पाकिस्तान को बंटने से रोकने के लिए बाथरूम में मिले थे दो नेता, आखिर बांग्लादेश बनाने की जरूरत क्यों पड़ी थी?
1971 में धार्मिक और आर्थिक असमानता के चलते पाकिस्तान दो टुकड़ों में बंटा। लाखों की संख्या में लोग मरे और दोगुने बेघर हुए जब आकर पाकिस्तानी आर्मी के अत्याचार से आजादी मिली थी। अब पाकिस्तान सेना से नदीकियां और आतंकी गुटों की बांग्लादेश में एंट्री.. क्या बांग्लादेश फिर से पाकिस्तान बनने की राह पर है।
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। हमारे पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में एक बार फिर हिंसा भड़क उठी है। लोग सड़कों पर उतर आए हैं। भारत के महान फिल्मकार सत्यजीत-रे के पुश्तैनी मकान में भी तोड़फोड़ हुई। पिछले साल भी बांग्लादेश में जुलाई में बवाल शुरू हुआ जो जल्द भीषण हिंसा में तब्दील हो गया था। जिसके चलते शेख हसीना को न सिर्फ पीएम पद छोड़ना पड़ा, बल्कि जान बचाने के लिए देश छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी थी।
हालांकि, इस बार का मंजर पिछली बार से थोड़ा अलग है, इस बार दो पार्टियों के कार्यकर्ता के बीच झड़पें हो रही हैं। उधर, दूसरी ओर बांग्लादेश में पाकिस्तानी सेना, खुफिया एजेंसी के बाद अब पाकिस्तानी आतंकी गुटों की एंट्री भी हो चुकी है। ऐसे में क्या यह माना जाना चाहिए कि बांग्लादेश एक बार फिर पाकिस्तान बनने की राह पर चल पड़ा है।
खैर इस सवाल का जवाब तो भविष्य में मिल जाएगा, लेकिन अभी हम आपको बताते हैं आखिर बांग्लादेश बनाने की जरूरत क्यों पड़ी थी, बांग्लादेश बनाने से कुछ महीनों पहले पाकिस्तान में क्या चल रहा था? यहां पढ़ें..
बांग्लादेश क्यों बना अलग देश?
दरअसल, साल 1947 में अंग्रेजों से आजादी मिली तो भारत दो टुकड़ों में बंट गया। धर्म के आधार पर मानचित्र में एक नया देश पाकिस्तान बन गया। नया-नवेला राष्ट्र पाकिस्तान- पूर्वी और पश्चिमी प्रांत में बंटा हुआ था। पूर्वी पाकिस्तान के लोग बंगाली में बात करते। महिलाएं रंग-बिरंगी साड़ी पहनती। इसके उल्ट पश्चिमी पाकिस्तान में उर्दू और पंजाबी का बोलबाला था। बुर्का और हिजाब का कल्चर था।
पाकिस्तान की 55 प्रतिशत आबादी पूर्वी पाकिस्तान में और 45 प्रतिशत पश्चिमी पाकिस्तान में रहती थी। पाकिस्तान की संसद यानी नेशनल असेंबली की कुल 313 सीटें में से 169 पूर्वी पाकिस्तान (मौजूदा बांग्लादेश) में और 144 पश्चिमी पाकिस्तान (मौजूदा पाकिस्तान) में थीं।
इसके बावजूद बजट का 80 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ 45 प्रतिशत लोगों पर खर्च होता था। यानी पश्चिमी पाकिस्तान में खर्च किया जाता था। सरकार चलाने वाले नेता भी पश्चिम से थे और वे लोग पूर्वी पाकिस्तान के लोगों को दोयम दर्ज का मानते थे और पाक आर्मी के लिए वे मात्र कीड़े-मकोड़े से ज्यादा कुछ नहीं थे।
पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने जब असमानता और आर्थिक भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई तो पाक आर्मी ने उनकी आवाज दबा दी। पूर्वी पाकिस्तानियों के खिलाफ अपमानजनक शब्द इस्तेमाल किए जाते। उनको कमजोर और हीन माना जाता। अगर वे लोग पुलिस को अपनी व्यथा सुनाने जाते तो पुलिस भी उन पर ही जुर्म ढहाती थी। साल 1952 में पाकिस्तान में बांग्ला भाषा को लेकर आंदोलन हुआ, जिसमें कई छात्रों को अपनी जान गंवानी पड़ी। ये तो सिर्फ शुरुआत थी।
विकास की मांग को लेकर बंगबंधु पर दर्ज हुआ था मुकदमा
पूर्वी पाकिस्तान की राजनीतिक पार्टी अवामी लीग के प्रमुख शेख मुजीबुर्रहमान उर्फ 'बंगबंधु' ने अपने प्रांत के प्रति राजनीतिक असमानता और आर्थिक भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई। 1965 की भारत-पाक जंग के बाद लाहौर में शेख मुजीबुर रहमान ने कहा, ''दोनों प्रांतों के आर्थिक विकास में एकरूपता लाने के लिए भी प्रांतीय स्वायत्तता जरूरी है।''
अवामी लीग के नेता शेख मुजीबुर रहमान के इस सुझाव को न सिर्फ नजरअंदाज किया गया, बल्कि 1968 में 'अगरतला षडयंत्र' के तहत उन पर मुकदमा दर्ज हुआ। आरोप था कि वह भारत के साथ मिलकर पूर्वी पाकिस्तान को तोड़ने की साजिश कर रहे हैं।
