Lucknow Jagran Samvadi 2025: अव-चेतन में बस एक प्रश्न...क्या आप जीवन में खुश हैं?
Chetan Bhagat in Jagran Samvadi 2025: फाइव प्वाइंट समवन तो 2004 में आई, लेकिन इस पर फिल्म थ्री ईडियट 2009 में। यानी पांच साल बाद। फाइव प्वाइंट समवन की सफलता को याद करते हुए चेतन कहते हैं कि हास्टलों में मेरी किताब के 20-20 पन्ने फाड़कर छात्र एक दूसरे से साझा करते थे कि तुमने पढ़ी।

दैनिक जागरण संवादी के सत्र अपराध कथा से रोमांस की जर्नी में चेतन भगत (दाएं) से संवाद करते द्वारका उनियाल
पवन तिवारी, जागरण, लखनऊ: मंच पर जब चेतन भगत हों, युवाओं से भरा प्रांगण हो, अग्रिम कतारें प्रबुद्धजन से सुशोभित हों...ऐसी सुरुचिपूर्ण जुटान, मंथन से नवनीत (दही मथने से निकला ताजा मक्खन) तो निकलना ही था। भरी सभा में खरबों का प्रश्न उछाला सुप्रसिद्ध उपन्यासकार से लेकर मोटिवेशनल स्पीकर का सफर तय कर चुके चेतन ने- क्या अपने जीवन में आप खुश हो? कहते हैं, ‘किसी से यह पूछ लेना कितना आसान है, लेकिन जिससे पूछा गया है, उसके लिए कितना कठिन।’ वह स्वयं स्वीकारते हैं, ‘मेरे बच्चे मेरा मजाक उड़ाते हैं। खुश होने के सवाल पर बेटा कहता है- क्या पापा, यह भी कोई सवाल है?
क्या नया करने की इच्छा है? इस प्रश्न पर फाइ प्वाइंट समवन (इसी पुस्तक पर फिल्म थ्री ईडियट्स बनी थी) के लेखक चेतन भगत कहते हैं, ’आई-फोन ही है। हर साल नया वर्जन आता है उसका। होता आई-फोन ही है वह, लेकिन हर बार कुछ नयापन लेकर आता है। हर बार उसकी बॉडी में एक नई फिनिशिंग आती है। यही हमें भी करना है अपनी जिंदगी के लिए। हर साल नहीं तो हर पांच वर्ष में आपका नया वर्जन आना चाहिए। कहने का आशय यह कि खुद को अपडेट करते रहना चाहिए। हर साल आपको सद्बुद्धि आनी चाहिए।’ कहते हैं-करियर ही सबकुछ नहीं है। हम हमेशा कहते हैं कि अपने शौक के पीछे भागो। जिस चीज का जुनून हो, उसके पीछे लग जाओ।
हर चीज का आता है बिल
जीवन में हर चीज का बिल आता है। मैं अपने बच्चों के लिए भी कहीं कहीं अनफिट साबित होता हूं। वे कहते हैं कि पापा को तो अब ये करना, वो करना है। अपने भीतर की खुशी, हमारी आंतरिक, आत्मिक शांति ही सबसे बड़ी पूंजी होती है। कहते-कहते भगत कह जाते हैं कि अगर पैसे से सुकून मिलता तो अरबों रुपये कमाने वाले, पूरी दुनिया में सेलिब्रिटी के तौर पर पहचान हासिल करने वाले रात में सोने से पहले ड्रग्स नहीं मांगते...