Bihar Vidhan Sabha Election 2025: जानें समाजवादी पार्टी ने बिहार विधानसभा के चुनाव में क्याें नहीं उतारा अपना एक भी प्रत्याशी
Bihar Vidhan Sabha Election 2025: वर्ष 2020 के चुनावों की तरह ही इस बार भी बिहार में न लड़ने का फैसला लेने की एक बड़ी वजह है कि वहां सपा का आधार बेहद सीमित रहा है, 2015 के बाद से चुनाव लड़ने के कारण इसमें और कमजोरी आई है।

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव
दिलीप शर्मा, जागरण, लखनऊ: पड़ोसी राज्य बिहार में जाेरदार चुनावी घमासान शुरू हो चुका है। भाजपा और कांग्रेस जैसे दल तो अपने वहां के गठबंधन वाले दलाें के साथ मैदान में हैं ही, बसपा और सुभासपा जैसे पार्टियां भी भाग्य आजमा रही हैं। इन सबके बीच वहां पर सपा का मैदान में नहीं हाेना, काफी चाैंका रहा है।
चुनावी बिसात पर सपा की मौजूदगी केवल महागठबंधन और इसमें भी विशेषकर राजद के समर्थन तक ही सीमित है। बिहार के चुनाव से पार्टी की दूरी का सपा प्रमुख अखिलेश यादव का निर्णय पूरी तरह से रणनीतिक है। बिहार में पाने के लिए उसके पास बहुत कुछ नहीं और पार्टी नहीं चाहती कि वहां के चुनावी प्रदर्शन की छाया उत्तर प्रदेश पर पड़े।
यहां उनकी रणनीति की रफ्तार प्रभावित न हो, इसीलिए बिहार में नहीं लड़ा जा रहा है। सपा अपना पूरा ध्यान वर्ष 2027 में होने वाले प्रदेश के विधानसभा चुनावों पर केंद्रित रखना चाहती है। दूसरी तरफ समर्थन के सहारे सपा प्रमुख ने इंडी गठबंधन के प्रति अपनी जिम्मेदारी का संदेश भी दे दिया है।
वर्ष 1992 में सपा के गठन के बाद बिहार का यह दूसरा चुनाव है, जब समाजवादी पार्टी सीधे चुनावी लड़ाई में नहीं उतरी है। सपा ने गठन के बाद वर्ष 1995 के बिहार विधानसभा चुनावों में ही ताल ठोंक दी थी। उस चुनाव में 176 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे और दो सीटों पर जीत मिली थी। तब सपा से तस्लीमुद्दीन और मुजफ्फर हुसैन विधायक बने थे।
इसके बाद वर्ष 2000 के बिहार चुनाव में सपा ने 122 सीटाें पर भाग्य आजमाया, परंतु एक भी सीट हासिल नहीं हुई थी। वर्ष 2005 में 142 सीटों पर लड़कर सपा ने चार पर जीत हासिल की, तब दिलीप वर्मा, ददन सिंह, मो. आफाक आलम और देवनाथ यादव विधायक बने थे।
पार्टी ने वर्ष 2010 में 146 व 2015 में 135 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, परंतु सभी पर हार का सामना करना पड़ा था। इसके बाद उत्तर प्रदेश में वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा को करारी हार मिली थी और हाथ से सत्ता चली गई थी। तब से सपा बिहार चुनाव से दूर है।
वर्ष 2020 के चुनावों की तरह ही इस बार भी बिहार में न लड़ने का फैसला लेने की एक बड़ी वजह है कि वहां सपा का आधार बेहद सीमित रहा है, 2015 के बाद से चुनाव लड़ने के कारण इसमें और कमजोरी आई है। पहले के चुनावों में भी सपा को 2005 में अधिकतम 2.69 प्रतिशत वोट ही मिले थे। ऐसे में चुनाव लड़ने से की सूरत में कहीं परिणाम खराब आता तो उत्तर प्रदेश में विराेधी उसे सपा के खिलाफ उपयोग करते और कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरने की भी आशंका बनी रहती।
ऐसे में सपा कतई ऐसा कोई जोखिम नहीं चाहती, जिससे उप्र उसकी राजनीति पर विपरीत प्रभाव पड़े, विशेषकर उस समय जब अगले विधानसभा चुनाव से पहले संगठन मजबूत करने, जातीय समीकरण साधने और भाजपा के खिलाफ वैकल्पिक नैरेटिव बनाने की रणनीति पर काम किया जा रहा है। सपा लगातार अपने पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक (पीडीए) के सामने चुनाव की बिसात बिछाने में जुटे हैं। इनके साथ अन्य वर्गों को भी साधने की कोशिश जारी है।
यही वजह है कि सपा प्रमुख ने बिहार में इंडी गठबंधन के साथी के तौर पर राजद काे समर्थन कर अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत रखने की रणनीति चुनी है। अब अखिलेश यादव आने वाले दिनों में महागठबंधन के समर्थन में कुछ रैलियों को संबोधित करने की संभावना है। हालांकि इसके बावजूद उनका पूरा ध्यान उत्तर प्रदेश पर ही केंद्रित रहेगा।
मुलायम ने लड़ा हर चुनाव, अखिलेश ने बदली रणनीति
समाजवादी पार्टी के गठन के बाद पार्टी ने बिहार में जो चार चुनाव लड़े, उस दौरान मुलायम सिंह यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। वर्ष 2020 के चुनाव के समय पार्टी की कमान अखिलेश यादव के हाथ में थी और उन्होंने चुनाव लड़ने की रणनीति अपनाई, जो इस बार भी बरकरार है।

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