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    यूपी में दौड़ेगा हाथी तो डगमगाएगी PDA की साइकिल, मायावती की सक्रियता से अखिलेश की रणनीति को बड़ा झटका!

    Updated: Sat, 11 Oct 2025 04:00 AM (IST)

    उत्तर प्रदेश में मायावती की सक्रियता से अखिलेश यादव की PDA रणनीति को झटका लगा है। बसपा के मैदान में आने से दलित वोटों का विभाजन हो सकता है, जिससे सपा की मुश्किलें बढ़ेंगी। मायावती की सक्रियता ने यूपी के राजनीतिक समीकरणों को बदल दिया है और अखिलेश के लिए नई चुनौती खड़ी कर दी है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इससे चुनावी मुकाबला और भी दिलचस्प हो गया है।

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    अजय जायसवाल, लखनऊ। राजधानी में वर्षों बाद बसपा के संस्थापक कांशीराम की पुण्यतिथि पर जुटी भारी भीड़ के समक्ष जिस तरह से पार्टी सुप्रीमो मायावती ने तेवर दिखाते हुए अगले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर खुद भी सक्रिय रहने का वादा किया है, उससे सपा की पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) वाली रणनीति को बड़ा झटका लगने के आसार है।

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    मिशन 2027 के लिए मायावती द्वारा अपने दो दशक पुराने ‘सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय’ वाले सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को फिर से आजमाने पर बसपा के उभार से सपा के पीडीए की धार कुंद हो सकती है।

    जातीय गोलबंदी की ट्रैक पर धीरे-धीरे रफ्तार भर रही साइिकल डगमगा सकती है। ऐसे में मायावती की रणनीति जहां सपा प्रमुख अखिलेश यादव की चिंता बढ़ाएगा, वहीं सत्ताधारी भाजपा को राहत भी दे सकती है।

    वैसे तो दलितों के उत्थान के लिए सन् 1984 में कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी बनाई थी लेकिन सिर्फ बहुजन के दम पर पार्टी के कभी 100 से अधिक विधायक नहीं चुने गए। गठन के नौ वर्ष बाद सन् 1993 में सपा से और 1996 में कांग्रेस से गठबंधन करने पर भी बसपा के 67 से अधिक विधानसभा सदस्य नहीं जीते।

    प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में से वर्ष 2002 में अधिकतम 100 (पार्टी सिंबल के बिना दो जीते) विधायकों के ही जीतने पर वर्ष 2007 में मायावती ने पहली बार बहुजन से सर्वजन की ओर कदम बढ़ाते हुए ‘दलित-ब्राह्मण’ सोशल इंजीनियरिंग का सहारा लिया। इसके साथ ही अल्पसंख्यकों को भी साधा, जिससे बसपा 206 सीट व 30.43 प्रतिशत वोट के साथ बहुमत हासिल कर उत्तर प्रदेश में बड़ी राजनीतिक ताकत बनकर उभरी थी।

    हालांकि, बाद के चुनावों में सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला फेल होने पर वर्ष 2022 के विधानसभा और वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में मायावती ने सभी सीटों पर प्रत्याशी उतारते हुए ‘दलित-मुस्लिम’ फार्मूले पर बड़ा दांव लगाया फिर भी लोकसभा चुनाव में जहां खाता नहीं खुला वहीं सिर्फ एक विधायक चुना गया।

    पिछड़े व अपरकास्ट ही नहीं मुस्लिम के साथ दलित वोटों की मजबूत दीवार भी पूरी तरह से दरकने का नतीजा रहा कि मायावती के भतीजे व पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक आकाश आनंद ने पिछले वर्ष जिस नगीना लोकसभा सीट पर पहली चुनावी सभा की थी, उस पर बसपा चौथे स्थान पर रह गई और आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के चंद्रशेखर आजाद सांसद बन गए। सर्वाधिक फायदे में सपा रही जिसके 37 सांसद जीतने में कामयाब रहे।

    अब बूथ स्तर तक संगठन को नए सिरे से खड़ा करने के साथ ही मायावती ने जिस तरह से विरोधियों को ललकारते हुए दो दशक बाद फिर सर्वसमाज के दम पर बसपा की सरकार बनने का दावा किया है उससे पार्टी नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं तक में जबरदस्त उत्साह देखने को मिल रहा है।

    पांचवी बार सरकार बनाने के लिए खुद के जी-जान से जुटने के वादे के साथ ही मायावती ने मंच पर वंचितों, पिछड़ों के साथ ही अल्पसंख्यक व अपरकास्ट के वरिष्ठ पार्टी नेताओं को तव्वजो देते हुए उनसे अपने-अपने समाज में पार्टी का जनाधार बढ़ाने का आह्वान भी किया है।

    माना जा रहा है कि ‘हाथी’ की हलचल बढ़ते देख जहां दूसरी पार्टी के उपेक्षित व नाराज वंचित, पिछड़े व मुस्लिम समाज के साथ ही अपरकास्ट के नेताओं का बसपा में आने का सिलसिला शुरू होगा वहीं पार्टी के पुराने नेताओं की घर वापसी भी संभव है।

    हालांकि, पार्टी नेताओं का कहना है जिसने कभी बहनजी को लेकर गलत बयानबाजी नहीं की है, उन्हीं को ही मौका मिल सकता है। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर माना जा रहा है कि सपा के पीडीए को ही सर्वाधिक झटका लगेगा।

    भले ही अखिलेश बसपा को भाजपा की बी टीम बताएं लेकिन जानकारों का कहना है कि इससे बसपा को पहले ही नुकसान हो चुका है। इतना जरूर है कि बसपा के आगे बढ़ने से भाजपा को पीडीए से लग रहे खतरे से राहत मिल सकती है। पिछले वर्ष के उपचुनाव में यह देखने को मिल चुका है।

    उपचुनाव में तीन सीटों पर बसपा, सपा का खेल बिगाड़ते दिखी थी। फूलपुर, कटेहरी और मझंवा विधानसभा सीटों पर भाजपा ने जितने वोट के अंतर से सपा को हराया था उससे कहीं अधिक वोट बसपा को मिले थे।