और गरम फुलके उतारने वाली गृहिणी बिस्तर पर पड़ते ही खर्राटे न ले पाती। कहते हैं कि तालियों के पीछे भागूंगा तो मेरे शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी हो जाएगी। कम सो पाऊंगा। वह इस चिंता को विमर्श में लाना चाहते हैं कि लोग अपनी कमाई, अपनी संपत्ति बढ़ाने की बातें तो करते हैं, लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि कोई सुबह उठकर यह नहीं कहता है कि कल मैं पांच घंटे सोता था और अब तीन घंटे ज्यादा यानी आठ घंटे सोता हूं। इससे मेरा स्वास्थ्य सुधरेगा। कभी कभी तो ठीक है, लेकिन हर वक्त काम के पीछे भागना और आंतरिक खुशी के लिए समय न निकाल पाना नुकसानदेह है। आदमी को अक्ल तो मरने के वक्त आती है।
लखनऊ विश्वविद्यालय के मालवीय सभागार में दैनिक जागरण संवादी के सत्र अपराध कथा से रोमांस की जर्नी के लिए चेतन भगत से संवाद को रोचकता की ओर बढ़ाते हुए कवि और आरवी विश्वविद्यालय, मैसूर के प्रति कुलपति द्वारका उनियाल जिंदगी का आधार सफर पूरा कर चुके लोगों के लिए एक टर्म उठाते हैं- एम्पटी नेस्टर। हम बात आगे बढ़ाने से पहले आपको इस टर्म के बारे में बताना चाहेंगे। एम्पटी नेस्टर का अर्थ है खाली घोसला।
यह एक तरह का सिंड्रोम है। यह शब्द उन माता-पिता के लिए इस्तेमाल होता है जिनके बच्चे वयस्क होने के बाद घर छोड़कर चले गए हैं, जिससे माता-पिता में उदासी, अकेलापन और खालीपन की भावना आ सकती है। यह एक भावनात्मक अवस्था है जिसे "खाली घोंसला सिंड्रोम" कहा जाता है। सत्र के सूत्रधार उनियाल के एम्पटी नेस्ट के प्रश्न पर चेतन कहते हैं, ‘एक ही तो जिंदगी है। कब जियोगे? कैसे खुश रहोगे? क्या बच्चे आपसे कहेंगे कि पापा, अब रहने दो, अब अपने मन की करो। न कोई नहीं कहने वाला। मेरा बनाया घोसला था। तिनका-तिनका जोड़ा। बच्चों को पाल दिया।
अब वे अपनी जिंदगी में मस्त हो गए यानी चिड़िया उड़ गई। जोर देते हैं कि अपनी जिंदगी जिओ। आप मर-मरकर पैसे जोड़ेंगे और एक दिन दुनिया छोड़कर चले जाएंगे। अपने लिए भी तो कुछ सोचो। गाड़ी लेनी है तो एसयूवी लेते हैं आप। कभी अपने लिए टू सीटर भी तो लो। मैंने अपने लिए ली है। अपने लिए कब जियोगे आखिर। माहौल में हंसी बिखेरते हुए चेतन कहते हैं-आप अपने पैसे अपने ऊपर नहीं खर्चोगे तो आपकी बहुएं आपके पैसों से हीरे खरीदेंगी। सभागार में ठहाके गूंजते हैं। ठहाकों के बीच वे हंसी का एक और तड़का लगाते हैं। कहते हैं कि महिलाओं की सास के जुल्म के तो चर्चे होते हैं, लेकिन पुरुषों की सास उन पर क्या जुल्म ढाती हैं, कहीं जिक्र नहीं होता।
इससे पहले सत्र का शुभारंभ करते हुए उनियाल सभागार में उपस्थित शिक्षकों इस शेर के माध्यम से जोड़ते हैं-
हम सब जिंदगी का ब्लैक बोर्ड लिए यहां वहां फिरते हैं
वक्त की चाक से लिखते हैं- मिटाते हैं
हां, कभी सीखने की जिद थी
आज सिखाने का बहाना...
