कितने प्रकार की हैं माया और कैसे पाएं इस अदृश्य शक्ति पर विजय? यहां जानें सबकुछ
चराचर जगत सत्य न होते हुए भी दिखाई देना यही अध्यास है अर्थात् भ्रम है। जैसे हाथी की सूड़ को सर्प ने भ्रमवश अपना बिल मान लिया और हाथी ने उसे काला गन्ना समझ लिया दोनों ने अपने गति-मति के अनुरूप क्रिया की परिणामस्वरूप उनके भ्रम ने ही उन्हें कालगत कर दिया।
आचार्य नारायण दास (श्रीभरत मिलाप आश्रम, मायाकुंड, ऋषिकेश)। भगवान् श्रीब्रह्मा जी को उपदेशित करते हैं, हे ब्रह्मन्! निःसार चराचर जगत जो अज्ञनतावश सत्य प्रतीत होता है, वह सत्य नहीं है, जबकि सत्य मैं हूं और मुझसे ही यह प्रकाशित है। फिर भी मुझे विस्मृत कर देना ही माया है जो आभासित है, किंतु है नहीं। मिथ्या प्रतीति है।
ऋतेऽर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाभासो यथा तमः।।
ऋते का अर्थ है बिना यथार्थ अर्थ के, अर्थात जो बिना कहे प्रतीत होता है, किंतु है नहीं, यही माया है। आभास को इस प्रकार से समझना चाहिए, जैसे आकाश में दो चंद्रमा होने की प्रतीत का दृष्टांत। आंखों के निचले भाग को यदि अंगुली से दबाया जाए तो समाने दिखाई देने वाली कोई भी वस्तु दो स्वरूपों में दिखाई देती है। अर्थात् जो सत्य नहीं है और जिसका अस्तित्व भी नहीं है, फिर भी प्रतिभाषित हो, दृष्टि को ओझल कर दे, यही माया है।
माया कब से है, इसका समाधान दे पाना अत्यंत दुष्कर है, क्योंकि जैसे किसी हिंदी भाषी क्षेत्र के निवासी से पूछा जाए, क्या आपको कन्नड़ भाषा आती है, तो वह यही कहेगा नहीं आती है। पुनः उससे प्रश्न किया जाए, कन्नड़ भाषा का ज्ञान कबसे नहीं है, तो वह यही कहेगा जन्म से नहीं है, लेकिन वह यह नहीं बता सकता है कि कन्नड़ भाषा कब से प्रचलित है। इसी प्रकार माया कब से, इसे कोई नहीं बता सकता है, माया अनादि है और परमात्मा अनादि और अनंत हैं।
जैसे गोधूलि वेला में मार्ग में पानी से बनी लकीर या सर्पाकर रस्सी को देखकर, उसमें सर्प का भ्रम होता है। जिस प्रकार इसी प्रकार यह संसार जो दिखाई दे रहा है, वह सत्य न होते हुए भी, सत्य प्रतीत होता है, यही माया है। जैसे कोई व्यक्ति शैय्या पर सो रहा है और वह स्वपन्न में जंगल गया, वहां उसे एक शेर दौड़ा रहा है और वह जान बचाने के लिए भाग रहा है; जब तक उसकी निद्राभंग नहीं होगी उसका भय नहीं जाएगा।
न स्वप्न का जंगल सत्य है और न ही स्वप्न का शेर और न ही जो भाग रहा है वह सत्य है, सत्य तो तो शय्या पर है, वह तो कहीं गया ही नहीं। अपने आत्मतत्त्व की विस्मृति ही माया है। माया की दो शक्तियां हैं- आवरण और विक्षेप। माया की आवरण शक्ति कार्य रूप जगत के कारण परमात्मा को छिपा लेती है तथा विक्षेप शक्ति ईश्वर में ही जगत का भास कराती है।
चराचर जगत सत्य न होते हुए भी दिखाई देना यही अध्यास है, अर्थात् भ्रम है। जैसे हाथी की सूड़ को सर्प ने भ्रमवश अपना बिल मान लिया और हाथी ने उसे काला गन्ना समझ लिया, दोनों ने अपने गति-मति के अनुरूप क्रिया की, परिणामस्वरूप उनके भ्रम ने ही उन्हें कालगत कर दिया।
माया का दूसरा पर्याय है- अज्ञान। स्वर्णधातु से निर्मित आभूषणों के आकार भिन्न-भिन्न होते हैं, किन्तु उनमें स्वर्ण यथार्थ है, इसी प्रकार जो भी जड़-चेतन दृश्यमान जगत है, वह सब भगवत्स्वरूप ही है। यदि हमारी बुद्धि में यह प्रकाश नहीं है, तो हम मायाग्रस्त हैं।
संसार में प्रायः लोग कहते-सुनते देखे जाते हैं, माया ने हमें जकड़ रखा है। जगत मायामय है, यह कथन कल्पित आरोपित अज्ञान है। सर्वत्र ईश्वर का अस्तित्व परिव्याप्त होते हुए, उसे न समझ पाना ही अज्ञान/ माया है। जिस व्यक्ति को सत्सङ्गादि के विमल प्रताप से यह विवेक जाग्रत हो जाता है, सब कुछ ईश्वर मय है, तब वह किसी के साथ छल, कपट और असद्व्यवहार नहीं करता है।
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