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    Krishna Janmashtami 2025: कब और क्यों मनाई जाती है कृष्ण जन्माष्टमी? यहां जानें धार्मिक महत्व

    कंस के रहते जीवन में गुण षड्गुण कैसे सक्रिय हो सकते हैं। पर पुत्रों को मारने के पश्चात कंस जो देवकी को ज्ञानोपदेश देने लगा उसका यह ज्ञान बुद्धि के दुरुपयोग के अतिरिक्त कुछ नहीं है। कंस क्या वह परम तत्व जान सकता है। वह तो इंद्रियों का दास है। जिस बुद्धि में भगवान का प्राकट्य (Janmashtami 2025) हो चुका है।

    By Jagran News Edited By: Pravin Kumar Updated: Mon, 11 Aug 2025 12:51 PM (IST)
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    Krishna Janmashtami 2025: कृष्ण जन्माष्टमी का धार्मिक महत्व

    स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। वसुदेव कारागार में परतंत्र थे तो उनके लिए भगवान कृपा साधन बने, पर अर्जुन स्वतंत्र और साधन संपन्न थे तो भगवान अर्जुन के लिए पुरुषार्थ साधन का उपयोग करने का उपदेश करते हैं, जिसे संसार भगवद्गीता के नाम से जानता है। भगवान क्या कह रहे हैं? क्या करने को कह रहे हैं और उसका क्या उद्देश्य और परिणाम होना है, जिस साधक की बुद्धि उनके तात्पर्य को ग्रहण कर लेती है, वही स्थिर मति है।

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    बुराई के विरुद्ध इंद्रियों और सामर्थ्य का भरपूर उपयोग करने के बाद अर्जुन में शरणागति का भाव आया, यही भाव पहले आता तो यह कायरता का कवच बन जाता। भगवान के अवतार का उद्देश्य यह नहीं है कि हम कायरता और पलायन में स्थित हो जाएं। धर्म का आश्रय भक्त है, भक्त का आश्रय धर्म है। जो धर्म की रक्षा के लिए उद्यत होता है, धर्म उसी की रक्षा करता है।

    मन पर नियंत्रण ही बुद्धि को स्थिर रखने का उपाय है। इंद्रियां तो मन की दासी हैं। श्रीकृष्ण के जन्म से पूर्व नदियां, सरोवर, अग्नि, वायु, आकाश, नक्षत्र, मन सबकी मति परस्पर सम्मत हो गई। ईश्वर ही वह मूल है, जिसमें सारी प्रकृति अपने स्वामी के दर्शन के लोभ से एक-दूसरे से सम्मत हो जाते हैं। बादल समुद्र को श्रेय दे रहे हैं। मन को पहली बार यह अवसर मिला, जब वह कह पाया कि अब तो भगवान रूप धारण कर रहे हैं। अत: रस, शब्द, स्पर्श, गंध सबका सेवन हमारे प्रभु स्वयं करेंगे।

    मन बोला, जहां देखो मन का निरोध करने की बात सुनते-सुनते मैं थक गया। अब जब इंद्रियों का विषय भगवान हो जाएंगे तो मन तो अपनी सहगामिनी इंद्रियों पर स्वत: ही नियंत्रण रखेगा ही। सारी प्रकृति अपने स्वभाव का परित्याग करके भगवताश्रित हो गई। रात्रि में कमल खिलाने वाले तो मात्र श्यामसुंदर ही हो सकते हैं।जब निर्मल मन में भगवान आ गए, तब तो इंद्रियों को सहज ही निर्विकारता स्वीकार करनी ही पड़ी।

    भगवान के जन्म लेते ही माता देवकी के अंत:करण में कंस से जो डर था, वह सहज रूप से समाप्त हो गया और वे भगवान की स्तुति करने लगीं :

    रूपं यत् तत् प्राहुरव्यक्तमाद्यं ब्रह्म ज्योतिर्निर्गुणं निर्विकारम्।

    सत्तामात्रं निर्विशेषं निरीहं स त्वं साक्षाद् विष्णुरध्यात्मदीप:॥

    हे ज्योतिर्मय स्वरूप प्रभो! वेदों ने आपके जिस अव्यक्त रूप का प्रतिपादन किया है, वह विकारहित, विशेषण और प्रमाणरहित अनिर्वचनीय विशुद्ध सत्ता आप ही हैं। आप साक्षात विष्णु ही हैं।

    बुद्धि रूपी देवकी अपने पुत्र की जिह्वा इंद्रिय के द्वारा स्तुति करके स्थिरबुद्धि हो गई। व्यापक ब्रह्म को जो अपनी छोटी-सी गोद में ले आए, यह तो विराट को बीज बना देने जैसा ही हुआ। उसी ईश्वर को देखकर कंस की बुद्धि भ्रष्ट हो गई। देवकी जी को तो बड़ी तपस्या और प्रतिकूलता के पश्चात भगवान मिले, पर माता यशोदा को तो कृपा रूप में मिले। कुछ करना ही नहीं पड़ा। बगल में आकर लेट गए। माता को जगाकर अपने आगमन की सूचना देने वाले परम कृपालु श्रीकृष्ण (Janmashtami 2025) बड़े अनोखे और निराले हैं। साधना और कृपा का सामंजस्य यही है। वही ईश्वर साधना का परिणाम है, वही कृपा प्रधान भी है।

