क्या आप जानते हैं कर्मयोग का वास्तविक अर्थ? निष्काम सेवा से है इसका गहरा संबंध
भगवान शब्द उस परिव्यापक सत्ता का अवबोधक है जो चराचर में परिव्याप्त है और सबका नियमन करने वाला है। यह दृश्यमान जगत उन्हीं परमात्मा का प्रतिबिंब है। श्रीविष्णु सहस्रनाम में यह तथ्य सुस्पष्ट है और श्रीमद्भागवत में भी। अर्थात अनंतकोटि ब्रह्मांडनायक श्रीहरि को ही कोई ब्रह्म कोई परमात्मा और भक्तजन भगवान कहते हैं।
आचार्य नारायण दास (श्रीभरत मिलाप आश्रम, मायाकुंड, ऋषिकेश)। जो भगवान का है अथवा भगवान जिसे अपना लें, वह भागवत है। भगवान सत्य, न्याय और प्रेम के द्योतक हैं। जिस मानव के जीवन में उक्त तीनों की सहज प्रतिष्ठा होती है, वह भगवत्कृपा से सर्वत्र विजयी और सम्पूज्य होता है।
भगवान शब्द उस परिव्यापक सत्ता का अवबोधक है, जो चराचर में परिव्याप्त है और सबका नियमन करने वाला है। यह दृश्यमान जगत उन्हीं परमात्मा का प्रतिबिंब है। श्रीविष्णु सहस्रनाम में यह तथ्य सुस्पष्ट है और श्रीमद्भागवत में भी-
अनेक रूपरूपाय विष्णवे प्रभुविष्णवे।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवान्निति शब्द्यते।।
अर्थात अनंतकोटि ब्रह्मांडनायक श्रीहरि को ही कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा और भक्तजन भगवान कहते हैं। समग्र सृष्टि ईश्वरमय है, किंतु हमने उसको अपने अनुसार विभिन्न नाम, रूप और संप्रदायादि में विभाजित कर रखा है। ईश्वर सर्वव्यापक और सर्वजनहितैषी है, लेकिन इसका बोधत्व उसी को प्राप्त होगा, जिसके विचारों में पवित्रता, आचरण में शीलता और व्यवहार में पारदर्शिता सहज विद्यमान होगी।
श्रीमद्भागवत के द्वितीयस्कंध के नवम अध्याय में आध्यात्मिक, धार्मिक और परमार्थिक तत्व को प्रकाशित करने वाले मुख्य चार श्लोक हैं, जिन्हें "चतुश्लोकी भागवत" कहते हैं। यह उपदेश भगवान ने सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी को दिया था। श्रीब्रह्मा जी से देवर्षि नारद जी को, उनसे महर्षि वेदव्यास जी को और व्यास महाभाग ने अपने पुत्र श्रीशुकदेव जी को प्रदान किया। श्रीमद्भागवत के सप्ताह विधि का विधान श्रीसनकादि चार ऋषियों (सनक, सनन्दन, सनातन और सनतकुमार)।
हमारा जीवन भगवत्स्मरण के साथ-साथ कर्तव्यबोध, सदाचार और परोपकार करते हुए व्यतीत हो। इसे ही कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग कहा गया है। समस्त सम्पदा लोक कल्याण के लिए है। ऐसे निष्कामभाव से सेवामय जीवन जीना ही कर्मयोग है। सब कुछ भगवान ही हैं, ऐसे सुंदर भाव से सबकी यथाशक्ति सेवा करना ही भक्तियोग है। ईश्वर के अतिरिक्त इस संसार में जो कुछ है, वह मेरा नहीं, अपितु भगवान का ही है, हम केवल निमित्त मात्र हैं, ऐसा विशुद्ध चिंतन ही ज्ञानयोग है।
चतुश्लोकी भागवत में सर्वप्रथम ब्रह्मतत्व को अभिव्यंजित किया गया है-
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।
पश्चादहं यदेतच्च यो वशिष्येत सो स्म्यहम्।।
भगवान श्रीब्रह्मा जी से कहते हैं, सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही था। मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। जहां चराचरसृष्टि का अभाव है, वहां भी केवल मैं ही हूं। इस सृष्टि के रूप में जो कुछ भी चराचर जगत दिखाई दे रहा है, वह मैं ही हूं और जो कुछ भी शेष रहेगा, वह भी मैं ही हूं। इसका मूल तात्पर्य यह है कि दृश्यमान समग्र चराचर जगत ईश्वरमय है। अर्थात सब कुछ परमात्मा ही है। ब्रह्म ही एक मात्र सत्य सत्ता है।
"एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति" जो तीनों कालों में (भूत, भविष्य और वर्तमान) सिद्ध है। यह परमतत्व कभी दृश्यमान कभी अदृश्य, कभी स्थूल और कभी सूक्ष्म रूप से प्रकाशित होता है। यह ही चराचर का प्रकाशक और नियमन करने वाला है। सृष्टि संरचना के पूर्व अदृश्य एवं सूक्ष्मरूप में सर्वत्र परिव्याप्त और शांत रहता है। सृष्टि के सृजन के समय यह ब्रह्मतत्व ही नामरूपादि स्थूल जगत के रूप में प्रतिभाषित होता है।
सृष्टि के अवसान पर प्रलयकाल में पुनः पूर्ववत हो जाता है। अर्थात दृश्यरूप सृष्टि ईश्वर बोधक और अदृश्यरूप सृष्टि भी ईश्वर संज्ञक है। ज्ञान, विज्ञान, तर्क और आत्मचिंतन से यह तथ्य ही मुखरित होता है कि सर्वातीत, सर्वव्यापक और सर्वस्वरूप भगवान ही सर्वकाल में सर्वत्र समान रूप से सुप्रतिष्ठित हैं। श्रीमद्भागवत के इस सिद्धांत का प्रतिपादन "ईशावास्य उपनिषद" का प्रथम मंत्र भी सुस्पष्ट करता है-
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।
जड़-चेतन मय और विभिन्न प्राणियोंवाली समग्र सृष्टि परमात्मा से परिव्याप्त है। जिसका उपयोग त्यागपूर्व करना चाहिए। मोह के वशीभूत होकर सृष्टि की वस्तुओं को अपना मान लेना बहुत बड़ी अज्ञानता है। चराचर जगत की कोई भी वस्तु स्थायी नहीं है। मेरी नहीं है अपितु परमात्मा की है। इस श्रेष्ठ और पवित्र भाव की अवधारणा से किसी वस्तु आदि का संग्रह कदापि न करे, बल्कि "तेरा तुझको अर्पण" इस भाव-विचार से जीवन जिए्ँ और आनन्दित रहें।
आचार्य नारायण दास (श्रीभरत मिलाप आश्रम, मायाकुंड, ऋषिकेश)। जो भगवान का है अथवा भगवान जिसे अपना लें, वह भागवत है। भगवान सत्य, न्याय और प्रेम के द्योतक हैं। जिस मानव के जीवन में उक्त तीनों की सहज प्रतिष्ठा होती है, वह भगवत्कृपा से सर्वत्र विजयी और सम्पूज्य होता है। भगवान शब्द उस परिव्यापक सत्ता का अवबोधक है, जो चराचर में परिव्याप्त है और सबका नियमन करने वाला है। यह दृश्यमान जगत उन्हीं परमात्मा का प्रतिबिंब है। श्रीविष्णु सहस्रनाम में यह तथ्य सुस्पष्ट है और श्रीमद्भागवत में भी-
अनेक रूपरूपाय विष्णवे प्रभुविष्णवे।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवान्निति शब्द्यते।।
अर्थात अनंतकोटि ब्रह्मांडनायक श्रीहरि को ही कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा और भक्तजन भगवान कहते हैं। समग्र सृष्टि ईश्वरमय है, किंतु हमने उसको अपने अनुसार विभिन्न नाम, रूप और संप्रदायादि में विभाजित कर रखा है। ईश्वर सर्वव्यापक और सर्वजनहितैषी है, लेकिन इसका बोधत्व उसी को प्राप्त होगा, जिसके विचारों में पवित्रता, आचरण में शीलता और व्यवहार में पारदर्शिता सहज विद्यमान होगी।
श्रीमद्भागवत के द्वितीयस्कंध के नवम अध्याय में आध्यात्मिक, धार्मिक और परमार्थिक तत्व को प्रकाशित करने वाले मुख्य चार श्लोक हैं, जिन्हें "चतुश्लोकी भागवत" कहते हैं। यह उपदेश भगवान ने सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी को दिया था। श्रीब्रह्मा जी से देवर्षि नारद जी को, उनसे महर्षि वेदव्यास जी को और व्यास महाभाग ने अपने पुत्र श्रीशुकदेव जी को प्रदान किया। श्रीमद्भागवत के सप्ताह विधि का विधान श्रीसनकादि चार ऋषियों (सनक, सनन्दन, सनातन और सनतकुमार)।
