वाराणसी देवी से है बनारस की असली पहचान, शिवलिंग के साथ ही विराजती हैं देवी
वाराणसी जिले का नाम असल में वाराणसी देवी की वजह से है। पुराणों से भी पुरानी काशी में अनोखा मंदिर त्रिलोचन महादेव में है जहां सावन माह में भक्तों की भीड़ शिव को ही नहीं बल्कि उनके साथ वाराणसी देवी की भी पूजा करता है। 24 मई 1956 को वाराणसी जिले का आधिकारिक नाम वाराणसी देवी के ही नाम से स्वीकार किया गया था।

जागरण संवाददाता, वाराणसी। मुंबा देवी से मुंबई की पहचान तो सभी जानते होंगे लेकिन वाराणसी देवी से वाराणसी शहर की पहचान अनोखी है। अलबत्ता तमाम बनारसी लोग ही नहीं जानते होंगे कि वाराणसी का नाम क्यों और कैसे रखा गया? शिव के साथ ही शक्ति अर्द्धनारीश्वर के स्वरूप में काशी में वह विद्यमान हैं।
वाराणसी देवी के तौर पर देवी की मान्यता गंगा तट पर त्रिलोचन महादेव मंदिर में है। वाराणसी देवी गंगा तट के त्रिलोचन महादेव मंदिर प्रांगण में ही विराजती हैं। हालांकि बाबा विश्वनाथ की नगरी को बनारस, काशी या वाराणसी कहें तो भी लोग पहचान जाते हैं।
मां गौरा को ब्याहने के बाद काशी को अपना घर बनाने वाले भोले शंकर का परिवार "शक्ति" के साथ संपूर्णता पाता है। यहां शक्ति के स्वरूप के तौर पर "वाराणसी" को भी एक देवी के तौर पर मान्यता है। वैसे तो वाराणसी गजेटियर के अनुसार 24 मई 1956 को वाराणसी जिले का आधिकारिक नाम डा. संपूर्णानंद के मुख्यमंत्री के कार्यकाल के दौरान ही तय किया गया था। इस लिहाज से आधिकारिक तौर पर वाराणसी का नाम स्वीकारने का इस वर्ष 69वां मौका था।
वाराणसी जिले में वरुणा और असि नदियों के नाम होने का मत है। कई विशेषज्ञ वाराणसी का नामकरण वरुणा और असि के रूप में भी शामिल करते हैं। मगर मुंबई के मुंबा देवी के तर्ज पर गंगा तट स्थित त्रिलोचन घाट स्थित मंदिर में शक्तिस्वरूपा की मान्यता के तौर पर शहर की देवी के 'वाराणसी देवी' के रूप में स्थापित मूर्ति वाराणसी के पौराणिक होने की कहानी कह रही है।
वाराणसी देवी का महात्म्य
मुख्य त्रिलोचन मंदिर के दाहिने हिस्से में प्रवेश करेंगे तो परिसर में ही एक अतिरिक्त मंदिर है जहां "ऊं वाराणसी देव्यै नम:" रचित शब्दों के साथ वाराणसी देवी की अनोखी प्रतिमा स्थापित है। यहां पर नियमित पूजा करने वाले पुजारी मोहन पांडेय बके अनुसार पुराणों से भी पुरानी काशी नगरी के स्कंदपुराण के काशी खंड में वाराणसी देवी की व्याख्या मिलती है।
पैरों पर खड़ी स्थिति की मुद्रा में स्थापित देवी की गुलाबी पत्थर की यह मूर्ति काफी पौराणिक है। यह मंदिर वैसे तो महादेव को समर्पित है, लेकिन मंदिर के प्रांगण में मौजूद शहर की वाराणसी देवी की अनोखी प्रतिमा को देखकर आगंतुक को आश्चर्य से यह देवी प्रतिमा विभोर कर देती है।
वाराणसी देवी का कैसे करें दर्शन
वाराणसी जिले में यदि आपको वाराणसी देवी मंदिर जाना हो तो सबसे पहले आपको गायघाट के पास ही प्राचीन त्रिलोचन मंदिर पहुंचना होगा। काशीखंड में इसे शिव के तीसरे नेत्र को समर्पित मंदिर माना गया है। इस तट पर गंगा के साथ ही अदृश्य स्वरूप में नर्मदा एवं पिप्पिला आदि नदियों का संगम माना जाता है। तीन नदियों के संगम की मान्यता होने से घाट का नाम भी त्रिलोचन घाट पड़ गया।
पुरनिए बताते हैं कि घाट पर ही मौजूद त्रिलोचन मंदिर को औरंगजेब के शासन काल में नष्ट करने का भी प्रयास किया गया था। बाद में इसका निर्माण पूना के नाथूबाला पेशवा की ओर से 18 वीं शताब्दी में और वर्ष 1965 में रामादेवी द्वारा दोबारा निर्माण किए जाने की जानकारी स्थानीय लोग देते हैं। मंदिर का पौराणिक प्रमाण भी धार्मिक ग्रंथों में आज भी मौजूद है।
वाराणसी का महात्म्य
वाराणसी अर्थात् काशी विश्व की सबसे प्राचीनतम शहरों में से एक है। संस्कृत व्याकरण की व्युत्पति की दृष्टि से (वरणा च असी च। तयोर्नद्योरदूरे भवा) के मतानुसार इसका वाराणसी नामकरण वरुणा व असि नदियों के मध्य बसने से हुआ है।
इसका वाराणसी नाम अत्यंत प्राचीनतम है, क्योंकि प्रायः सभी पुराणों में काशी के साथ-साथ वाराणसी शब्द का उल्लेख स्पष्ट रूप में मिलता है- यथा ''वरणासी च नद्यौ द्वे पुण्ये पापहरे उभे। तयोरन्तर्गता या तु सैषा वाराणसी स्मृता॥''। इसके अतिरिक्त इसे काशी, शिवपुरी। जित्वरी, तपःस्थली, तीर्थराजी काशिका, मोक्षपुरी आदि अन्य नामों से भी जाना जाता है।
इस क्षेत्र का चयन करने के साथ यहां वास का फल प्राप्त करने हेतु स्वयं भगवान शिव ने वरणा और असि नामक दो नदियों से इसकी सीमा तय की थी जिससे इसका नाम वाराणसी पड़ गया। तस्माद्विश्वेश्वराज्ञैव काशीवासेऽत्र कारणम्। असिश्च वरणा यत्र क्षेत्ररक्षाकृतौ कृते। वाराणसीति विख्याता तदारभ्य महामुने!
-प्रो. विनय कुमार पांडेय (पूर्व विभागाध्यक्ष, ज्योतिष विभाग, बीएचयू), संगठन मंत्री, श्री काशी विद्वत परिषद।
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