उत्तराखंड की अटूट आस्था: यहां भगवान के नाम पर खेत, जहां धान रोपने के बाद शुरू होती है अन्य खेतों में रोपाई
उत्तराखंड के प्रतापनगर में ओणेश्वर महादेव मंदिर के प्रति लोगों की गहरी आस्था है। यहां देवता के नाम पर खेत है जिसमें सबसे पहले धान की रोपाई होती है। इसके बाद ही ग्रामीण अपने खेतों में रोपाई करते हैं। धान पकने पर सबसे पहले देवता के खेत में धान काटा जाता है। इस अनाज का उपयोग भगवान की पूजा और श्रृंगार में किया जाता है।

सवाद सहयोगी जागरण, नई टिहरी। उत्तराखंड को देवभूमि यूं ही नहीं कहा जाता है। यह लोगों की भगवान के प्रति अटूट आस्था ही है कि हर छोटा-बड़ा कार्य बिना भगवान की अनुमति के नहीं होता है। यहां तक कि कई जगहों पर लोग आज भी न्याय के लिए भवान की चौखट पर पहुंचते हैं।
जिले के प्रतापनगर ब्लाक के ओणेश्वर महादेव के प्रति भी लोगों की गहरी आस्था है। यहां देवता के नाम पर अपना खेत है। सबसे पहले इसी खेत में धान की रोपाई होती है। उसके बाद ही ग्रामीण अपने खेतों की रोपाई की शुरूआत करते हैं। धान पकने पर भी सबसे पहले देवता के खेत में धान काटा जाता है। उसके बाद ही ग्रामीण धान कटाई करते हैं।
देवता के खेत में उगने वाले अनाज के चावलों से ही ओणेश्वर महादेव के पूजा और शिवलिंग का लेप व श्रृंगार किया जाता है। प्रतापनगर ब्लाक के ओण पट्टी में भगवान ओणेश्वर महादेव का प्राचीन मंदिर है। ओण पट्टी में स्थित होने के कारण मंदिर भी ओणेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है।
यहां पर भगवान के नाम पर करीब चार नाली खेत है। पूरी पट्टी में जब धान की रोपाई की शुरूआत होती है तो सबसे पहले ढोल-नगाड़ों और देवता के पश्वा के साथ ग्रामीण देवता के खेत में पहुंचकर रोपाई करते हैं और उसके बाद ग्रामीण अपने खेतों में रोपाई करते हैं। हर साल नौ गते असाड़ देवता के खेत में रोपाई होती है।
इसी तरह धान पकने के बाद नौ गते असूज सबसे पहले धान काटने की शुरूआत देवता के खेत से होती है। उसके बाद पट्टी के ग्रामीण धान की कटाई करते है। इससे पहले कोई भी धान की रोपाई या कटाई नहीं करता है, चाहे कुछ भी हो जाए। देवता के खेत में उगाए जाने वाले अनाज के चावल से मंदिर में चढ़ावा, पूजा व शिवलिंग में लेप किया जाता है। सदियों से यह परंपरा चली आ रही है।
ओणेश्वर महादेव का पौराणिक इतिहास
प्रतापनगर के कुजु सौड स्थान पर उस समय नागवंशी तपसी राणा गाय चुगाने के लिए जाता था। उसकी दुधारु गाय का दूध देव रूप पी जाता था, जिस कारण गाय घर आकर दूध नहीं देती थी। यह सिलसिला कुछ दिनों तक चलता रहा।
तपसी राणा ने अपने साथियों के साथ एक दिन छिपकर गाय पर कड़ी नजर रखी। संयोगवश उन्होंने देखा कि एक जटाधारी बालक गाय का दूध पी रहा है। तपसी राणा उस बालक को पड़ने आए, लेकिन वह अदृश्य हो गया और उसी रात वह बालक तपसी राणा के सपने में आकर बोला कि मैं आपका ही वंशज हूं।
मैं देव रूप में प्रकट हो रहा हूं। तब से देव लगातार अपनी देव लीला दिखाकर लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण करने लगा। देवता को यह जगह पसंद आ गई और उन्होंने यहीं पर निवास करने का निर्णय लिया। उसके बाद लोगों ने एक कुटिया बनाकर देव प्रतिमा को उस कुटिया में स्थापित किया और बाद में ओण पट्टी के देवल में मंदिर का निर्माण किया गया।
ओण और भदूरा के ग्रामीण निकालते हैं कांवड़ यात्रा
ओण व भदूरा के करीब चौबीस गांव के ग्रामीण प्रतिवर्ष श्रावण मास में गांव से गंगोत्री तक कांवड़ यात्रा निकालते हैं और गंगोत्री से गंगाजल लेकर ओणेश्वर महादेव का जलाभिषेक करते हैं। काफी संख्या में ग्रामीण गंगोत्री गंगोत्री की कांवड़ यात्रा करते हैं।
ओणेश्वर महादेव मंदिर पूरे क्षेत्र के लोगों का आस्था का केंद्र है। खेत में धान रोपाई और धान काटने की परंपरा सदियों से है। खेते में उगने वाले अनाज को देवता के पूजा व श्रृंगार में प्रयोग किया जाता है। मार्च माह में महाशिवरात्रि में मंदिर में दो दिन का विशाल मेला आयोजित होता है। - द्वारिका प्रसाद भट्ट, अध्यक्ष, ओणेश्वर मंदिर।
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