चेतन की ओर उन्मुख हो, उनका प्रथम प्रश्न आता है- वक्त को 20 साल पहले लेकर जाते हैं। आपके पहले उपन्यास फाइव प्वाइंट समवन के लिए आपने कितना धैर्य रखा? पहले लेखक, फिर मोटिवेशनल स्पीकर और आज की जिंदगी के बारे में बताएं। चेतन कहते हैं, ‘शौक में लिखी यह किताब। एक दो साल तक तो कोई इसे छापना नहीं चाहता था। यह हाफ गर्ल फ्रेंड की तरह कोई कमर्शियल किताब नहीं थी।’ धीरे-धीरे यह लोकप्रिय हो गई। फाइव प्वाइंट समवन तो 2004 में आई, लेकिन इस पर फिल्म थ्री ईडियट्स 2009 में।
यानी पांच साल बाद। फाइव प्वाइंट समवन की सफलता को याद करते हुए चेतन कहते हैं कि हास्टलों में मेरी किताब के 20-20 पन्ने फाड़कर छात्र एक दूसरे से साझा करते थे कि तुमने पढ़ी? चेतन कहते हैं कि पहले मोबाइल वाली बीमारी नहीं थी, तो लोग चीजें ऐसे ही वायरल करते थे। आफिस में बैठकर ही यह कहानी मेरे दिमाग में आई थी।
नौकरी छोड़कर लेखन की ओर आए
आइआइटी, आइआइएम की पढ़ाई और शानदार नौकरी छोड़कर आप लेखन की ओर आए। तब स्टार्टअप जैसा नहीं होता तो किताबें लिखना? इतना बड़ा रिस्क क्यों लिया? भगत हंसते हैं-किताबें लिखना कोई स्टार्टअप नहीं होता, इसमें कोई यूनिकार्न (एक अरब डालर से अधिक मूल्यांकन वाली निजी कंपनी) नहीं होता। जैसे मैंने अपनी जिंदगी जी। कालेज के समय में मेरे पास चाय के पैसे नहीं होते थे, लेकिन मैं खुश बहुत रहता था। पढ़ाई के बाद नौकरी लगी तो इतने अच्छे पैसे मिलने लगे कि चाय क्या चाय की दुकान खरीद लूं। पर...मुझे खुशी नहीं होती थी। मुझे लगता था कि मेरे पास दिमाग है तो मैं क्यों न वह काम करूं जिसमें मुझे खुशी मिले। सोचता था कि कुछ रचनात्मक करूं। कुछ नया करूं।
संवादी का आयोजन स्थल और यहां का उत्सवी वातावरण चेतन को बहुत भाया। कहते हैं, ‘कई स्थानों पर संवादी में शामिल हुआ, लेकिन यहां तो वाकई लग रहा कि किसी मेले में आए हैं। यह सभागार फिल्म का सेट लग रहा। यहां कितने इतिहास रचे गए हों’। सत्र के समापन के अवसर पर चेतन भगत की दूसरी किताब चेतन भगत- 12 साल -मेरी मेस्डअप -लव स्टोरी के हिंदी अनुवाद के आवरण पृष्ठ का विमोचन किया गया। इसका अनुवाद करन ढल ने किया है।
भारत के कोने-कोने में पहुंचने के लिए हिंदी जरूरी: चेतन
चेतन भगत कहते हैं कि मुझे भारतीय लेखक बनना था। मैं अच्छी तरह से समझता था कि अंग्रेजी से एक मुकाम मिलता है, लेकिन अगर मुझे भारत के कोने-कोने में पहुंचना है तो हिंदी जरूरी है। अंग्रेजी के लेखक तो पैदा ही अंग्रेजी में होते हैं और रोते भी अंग्रेजी में हैं, लेकिन हिंदी की बात ही और है। मैंने अपने प्रकाशकों को कहा है कि मेरी किताबें हिंदी में अवश्य प्रकाशित करें। जैसे हार्पर कालिंस अगर अंग्रेजी में किताब ला रहा है तो वह उसी गुणवत्ता में हिंदी की किताबें भी छापें।
इस प्रश्न पर कि आप सिर्फ हिंदी में सोचकर आप कब लिखेंगे। हिंदी में कब सोचकर लिखेंगे, जिसका बाद में अंग्रेजी में अनुवाद हो? चेतन कहते हैं,‘ डर लगता है कि साहित्यकार कहीं नाराज न हों, क्योंकि हिंदी उतनी अच्छी नहीं है। हिंदी में मैंने लेख भी लिखे हैं।
मैंने अपनी ही पुस्तक का हिंदी में अनुवाद किया है। एक बात और कहूंगा कि हिंदी की किताबों को थोड़ा समर्थन चाहिए। हिंदी फिल्में चलती हैं, हिंदी गाने बहुत चलते हैं, लेकिन किताबों के लिए थोड़ी दिक्कत है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इसमें शुद्धतावादियों का कब्जा है। अनुवाद शब्दश: न हों, भावात्मक हों।’

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