिया, ब्रुनेई, नेपाल, भूटान, म्यांमार, लाओस, मंगोलिया और तिब्बत जैसे लगभग डेढ़ दर्जन देश हैं जिनके साथ चीन का भूमि, सीमा या सामुद्रिक विवाद है। दक्षिण चीन सागर चीन के विस्तारवादी मंसूबों की पहली पसंद मालूम पड़ता है, जहां लगभग 250 छोटे-बड़े द्वीप हैं।

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    प्रशांत महासागर में सिंगापुर और मलक्का की खाड़ी से लेकर ताइवान की खाड़ी तक का यह क्षेत्र विश्व का तीसरा सबसे बड़ा शिपिंग ट्रांजिट मार्ग है जिसकी तलछटी में तेल और गैसों के विशाल भंडार हैं। इसलिए दक्षिण चीन सागर की आर्थिक ही नहीं, बल्कि सामरिक महत्ता भी है। इसके जरिये चीन ताइवान द्वीप, पूर्वी वियतनाम और कंबोडिया, पश्चिमी फिलीपींस, मलय प्रायद्वीप के पूर्वी भाग और सुमात्रा से लेकर मलक्का जलडमरूमध्य के पश्चिम तक अपनी आक्रामकता को विस्तार देना चाहता है।

    इसके कई हिस्सों पर वह अपना दावा भी जताता है। उसने अंतरराष्ट्रीय मानकों को धता बताते हुए नौ टूटी-फूटी कृत्रिम रेखाओं (नाइन डैश लाइन) के जरिये दक्षिण चीन सागर अपना दावा भी प्रस्तुत किया है। हालांकि वियतनाम और फिलीपींस जब इसके विरुद्ध हेग स्थित ‘परमानेंट कोर्ट आफ आर्बिट्रेशन’ गए तो उसने दक्षिण चीन सागर पर चीन के ऐतिहासिक अधिकार के दावे को खारिज करते हुए ‘नाइन-डैश लाइन’ को भी विधिक आधार पर अस्वीकार कर दिया। उसने यह भी कहा कि चीन बड़े पैमाने पर भूमि संशोधन एवं निर्माण तथा कृत्रिम द्वीप बनाकर सामुद्रिक पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ कोरल रीफ क्षेत्र में पारिस्थितिकी संतुलन बिगाड़ रहा है।

    यह अलग बात है कि चीन ने इसे अदालती ढोंग कहा और उसके निर्णय को मानने से इन्कार कर दिया। शेष वैश्विक शक्तियां, फिर वह चाहे अमेरिका हो या जापान या यूरोपीय यूनियन, सभी मौन हो गईं। जहां तक भारत का प्रश्न है तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा शी चिनफिंग को कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा पुनः महासचिव चुने जाने के बाद बधाई नहीं दी गई। यही नहीं, वैश्विक मंचों पर वे शी चिनफिंग को महत्व देते हुए नहीं दिख रहे।

    शंघाई सहयोग संगठन के समरकंद शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति चिनफिंग का गलवन संघर्ष के बाद पहली बार आमने-सामने होना, लेकिन बातचीत न करना, बहुत कुछ कहता है। हालांकि अक्टूबर 2022 में शिनजियांग प्रांत में मानवाधिकारों के उल्लंघन से जुड़े मुद्दे पर आए प्रस्ताव पर भारत ने चीन के विरुद्ध न जाने का निर्णय लिया था। जबकि फरवरी 2022 में म्यूनिख सिक्योरिटी समिट में विदेश मंत्री एस. जयशंकर यह स्पष्ट कर चुके हैं कि चीन के सीमा समझौतों के उल्लंघन के बाद भारत और चीन के संबंध मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं।

    यानी भारत व चीन के बीच बहुत कुछ असामान्य है तो कुछ-कुछ अनुकूलता और प्रतिकूलता के बीच संतुलन भी। फिर हम चीन को किस नजरिये से देखें, साझेदार, प्रतियोगी अथवा व्यवस्थागत प्रतिद्वंद्वी? वैसे दोनों देश इलाके में वर्चस्व के लिए प्रतिद्वंद्वी हैं तो कारोबार की दृष्टि से प्रतियोगी और कुछ अर्थों में साझेदार भी।