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    दिल्ली के मुगलई पर भारी था लखनवी दस्तरख्वान, यूनेस्को ने दी क्रिएटिव सिटी ऑफ गैस्ट्रोनॉमी की पहचान

    Updated: Sun, 02 Nov 2025 12:57 AM (IST)

    लखनऊ के लखनवी दस्तरख्वान को यूनेस्को ने 'क्रिएटिव सिटी ऑफ गैस्ट्रोनॉमी' का दर्जा दिया है, जिसने दिल्ली के मुगलई खाने को पीछे छोड़ दिया। लखनवी भोजन अपनी धीमी आंच पर पकाने की विधि और मसालों के संतुलित उपयोग के लिए प्रसिद्ध है। यह सम्मान पर्यटन को बढ़ावा देगा और लखनवी भोजन की संस्कृति को संरक्षित करने में मदद करेगा।

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    यूनेस्को ने क्रिएटिव सिटी ऑफ गैस्ट्रोनामी के रूप में लखनवी खानपान को अब मान्यता दी है, जिसकी पीएम नरेंद्र मोदी ने भी सराहना की है।

    अजय शुक्ला, लखनऊ। यूनेस्को ने क्रिएटिव सिटी ऑफ गैस्ट्रोनामी के रूप में लखनवी खानपान को भले ही अब मान्यता दी है, लेकिन इसकी श्रेष्ठता को लेकर कई किस्से पुराने समय से ही मशहूर हैं।

    जब दिल्ली दरबार का पतन हो रहा था और वहां की कला-संस्कृति और खानपान की तहजीब से जुड़े लोग शासकीय संरक्षण न मिलने के कारण पलायन कर रहे थे तो उनका पहला ठिकाना लखनऊ बन रहा था जो उस समय अवधी संस्कृति में इजाफे कर रहा था।

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    उस दौरान दिल्ली के मुगलई खाने और अवधी खाने के बीच एक तरह की होड़ मची थी। दिल्ली वाले मानते थे कि उनके मुगलई खाने का कोई जोड़ नहीं और लखनऊ वाले अपने खानपान को नई ऊंचाइयां दे रहे थे। एक बार मुकाबला हुआ। उन दिनों खाने के तीन गुणों-लज्जत, गजाहियत और खुशबू को लेकर मुकाबले हुआ करते थे।

    लज्जत यानी जो जीभ को स्वाद से सराबोर कर दे, गजाहियत यानी जो हलक से उतरते ही हाजमे की मशीन चालू कर दे। आसानी से पच जाए। खुशबू ऐसी कि खवैयों को पाकशाला के इर्द-गिर्द ही अनुलोम-विलोम के लिए विवश कर दे। मुगलई खाना इन तीनों गुणों पर खरा साबित हो रहा था तो लखनवी खानपान भी कहीं से उन्नीस नहीं था लेकिन बात तो इस पर फंसी थी कि अव्वल कौन।

    ऐसे में लखनऊ वालों ने कुछ नया जोड़ने का इरादा किया। कामयाबी भी मिली। यह था दस्तरख्वान। लखनऊ ने इसे पारसी परंपरा से लिया था। दिल्ली के खानपान में जहां लज्जत, गजाहियत और खुशबू थी, वहीं लखनऊ ने इन सबके साथ दस्तरख्वान जोड़ दिया। दस्तरख्वान यानी खाना परोसने और अकेले नहीं, एक साथ बैठकर खाने का तरीका।

    लखनवी खानपान इसी आधार पर अव्वल साबित हुआ। इसकी एक वजह यह भी थी कि लजीज खाने से जीभ तृप्त हो जाती, खुशबू से नाक तृप्त हो जाती, कौर उठाकर खाने से त्वचा को खाने का अहसास मिल जाता है, लेकिन आंख और कान को वैसी तृप्ति नहीं मिलती। नफासत से परोसने और साथ मिल-बैठकर गुफ्तगू करते हुए खाने के अंदाज यानी दस्तरख्वान जोड़ने से आंख और कान भी तृप्त हो जाते हैं। यानी, पांचों ज्ञानेंद्रियां श्रोत, चक्षु, घ्राण, रसना, त्वक् से पूरी संतुष्टि हो जाती है।

    इतिहासकार डाॅ. रवि भट्ट मानते हैं कि दस्तरख्वान के बिना भी लखनवी खानपान दिल्ली के मुगलई से बीस बैठता रहा है। बाबर के साथ आए मुगलई खाने में मसाले सख्त होते हैं जिसमें गजाहियत का वह स्तर नहीं होता जो परंपरागत अवधी खानपान और ईरानी और पारसी शैली के व्यंजनों में साफ्ट मसालों के प्रयोग से बनता है।

    डाॅ. भट्ट कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लखनवी खानपान की तारीफ कर ही रहे हैं, लेकिन उनके पहले अटल बिहारी वाजपेयी तो लखनवी खानपान के ब्रांड अंबेसडर थे। खास तौर पर यहां के स्ट्रीट फूड के। लखनवी व्यंजनों में उनकी सबसे प्रिय चीज मलाई पान (या मलाई गिलौरी) थी, जो वे केसर वाली मलाई से बनी हुई खाने के साथ-साथ अपने साथियों को भी खिलाते थे।

    इसके अलावा वे ठंडाई (खासकर साधारण केसर वाली) और चाट (खट्टी चटनी व नींबू के साथ) के भी बड़े भक्त थे। दूध की बर्फी भी उन्हें कम प्रिय नहीं थी, जिसकी तलब उन्हें बचपन से लगी रहती थी। जब वह लखनऊ होते तो इसके लिए पूर्व राज्यपाल लालजी टंडन के साथ वह चौक में रामआसरे और राजा की ठंडाई पीने जरूर जाते थे। हजरतगंज में मसालेदार सब्जी व पूड़ी के लिए मशहूर वाजपेयी पूड़ी भंडार से लाप्लास (जहां अटल जी रहते थे) अक्सर पूड़ियों के पैकेट मंगाए जाते थे।

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