जीवन प्रबंधन: सभी जीवों में भगवान का दर्शन करना ही परम धर्म है
आचार्य नारायण दास के अनुसार, जब मनुष्य ईश्वर की सर्वव्यापी सत्ता का अनुभव करता है, तो उसके भीतर से द्वेष, हिंसा और अहंकार समाप्त हो जाते हैं। भागवत धर्म का मूल सिद्धांत "वासुदेवः सर्वम्" है, जिसका अर्थ है कि संपूर्ण चराचर जगत में एक परमात्मा ही व्याप्त है। इस अनुभूति से भेदभाव मिटता है और प्रेम व शांति स्थापित होती है। सच्चा भगवद्भक्त वह है जो सभी जीवों में भगवान को देखता है और मन, वचन, कर्म से लोक कल्याण में समर्पित रहता है, जिससे संघर्षमुक्त और प्रेमपूर्ण जीवन संभव होता है।

'सेवा परमो धर्म:' का सूत्र ही जीवन प्रबंधन का सार बन जाता है
आचार्य नारायण दास (भागवत मर्मज्ञ आध्यात्मिक गुरु)। जब मनुष्य ईश्वर की सर्वव्यापी सत्ता का अनुभव करता है, तो उसके भीतर का द्वेष, हिंसा, अहंकार और वैर-भाव स्वतः ही समाप्त हो जाता है। भागवत धर्म का सार है- "वासुदेवः सर्वम्"। चराचर में एक परमात्मा ही परिपूर्ण और परिव्याप्त है।
आज संसार में घृणा, ईर्ष्या और वैर-भाव के पनपने का मूल कारण ईश्वर की सर्वव्यापक सत्ता को न समझ पाना है। भागवत धर्म का दिव्य संदेश है कि जब संपूर्ण जगत को प्रभुमय देखा जाएगा, तब भेदभाव का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। यह अनुभूति ही भेद दृष्टि को निर्मूल करती है और परस्पर विरोध तथा संघर्ष समाप्त हो जाते हैं। 'मैं' और 'मेरा' का संकुचित भाव मिटकर "वासुदेवः सर्वम्" (सब कुछ भगवान ही हैं) का भाव हृदय में प्रतिष्ठित होता है, जिससे प्रेम और शांति की धारा प्रवाहित होती है।
राजा निमि ने नौ योगेश्वरों से भगवद्भक्त के लक्षण, आचरण (कार्य-व्यवहार) और भगवान को प्रिय होने के कारणों के विषय में अपनी जिज्ञासा अभिव्यक्त की- हे भगवन्! कृपापूर्वक अवगत कराइए भगवद्भक्त का क्या लक्षण है? उसका स्वभाव और कार्य-व्यवहार समाज में किस प्रकार होता है। वह किन-किन सुलक्षणों के कारण भगवान् को प्रिय होता है?
यह जिज्ञासा केवल भक्ति-ज्ञान मार्ग के लिए ही नहीं, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति के सफल जीवन प्रबंधन का मार्ग भी प्रशस्त करती है। उत्तम प्रबंधन में यह आवश्यक है कि व्यक्ति का स्वभाव, आचरण और वाणी निर्मल हो। दूसरे योगेश्वर हरि जी ने इसका समाधान करते हुए परम भागवत के लक्षणों को बताते हुए उपदेशित किया-
सर्वभूतेषु यः पश्येद् भगवद्भावमात्मनः।
भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः।।
हे राजन्! परम भागवत वह है जो सभी जीवों में भगवान के भाव को देखता है और भगवान में सभी जीवों को देखता है।
भगवद्भक्त का धर्म यहां आंतरिक स्वभाव ही धर्म है।
"धर्म' शब्द संकीर्ण अर्थ में पूजा-पद्धति या कर्मकांड का द्योतक नहीं है, अपितु यह उस भक्त के आंतरिक स्वभाव को दर्शाता है जो ईश्वर-प्रेम के कारण विकसित हुआ है। भागवत का धर्म है—समभाव, निर्भयता और निस्वार्थता। सभी जीवों में भगवान् का दर्शन करना ही उसकी परम धर्म दृष्टि है।
यहां व्यवहार में प्रबंधन के सूत्र अभिव्यंजित हैं। कर्म, वचन और मन से निर्मल रहते हुए, अपने कार्य-व्यवहार को गति-मति देना। कर्म/आचरण कपोलकल्पित न होकर, लोक-कल्याणकारी और धर्म-सम्मत होने चाहिए। वाणी सत्य की सुप्रतिष्ठा के साथ-साथ मधुर और हितकार हो। भगवद्भाव को धारण करने वाले के भीतर क्रोध का अभाव होता है। वह धैर्यवान्, करुणा और संतोष जैसे सद्गुणों से सदा युक्त रहता है।
सच्चा भागवत वह है, जो मन, वचन और कर्म से सदा चराचर की सेवा में यथाशक्ति समर्पित हो। यह दार्शनिक आदर्श ही पूर्ण मानव व्यक्तित्व को परिभाषित करता है। आत्म-ज्ञान अर्थात् ईश्वर की सर्वव्यापकता से प्रेरित सदाचरण ही हमें व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में संघर्षमुक्त, प्रेमपूर्ण और सफल जीवन की ओर ले जाता है। यह एक ऐसी जीवन-शैली है जहां 'सेवा परमो धर्म:' का सूत्र ही जीवन प्रबंधन का सार बन जाता है।

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