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हमारा जीवन भगवत्स्मरण के साथ-साथ कर्तव्यबोध, सदाचार और परोपकार करते हुए व्यतीत हो। इसे ही कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग कहा गया है। समस्त सम्पदा लोक कल्याण के लिए है। ऐसे निष्कामभाव से सेवामय जीवन जीना ही कर्मयोग है। सब कुछ भगवान ही हैं, ऐसे सुंदर भाव से सबकी यथाशक्ति सेवा करना ही भक्तियोग है। ईश्वर के अतिरिक्त इस संसार में जो कुछ है, वह मेरा नहीं, अपितु भगवान का ही है, हम केवल निमित्त मात्र हैं, ऐसा विशुद्ध चिंतन ही ज्ञानयोग है।
चतुश्लोकी भागवत में सर्वप्रथम ब्रह्मतत्व को अभिव्यंजित किया गया है-
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।
पश्चादहं यदेतच्च यो वशिष्येत सो स्म्यहम्।।
भगवान श्रीब्रह्मा जी से कहते हैं, सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही था। मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। जहां चराचरसृष्टि का अभाव है, वहां भी केवल मैं ही हूं। इस सृष्टि के रूप में जो कुछ भी चराचर जगत दिखाई दे रहा है, वह मैं ही हूं और जो कुछ भी शेष रहेगा, वह भी मैं ही हूं। इसका मूल तात्पर्य यह है कि दृश्यमान समग्र चराचर जगत ईश्वरमय है। अर्थात सब कुछ परमात्मा ही है। ब्रह्म ही एक मात्र सत्य सत्ता है।
"एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति" जो तीनों कालों में (भूत, भविष्य और वर्तमान) सिद्ध है। यह परमतत्व कभी दृश्यमान कभी अदृश्य, कभी स्थूल और कभी सूक्ष्म रूप से प्रकाशित होता है। यह ही चराचर का प्रकाशक और नियमन करने वाला है। सृष्टि संरचना के पूर्व अदृश्य एवं सूक्ष्मरूप में सर्वत्र परिव्याप्त और शांत रहता है। सृष्टि के सृजन के समय यह ब्रह्मतत्व ही नामरूपादि स्थूल जगत के रूप में प्रतिभाषित होता है।
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सृष्टि के अवसान पर प्रलयकाल में पुनः पूर्ववत हो जाता है। अर्थात दृश्यरूप सृष्टि ईश्वर बोधक और अदृश्यरूप सृष्टि भी ईश्वर संज्ञक है। ज्ञान, विज्ञान, तर्क और आत्मचिंतन से यह तथ्य ही मुखरित होता है कि सर्वातीत, सर्वव्यापक और सर्वस्वरूप भगवान ही सर्वकाल में सर्वत्र समान रूप से सुप्रतिष्ठित हैं। श्रीमद्भागवत के इस सिद्धांत का प्रतिपादन "ईशावास्य उपनिषद" का प्रथम मंत्र भी सुस्पष्ट करता है-
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।
जड़-चेतन मय और विभिन्न प्राणियोंवाली समग्र सृष्टि परमात्मा से परिव्याप्त है। जिसका उपयोग त्यागपूर्व करना चाहिए। मोह के वशीभूत होकर सृष्टि की वस्तुओं को अपना मान लेना बहुत बड़ी अज्ञानता है। चराचर जगत की कोई भी वस्तु स्थायी नहीं है। मेरी नहीं है अपितु परमात्मा की है। इस श्रेष्ठ और पवित्र भाव की अवधारणा से किसी वस्तु आदि का संग्रह कदापि न करे, बल्कि "तेरा तुझको अर्पण" इस भाव-विचार से जीवन जिएं और आनन्दित रहें।
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