    वसुदेव जी को कारागार से निकलने का मार्ग बनाना और नंदगांव (Ashtami Tithi) से पुन: लौटकर कारागार में सारे दरवाजे पुन: बंद कर देना, सब कुछ भगवान को पैदा होते ही करना पड़ा। वस्तुत: वह जो योगमाया रूप में जो देवी थीं, जिसे इंद्रियों के दास मतिभृष्ट कंस ने पत्थर की चट्टान पर पटक कर मारना चाहा। ये वह इसलिए कर रहा था कि उसकी बुद्धि पर पत्थर पहले ही पड़ चुका था। ईश्वर की इच्छा और लीला में अपनी बुद्धि लगाने वाला कंस अपने विनाश का कारण बनता है। वसुदेव के उपदेश और देवकी के अनुनय विनय का कोई प्रभाव उस पर नहीं पड़ा।

    योगमाया कंस के द्वारा पटके जाने पर आकाश में चली गई थीं। उन्होंने जब अपना परिचय स्वयं दिया, तब कायर कंस अपनी बहन देवकी से अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए ज्ञानियों की तरह उपदेश करने लगा। पर जिसकी इंद्रियां उसके वश में नहीं हैं, जो असत्य रूप संसार और भोगों में आसक्त है, उसका बौद्धिक ज्ञान केवल स्मृति प्रलाप के अतिरिक्त कुछ नहीं होता।

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    वह देवकी से कहता है कि तुम अपने मृत बच्चों के लिए दुख मत करो, उन्हें तो उनके कर्मों का फल मिला है। सभी प्राणी कर्म के अधीन हैं। जन्म और मृत्यु तो इस विनाशी शरीर का धर्म है। जैसे मिट्टी के बने बर्तन बनते और बिगड़ते रहते हैं पर मिट्टी में कोई अदल बदल नहीं होता है, वैसे ही इस शरीर का बनना-बिगड़ना होता ही रहता है, पर आत्मा पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

    कंस को यह पता ही नहीं कि देवकी ने परमात्मा को जन्म दिया है। भगवान से पहले जो छह पुत्र देवकी के गर्भ से जन्म लेकर क्रूर कंस के द्वारा मारे जाते हैं, वे साधक के जीवन में रहने वाले वे सद्गुण हैं, जिनके अहंकार के कारण साधक के जीवन में भगवान प्रकट ही नहीं हो पाते हैं। कंस सारे सद्गुणों को जो समाप्त कर पाया वह तो भगवान देवकी के गर्भ का शोधन कंस से ही करा रहे थे।

    कंस के रहते जीवन में गुण षड्गुण कैसे सक्रिय हो सकते हैं। पर पुत्रों को मारने के पश्चात कंस जो देवकी को ज्ञानोपदेश देने लगा, उसका यह ज्ञान बुद्धि के दुरुपयोग के अतिरिक्त कुछ नहीं है। कंस क्या वह परम तत्व जान सकता है। वह तो इंद्रियों का दास है। जिस बुद्धि में भगवान का प्राकट्य हो चुका है, वह कंस के आतंक से कहां डरने वाली हैं? माता देवकी निर्भीक हैं।

    जो कर्म करेगा, दोष- गुण उसी के नाम लिखा जाएगा। इंद्रियां कर्ता हैं तथा मन कारण है, पर सबका केंद्र चित्त है। जब चित्त अस्थिर होकर संकल्प विकल्प करता है, तब इसको मन की संज्ञा दी जाती है। सद्-असद् का विभाजन करते समय यही चित्त बुद्धि कहलाता है। सबकी तुलना में जब स्वयं को श्रेष्ठतम् मानता है, तब यह अहंकार कहलाता है।

    वस्तुतः: वश मन को करना है। इंद्रियां तो मन के पराधीन हैं। व्यक्ति जब विषयों का चिंतन करता है तब मन इंद्रियों का सहयोग लेकर उनका संग करता है। संग के लिए द्वितीय की आवश्यकता स्वयं सिद्ध है। संग करने से फिर कामना का जन्म होता है। कामना पूर्ति न होने पर क्रोध आता है। क्रोध द्वैत बुद्धि के कारण ही आता है। क्रोध के वशीभूत होकर व्यक्ति को अपने स्वरूप की स्मृति नहीं रहती है।

    मन को भगवान में लगाए बिना अंत:करण की प्रसन्नता संभव नहीं है। साधक के अनुराग का केंद्र जब भगवान हो जाते हैं, तब सांसारिक राग द्वेषादि समाप्त होकर इंद्रियों से विषयों का सेवन करते हुए भी साधक प्रसन्नता को प्राप्त हो जाता है।

    प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।

    प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते।

    मन स्वयं वश में हो ही जाएगा। बुद्धि भी स्थित हो जाएगी। एक बार भगवान (Nishita Puja Muhurat) के चरणामृत, रूपामृत, कृपामृत और मुरली की तरह अधरामृत का पान तो कर लें। परिणामत: फिर बुद्धि मन को कहीं जाने ही नहीं देगी। सांसारिक विषयों की आशा और उन्हीं का संग कर करके हमने अपने मन, बुद्धि व अपने अहं को भगवान से विभक्त कर रखा है। इस कारण वह संसार के भोगों के समर्थन में तत्काल सुख मिलने का सशक्त बहाना करके बुद्धि को भगवान में स्थित नहीं होने देता है।

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    मन की शुद्धता ही बुद्धि को ईश्वर में स्थित कर सकती है उसे चाहे ध्यान के द्वारा नियंत्रित किया जाये,चाहे जप या साधना उपवासादि के द्वारा या फिर किसी को सहज कृपा से ही संभव हो जाये पर मन का नियंत्र ही जीवन का अमृतमय पक्ष है।