Lucknow Jagran Samvadi 2025: ये प्रश्नों का अंत नहीं आरंभ है... धर्म स्थापना के लिए स्त्री को पीड़ा क्यों?
Lucknow Jagran Samwadi 2025: लखनऊ विश्वविद्यालय में संवादी अपने पड़ाव की ओर था। दर्शक-श्रोता अंतिम सत्र की प्रतीक्षा में शांतचित्त थे। तभी संजीदगी से भरी आवाज गूंजी और लोग एक युग परिवर्तन के युद्ध की कथा-व्यथा सुनने को आतुर हो उठे।

अंजना चांडक ने सुनाई 'द्रौपदी गाथा
महेन्द्र पाण्डेय, जागरण, लखनऊ : द्रौपदी के मन में उठ रहा प्रश्नों का बुलबुला फूट चुका था, लेकिन एक प्रश्न अब भी था। पितामह भीष्म प्रतिज्ञा की लक्ष्मण रेखा क्यों नहीं पा कर पा रहे थे, जब वह कुरुओं की सभा में नग्न की जा रही थीं? महाभारत युद्ध के उपरांत बाणों की शय्या पर पड़े भीष्म जब पांडवों को नीति ज्ञान दे रहे थे, तब याज्ञसेनी के मन में यही प्रश्न कौंध रहा था।
वह हंसने लगीं और सोचने लगीं कि उनके ही प्रश्न उन्हें वेदना क्यों देते हैं? क्यों जीवन ही प्रश्न चिह्न बन जाता है? क्यों हर युग में धर्म स्थापना के लिए स्त्री को पीड़ा से गुजरना पड़ता है? ये प्रश्न ''द्रौपदी गाथा'' में पांचाली को अभिव्यक्त कर रहीं केवल अंजना चांडक के जेहन में नहीं थे, बल्कि मालवीय सभागार में उन्हें सुन-देख रहे हर व्यक्ति के अवचेतन में विद्यमान थे। अन्याय के विरुद्ध संघर्ष में स्त्री के मन-मस्तिष्क में प्रश्नों का अंत नहीं, ये आरंभ है।
लखनऊ विश्वविद्यालय में संवादी अपने पड़ाव की ओर था। दर्शक-श्रोता अंतिम सत्र की प्रतीक्षा में शांतचित्त थे। तभी संजीदगी से भरी आवाज गूंजी और लोग एक युग परिवर्तन के युद्ध की कथा-व्यथा सुनने को आतुर हो उठे। अंजना चांडक ने द्रौपदी की मन:स्थिति को अपने भावों में आज के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया तो लोग मानो उस दौर में चले गए, जब कुरुक्षेत्र का युद्ध हो रहा था।
हस्तिनापुर की नायिका अपने सभी लांछन सखा श्रीकृष्ण सौंप देती हैं। वह वासुदेव की बांसुरी की शपथ लेकर कहती हैं कि जो कहूंगी सत्य कहूंगी। इस सच्ची घटना में प्रश्नों की सरिता प्रवाहित हो रही थी। नारी के मन के दोनों के किनारों के बीच में बुनी कहानी की नायिका इस बात से व्यथित होती है कि स्त्रियों को आज की द्रौपदी का कहकर लोग हंसते हैं और वही द्रौपदी सीता बनने की तलाश में है, पर उसके स्वाभिमान को अभिमान की कहानी बताकर कितना कुछ कहा जाता है।
द्रौपदी मानती हैं कि वह महाभारत के लिए बुरी हैं, लेकिन ये अहसास भी दिलाती हैं कि ये कथाएं स्त्रियों ने नहीं लिखी हैं। महाभारत की लड़ाई हमारे-आपके परिवार की लड़ाई जैसी ही तो थी। द्रौपदी जब कुरुवंश में नहीं आई थीं, तब भी तो पांडवों को देखकर कौरव जलते थे। लाक्षागृह की घटना कौन भूला है। द्रौपदी महाभारत के युद्ध के लिए कितनी जिम्मेदार हैं? यह प्रश्न भी उठा। उत्तर के लिए कथा द्रौपदी स्वयंवर की ओर मुड़ी। आज भी स्त्री विवाह न करे तो अपूर्ण मानी जाती है। इसी पूर्णता के लिए जब द्रौपदी का स्वयंवर होता है तो कठिन प्रतियोगिता होती है। लक्ष्य भेदते हैं द्रौपदी के सखा के मित्र अर्जुन।
पार्थ को पति मान द्रौपदी सोचती हैं कि दो-दो ज्येष्ठ और दो-दो देवर, पर वह सोच भी नहीं पातीं कि ये सब परिवर्तित होने वाला है। मां से द्रौपदी को दुर्लभ भिक्षा बताने वाले पांडव भी ये नहीं सोचे थे कि उन्हें पांचाली को पांचों भाइयों में बांटने का आदेश मिल जाएगा। किंतु नियति ने निर्णय कर रखा था। उसे कोई बदल नहीं सकता। द्रौपदी अपनी सोच को आगे बढ़ातीं, तभी महर्षि व्यास ने कुंती के आदेश पर परंपरा की मुहर लगा दी।
अंजना पांचाली की दशा व्यक्त करती हैं- ''मेरा मौन उलाहना दे रहा था, पर अर्जुन का मौन सांत्वना। तब मैंने अर्जुन के मौन के आगे स्वयं को समर्पित कर दिया, लेकिन मुझे नहीं पता था कि मैं ही हर युग में दोषी मानी जाऊंगी। मुझे ये वरदान था कि मैं अग्नि स्नान कर फिर से कुंआरी बन जाऊं, परंतु मुझसे पूछा जाता तो कहती कि जब मैं किसी नए भाई की पत्नी बनूंगी तो पहले के किसी भाई की स्मृतियां मुझमें न रहें।'' पांच-पांच पतियों में बंटने वाली द्रौपदी सोचती हैं कि मैंने स्वयं को छह हिस्सों में बांट लिया होता तो ही ठीक था। कम से कम एक हिस्सा अपने मन का भी होता। एक स्त्री की पीड़ा यहीं तक नहीं है। जब कुरुओं से भरी सभा में उसे दांव पर लगाया जाता है और रजस्वला होने के बाद एक वस्त्र में बाल पकड़ खींचकर लाई जाती है, तब इतने संबंधों के बीच में सांस लेती द्रौपदी सोचती हैं कि उनके जैसा व्यवहार किसी से न हो।
कर्ण यह कहकर उनका मान गिराता है कि पांच-पांच पतियों का वरण करने वाली स्त्री नहीं वेश्या होती है, पर कर्ण को क्या पता कि स्त्री तो तभी नग्न होती है जब वह स्वयं खुलती है। वह नग्न कर भी दी जाए तो भी स्वाभिमान से बंधी होती है। द्रौपदी वनवास और अज्ञातवास भी झेलती हैं। अपने केशों को अपमान की तरह ढोती हैं। उनके प्रश्न ही उन्हें वेदना देते हैं। गाथा पूरी होने को है, तभी सभागार में फिर गूंजता है प्रश्नों के ये अंत नहीं आरंभ है.।

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