गोरखपुर AIIMS में डॉक्टरों पर शिकंजा, MR पर रोक; डॉक्टरों को दी गई है सख्त चेतावनी
गोरखपुर एम्स में डॉक्टरों द्वारा ब्रांडेड दवाएं लिखने पर रोक लगा दी गई है। सभी डॉक्टरों को जेनरिक नाम से दवा लिखने का निर्देश दिया गया है और परिसर में मेडिकल रिप्रजेंटेटिव के प्रवेश पर रोक लगा दी गई है। दैनिक जागरण में खबर छपने के बाद कार्यकारी निदेशक ने निरीक्षण किया। एम्स के बाहर के दुकानदार अपनी पसंद की ब्रांडेड दवाएं बनवाते हैं, जिससे मरीजों को वही दवा खरीदने की मजबूरी होती है। कमीशन के चक्कर में डॉक्टर सेटिंग वाली दवाएं लिखते हैं।

जागरण संवाददाता, गोरखपुर। मेडिकल रिप्रजेंटेटिव (एमआर) से साठगांठ कर एकाधिकार (मोनोपोली) वाली ब्रांडेड दवाएं लिखने वाले एम्स के डाक्टरों पर शिकंजा कसा गया है। सभी डाक्टरों और उनके विभागाध्यक्षों को निर्देश जारी किए गए हैं कि वह हर हाल में जेनरिक नाम से ही दवाएं लिखेंगे। साथ ही परिसर में एमआर के प्रवेश पर रोक लगा दी गई है।
सभी गार्डों को निर्देश दिए गए हैं कि वह एमआर को परिसर में न आने दें। यदि एमआर अपना रोग दिखाने परिसर में आ रहे हैं तो उनका बैग व अन्य सामान रखवा दिया जाए। कोई एमआर रोगी बनकर डाक्टर के कक्ष में प्रवेश न करने पाए। इसके लिए गार्ड बिना पर्चा देखे उन्हें अंदर न जाने दें।
दैनिक जागरण ने 20 नवंबर के अंक में एम्स में ब्रांडेड दवाएं लिखने से जुड़ी खबर प्रकाशित की थी। खबर प्रकाशित होने के बाद कार्यकारी निदेशक मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) डा. विभा दत्ता ने ओपीडी का निरीक्षण किया। उन्होंने हर कक्ष में पहुंचकर एमआर के बारे में जानकारी ली। साथ ही डाक्टरों द्वारा लिखा गया पर्चा भी देखा। हिदायत दी कि सभी डाक्टर जेनरिक नाम से ही दवाएं लिखें। इस निर्देश का सभी को अनिवार्य रूप से पालन करना है।
दुकानदार ही बनवा रहे हैं दवा
एम्स परिसर के बाहर के ज्यादातर दवा के दुकानदारों के पास थोक बिक्री का भी लाइसेंस है। इनमें से ज्यादातर खुद ही हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड आदि स्थानों पर कंपनियों से संपर्क कर दवा बनवाते हैं। दवाएं वह खुद द्वारा चुने ब्रांड नाम से बनवाते हैं इसलिए वह जिसको चाहते हैं, दवा बेचते हैं।
डॉक्टर इनके ब्रांड नाम की दवा लिखते हैं। इस कारण यह दवा कहीं और नहीं मिलती। रोगी की मजबूरी है कि डाक्टर ने जो दवा लिखी है, वही खानी है। यदि उसी फार्मूले की दूसरी कंपनी की दवा दी जाती है तो डाक्टर इसे गलत बताकर वापस करा देते हैं।
अमृत फार्मेसी में भी ब्रांडेड दवाएं कम
एम्स परिसर में खुले अमृत फार्मेसी में भी ब्रांडेड दवाएं कम ही मिलती हैं। अच्छी कंपनी की वही दवाएं रखी जाती हैं जो सस्ती कंपनियां नहीं बनाती हैं। तत्कालीन कार्यकारी निदेशक डा. अजय सिंह ने अमृत फार्मेसी में छापा मारकर इसका पर्दाफाश भी किया था लेकिन मामला ठंडे बस्ते में चला गया।
अमृत फार्मेसी में कहने को तो दवाएं प्रिंट से 20 से 40 प्रतिशत तक की छूट पर दी जाती हैं लेकिन इनमें से ज्यादातर दवाएं मोनोपोली वाली ही रहती हैं। यानी यह दवाएं भी दूसरी जगह पर मिलनी मुश्किल होती हैं। जबकि अमृत फार्मेसी में अच्छी कंपनियों की दवाएं कम से कम लाभ पर बेचने का निर्देश है।
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दवाओं पर कमीशन का है खेल
अच्छी कंपनी की दवाओं की बिक्री में बहुत ज्यादा लाभ नहीं होता है। इस कारण सरकारी अस्पतालों में ज्यादातर डाक्टर सेटिंग वाली दवाएं ही लिखते हैं। इन दवाओं पर प्रिंट भी ज्यादा होता है और इनकी खरीद काफी कम होती है। उदाहरण के रूप में इसे ऐसे समझें- मान लीजिए गैस से राहत की ब्रांडेड कंपनी की एक कैप्सूल की कीमत 12 रुपये है तो सस्ती कंपनी वही कैप्सूल 12 रुपये में 10 पीस बेचती है।
यानी एक कैप्सूल की कीमत 1.20 रुपये होती है। अब यदि डाॅक्टर ने किसी को 10 कैप्सूल लिखी तो इसे बेचने पर 108 रुपये का फायदा होता है। यही फायदा डाक्टर और दुकानदार के बीच में बंट जाता है। डाक्टर को तकरीबन 60 से 70 प्रतिशत तक का कमीशन दिया जाता है। रोगी को गैस बने या नहीं, हर डाक्टर के पर्चे पर गैस की कैप्सूल जरूर होगी। ज्यादा रुपये कमाने के चक्कर में कुछ डाक्टर तो गैस की ऐसी कैप्सूल शुरू में ही देते हैं जो किसी दवा का फायदा न होने पर दी जाती है।
ऐसा ही कमीशन एंटीबायोटिक, कैल्शियम, मल्टीविटामिन आदि में है। हड्डी की मजबूती के लिए डाक्टरों ने ऐसी दवाएं लिखनी शुरू कर दी हैं जिनका कांबिनेशन देखकर कंपनियों के अधिकारी भी माथा पीट लेते हैं। इन कंबीनेशन की दवाएं दूसरी कंपनी में मिल ही नहीं सकती हैं। इसी का फायदा उठाकर मनमाना रेट वसूला जाता है। रोगी बेचारा जीवन बचाने के लिए रुपये बर्बाद करता रहता है।

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