Samudra Manthan: कब और कैसे हुई अमृत कलश की उत्पत्ति? पढ़ें समुद्र मंथन की कथा
समुद्र मंथन की प्रक्रिया में 14वें स्थान पर अमृत कलश का प्रादुर्भाव हुआ। यहां चौदह संख्याओं का आध्यात्मिक पक्ष है। हमारे शरीर में पांच कर्मेन्द्रियां और पांच ज्ञानेंद्रियां हैं। वाक (वाणी) हाथ पैर गुदा और लिंग कर्मेंद्रियां हैं जिनसे हम कर्म करते हैं। कर्ण नेत्र रसना नासिका और त्वचा ज्ञानेंद्रियां हैं जिनसे हम अनुभव करते हैं। समुद्रमंथन दो विचारधाराओं को एक कर सामाजिक परिवर्तन हेतु एक विमल क्रांति है।

आचार्य नारायण दास (श्रीभरतमिलाप आश्रम, ऋषिकेश)। जीवन में परस्पर एकता, प्रियता के साथ कार्य करने से जो दुर्लभ है, वह सुलभ हो जाता है। समुद्र मंथन में सर्वप्रथम हलाहल विष निकला, जिसे लोकहित में भगवान शिव ने सहर्ष ही कंठस्थ कर लिया और वह नीलकंठ के नाम से अखिल ब्रह्मांड में सादर सुविख्यात हो गए।
सामाजिक जीवन में आने वाली प्रतिकूलताएं और विषमताएं विषतुल्य ही हैं, जिनसे जनजीवन विषाक्त होकर, मानवता के मूल आदर्श और सिद्धांतों को छोड़कर, पतन के मार्ग पर चला जाता है। ऐसे समय में हमें भगवान शिव के विषपान की कथा का अवलंबन को अंगीकार कर, सामाजिक जनजीवन को विषाक्त होने से बचाने के लिए व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं और मान-अपमान का परित्याग कर, सबके कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने हेतु कटिबद्ध होना चाहिए।
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यह असीम अव्यक्त ब्रह्मांड अत्यंत विशाल दिव्यातिदिव्य पारलौकिक चेतना के विकास की अनंत सम्भावनाओं दिव्यस्रोत है, जिनका लाभ तभी संभव होगा, जब पवित्र और पारदर्शी विचारों के साथ परस्पर एकता के सूत्र में आबद्ध होकर, हम सत्कार्य करेंगे। देवता समाज में सकारात्मक और दानव नकारात्मक विचारधाराओं के प्रतीक हैं, समुद्रमंथन दो विचारधाराओं को एक कर सामाजिक परिवर्तन हेतु एक विमल क्रांति है। समुद्र मंथन का 14 वां रत्न अमृत है, जिसकी प्राप्ति सामाजिक जीवन के संघर्षों में दृढ़तापूर्वक अपने लक्ष्य पर अडिग रहने का दैवी शुभाशीष है, जो परम शांति और शाश्वत सत्य के बोधत्व का परिचायक है।
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समुद्र मंथन के अंत में 13वें और 14वें रत्न के रूप भगवान धन्वंतरि जी अपने हाथों में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए। पौराणाकि मान्यतानुसार, धन्वंतरि जी आयुर्वेद के प्रवर्तक और देवताओं के वैद्य हैं, उनके प्राकट्य का संकेत है, हमें किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति में अपने शरीर को पथ्य और औषधियों के माध्यम से स्वस्थ रखना चाहिए, क्योंकि स्वस्थ शरीर ही समस्त धर्म-कर्म का साधन है, कहा भी गया है- " शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधम्"।
उत्तम स्वास्थ्य और मन की निर्मलता ही भगवत्प्रेम सुधारस का पान करती है। शरीर की निरोगिता और मन की निर्मलता के बिना अमरत्व का पान दुष्कर है। जब हमारा तन निरोगी और मन निर्मल होगा, तो निश्चित ही हमें परमात्मा रूपी अमरत्व की प्राप्ति हो जाएगी।
समुद्र मंथन की प्रक्रिया में 14वें स्थान पर अमृत कलश का प्रादुर्भाव हुआ। यहां चौदह संख्याओं का आध्यात्मिक पक्ष है। हमारे शरीर में पांच कर्मेन्द्रियां और पांच ज्ञानेंद्रियां हैं। वाक (वाणी), हाथ, पैर, गुदा और लिंग कर्मेंद्रियां हैं, जिनसे हम कर्म करते हैं। कर्ण, नेत्र, रसना, नासिका और त्वचा ज्ञानेंद्रियां हैं, जिनसे हम अनुभव करते हैं। इसके बाद चार हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। जब श्रीगुरुगोविंदकृपा प्रदत्त साधना के द्वारा जब इन 14 पर नियंत्रण हो जाता है, तब आत्मतत्व रूपी ईश्वरत्व के बोधत्व के अमृत का पान साधक को सुलभ हो जाता है।
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