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    Jeevan Darshan: भगवान राम की बाल लीलाओं से मिलती है बड़ी सीख, पढ़ें ये रोचक कथा

    Updated: Sun, 29 Jun 2025 02:38 PM (IST)

    लेख में स्वामी मैथिलीशरण अनंत के गणित के बारे में बताते हैं जिसमें मर्यादा कुशलता विज्ञान और अप्रत्याशित को प्रत्याशित मानने की सावधानी शामिल है। वे काकभुशुंडि जी के उदाहरण से समझाते हैं कि आस्था और विश्वास सृष्टि का अद्भुत गणित है। भगवान की कृपा से ही यह गणित समझ में आता है जो सारे समीकरणों का समाधान है।

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    Jeevan Darshan: भगवान राम की बाल लीला।

    स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। अनंत के गणित में मर्यादा, कुशलता, विज्ञान तथा अप्रत्याशित को प्रत्याशित मानने की सावधानी है। गणित केवल यंत्र में होता है, तकनीकी में होता है, पर समस्त सचराचर अनंत प्रकृति का कोई अवलंबन नहीं है, फिर भी वही शीर्षस्थ, अकल्पनीय, सनातन और वैदिक सत्य है। प्रत्येक कल्प में काकभुशुंडि जी सौ-सौ वर्ष रहे, पर भगवान के मुख के बाहर आकर जब अयोध्या में देखा तो वह सब बाहर की दो घड़ी में ही संभव हो गया था।

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    आस्था और विश्वास सृष्टि का वह अद्भुत गणित है, जो सारे समीकरणों का तात्विक समाधान है। सामान्य रूप में यह व्यक्ति को इसलिए स्वीकार्य नहीं हो सकता है, क्योंकि वह पढ़े हुए गणित से ऊपर नहीं उठ पाता है। यद्यपि पढ़ा हुआ नियमित गणित शत-प्रतिशत उचित है, पर वह गणित स्वयं उस गणित पर आश्रित है, जो गणित का विषय नहीं है। यही अनंत है, अखंड और अनादि है।

    भगवद्गीता में श्रीकृष्ण के द्वारा उस अनंत को इस तरह समझाया गया -

    न तद्भाषयते सूर्यो न शशांको न पावक:।

    यद्गत्त्वा न निवर्तंते तद्धाम परमं मम ।।

    जहां पर सूर्य, चंद्रमा किसी की कोई सत्ता नहीं है, वह मेरा धाम है, जो मैं ही हूं। इसी तत् स्वरूप मैं को जानकर ही मैं से मुक्त हुआ जाता है। समष्टि मैं में व्यष्टि मैं को समाविष्ट कर देना है, तब सारे प्रश्न सुलझ जाते हैं।

    इसी गुत्थी को श्रीरामचरितमानस में भक्त शिरोमणि काकभुशुंडि ने अनुभव किया और रामनिष्ठ हो गए -

    जो नहिं देखा नहिं सुना, जो मनहूं न समाइ।

    सो सब अद्भुत् देखेउं, बरनि कवनि बिधि जाइ।।

    जहां पर न सूर्य, न चंद्रमा, न पृथ्वी, न प्राणी, केवल राम और रामत्व, यही है विराट, वही है सूक्ष्म अणु, जो केवल नाम में समा जाता है। वही अग्नि, वही सूर्य, वही चंद्र। जब शिव-पार्वती स्वयं के विवाह में अपने पुत्र गणेश का पूजन करें, तब विज्ञान का कौन का समीकरण इसको मानेगा? वस्तुत: परम विज्ञान तो वही है, बाकी सब भौतिक विज्ञान है, जिसका आदि और अंत दोनों देश-काल की अवधि में बद्ध है। काकभुशुंडि जी अयोध्या में भगवान की बाल लीलाओं का आनंद ले रहे थे। भगवान के हाथ में मालपुआ है, जिसको वे थोड़ा-सा खाते और बाकी हाथ से गिरा देते थे।

    काकभुशुंडि उस प्रसाद को उठाकर खा लेते थे। यह लीला नित्य चलती थी और वे परमानंद में निमग्न रहते थे। यह भगवान की अनुकूल कृपा थी। अब भगवान ने एक दिन प्रतिकूल कृपा कर दी। कई बार व्यक्ति अपनी इच्छा की पूर्ति को ही भगवान की कृपा मान लेता है और जिस दिन उसकी धारणा के अनुसार इच्छा की पूर्ति नहीं तो बस, भगवान की कृपा पर अविश्वास हो जाता है। जबकि सत्य यह है कि अनुकूलता में प्रभु कृपा होती है और प्रतिकूलता में प्रभु इच्छा होती है। भगवान ने अपने प्रिय भक्त काकभुशुंडि को अपनी इच्छा की कृपा दिखा दी। भगवान ने एक दिन मालपुआ नहीं दिया। काकभुशुंडि जी भगवान से रुष्ट होकर भागने लगे और उड़ गए, भगवान का हाथ उनको पकड़ने के लिए बढ़ा। सातों आवरणों- पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, अग्नि, अहंकार, महत्तत्व और प्रकृति के पार ब्रह्मलोक में भी भगवान का हाथ पीछे लगा रहा।

    अब यहां यह गणित समझ नहीं आता कि भगवान के हाथ की गति कम थी या काकभुशुंडि की गति अधिक थी कि पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक तक भगवान उनको पकड़ नहीं पाए? दो अंगुल की दूरी बनी रही? यही भगवान की अनंतता का वह गणित है, जो केवल भगवान की कृपा से ही समझ आता है और एक बार यदि समझ आ गया, तब उसके पश्चात कुछ और समझना शेष भी नहीं रह जाता है। ईश्वर की विराट सत्ता तो सब जगह एक जैसी और समान है।

    तब भुशुंडि जी ने हारकर अपनी आंखें मूंद लीं। आंखें खोलीं तो वे पुन: अयोध्या में दशरथ जी के दिव्य महल के अजिर में ही थे। काकभुशुंडि ने आनंदित होकर कहा कि भगवान जब मेरी ओर देखकर हंसे, तब मैं उनके मुख में चला गया। मैंने भगवान के पेट में जाकर करोड़ों ब्रह्मा, करोड़ों शिव, अनगिनत तारागण, सूर्य, चंद्रमा, अनगिनत समुद्र, यम, काल, वन, तालाब और विचित्र सृष्टि देखी। सभी ब्रह्मांडों में मैं सौ-सौ वर्ष तक रहा। अनेक अयोध्या, दशरथ, माताएं... पर वे कहते हैं सबके रूप तो भिन्न थे, पर प्रभु श्रीराम वही थे, जो मैंने बाहर देखे। वे कहते हैं कि जब मैं पुन: भगवान के मुख के बाहर निकला तो बाहर अयोध्या की घड़ी में ये सब दो घड़ी में हो गया। यह है अनंत का गणित, जहां समस्त सृष्टि एक राम में समाई हुई है।

    श्रुति का वाक्य “एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति” सिद्ध हो गया। वही भक्तों का विश्वास और श्रद्धा है। भगवान जब बहुत कृपा करते हैं, तब सबमें एक और एक में सब का समीकरण सुलझता है। तुलसीदास जी को समझ आ गया और वे कहने लगे कि :

    एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास।

    एक राम घनश्याम हित, चातक तुलसीदास।।

    बहु मत बहु पथ पंथ पुराननि जहां तहां झगरो सो।

    गुरु कह्यो राम भजन नीको मोहि लगत राज डगरो सो।।

    यही वेदांतियों का एक है

    एक अनीह अरूप अनामा। तेहि सच्चिदानंद परधामा।।

    वही एक फिर अयोध्या में आकर अवधेश का पुत्र बन गया।

    ईश्वर की संपूर्ण रचना बहुत ही सुंदर तथा सुव्यवस्थित गणित की तरह संपूर्ण है। शरीर चाहे मनुष्य का हो, पशु-पक्षी किसी का भी, उसको जैसी आवश्यकता है, उसी के माप में उसे सारी व्यवस्थाएं बिना किसी बैद्धिक प्रयास के प्राप्त हैं। सारा धान्य, फल आदि संपूर्ण पैकिंग के साथ उपलब्ध है, जो मनुष्य और भौतिक विज्ञान से संभव नहीं है।

    उसमें प्रकृति ने किसी भी प्रकार के फेरबदल या गुणा-भाग की कोई गुंजाइश नहीं रखी है। यही ईश्वर का संपूर्ण गणित है। व्यवहार का सत्य है गणित पर प्रेम और भक्ति उस गणित से परे है। व्यवहार और गणित को विवेकपूर्वक समझ लेना ही भक्ति और ज्ञान है।

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