1970 के चुनाव बने बंटवारे की अग्नि का घी
पूर्वी पाकिस्तानियों को न शासन जरूरी समझता और न प्रशासन उनको सुनता। सरकार में बैठे लोगों के रवैये और पुलिस व आर्मी के बदसलूक से लोगों में नाराजगी बढ़ती जा रही थी। पूर्वी पाकिस्तानियों ने अपने अधिकारों की मांग करते-करते स्वतंत्र राष्ट्र की मांग शुरू कर दी। दिसंबर 1970 में हुए आम चुनाव ने पाकिस्तान में बंटवारे की अग्नि में घी का काम किया।
पाकिस्तान में 1970 के आम चुनाव से पहले राष्ट्रपति शासन था और तानाशाह जनरल याह्या खान राष्ट्रपति थे। आम चुनाव में शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान समेत 169 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें से 167 सीटें जीत ली थीं, जबकि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को पश्चिमी पाकिस्तान की 138 सीट में से महज 81 सीटों पर जीत मिली। पाकिस्तान में सरकार बनाने के लिए बहुमत में आंकड़ा- 157 सीटें थीं।
शेख मुजीबुर्रहमान के पास सरकार बनाने के लिए बहुमत था, लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान के नेता नहीं चाहते थे कि बंगाली उन पर राज करें। पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जनरल याह्या खान ने शेख मुजीबुर्रहमान को प्रधानमंत्री बनाने से मना कर दिया।
7 मार्च, 1971 शेख मुजीबुर्रहमान ने ढाका के रेसकोर्स ग्राउंड में एक ऐतिहासिक भाषण दिया। उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान को आजाद घोषित कर देश को बांग्लादेश नाम दिया।
'पश्चिमी नेताओं को सरकार बनाने दें', बाथरूम में हुई यह बात
इसके बाद 15 मार्च, 1971 को जब याह्या खान सत्ता हस्तांतरण पर बात करने ढाका पहुंचे। एक सफेद कार में सवार होकर शेख मुजीबुर्रहमान उनसे मिलने आए। कार पर काला झंडा भी लगा था। जब याह्या खान शेख मुजीबुर्रहमान को बातचीत के लिए गवर्नमेंट हाउस के ड्राइंग रूम लेकर पहुंचे शेख ने विरोध प्रकट किया।
जॉन सिसॉन और लिओ रोज ने अपनी किताब 'वॉर एंड सेसेशन: पाकिस्तान, इंडिया एंड क्रिएशन ऑफ बांग्लादेश' में इस मुलाकात का जिक्र करते हुए लिखा- शेख मुजीबुर्रहमान एकांत में बातचीत करना चाहते थे। याह्या खान ने बाथरूम में दो कुर्सियां डलवाने का आदेश दिया। इसके बाद बाथरूम में पाकिस्तान को बचाने के लिए बातचीत शुरू हुई। बातचीत करीब ढाई घंटे चली।
19 मार्च को याह्या ने पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो को बातचीत में शामिल होने के लिए ढाका बुलाया। एक बार फिर तीनों - शेख, याह्या और भुट्टो मिले। याह्या ने भुट्टो और शेख के बीच सलाह कराने की कोशिश की, लेकिन दोनों आपस में बात ही नहीं कर रहे थे।
तब याह्या ने माहौल को हल्का करने के लिए मजाक करते हुए कहा- 'आप दोनों नवविवाहित जोड़े की तरह व्यवहार कर रहे हैं। याह्या ने दोनों का हाथ पकड़ बातचीत करने के लिए कहा, तब जाकर भुट्टो और शेख मुजीब ने एक-दूसरे से बातचीत शुरू की।
भुट्टो और शेख में बनी सहमति तो 23 मार्च को क्या बदल गया?
इस बातचीत के बाद सहमति बनी कि संयुक्त पाकिस्तान के अंदर बांग्लादेश का अस्तित्व रहेगा, लेकिन 23 मार्च को सारे प्लान धराशायी हो गए। दरअसल, 23 मार्च को पूरे पाकिस्तान में 'लाहौर रिजोल्यूशन दिवस' मनाया जा रहा था। 1940 में इसी दिन पहली बार आजाद मुस्लिम देश का विचार का एलान किया गया था।
अवामी लीग 23 मार्च को विरोध दिवस के तौर पर मना रही थी। पूर्वी पाकिस्तान के करीब-करीब हर घर पर लाल, हरे और पीले रंग के झंडे लगे थे, जिन पर पूर्वी पाकिस्तान (मौजूदा बांग्लादेश) का नक्शा बना हुआ था। इन झंडों को नया ही डिजाइन किया गया था।
ढाका टेलीविजन ने पाकिस्तानी राष्ट्रगान बजाने से साफ मना कर दिया था। बस तभी पाक आर्मी ने अवामी लीग को एक अलगाववादी संगठन मान लिया था। सैम डैलरिंपल अपनी किताब 'शैटर्ड लैंड' में यह दावा किया गया है।
पहले से तैयार था नरसंहार का प्लान
25 मार्च की शाम याह्या खान के कहने पर पाक आर्मी ने 'ऑपरेशन सर्चलाइट' शुरू हुआ। इतिहासकार बताते हैं कि याह्या खान ने शेख मुजीबुर्रहमान से बातचीत करने से पहले ही 'बी प्लान' के तौर 'ऑपरेशन सर्चलाइट' का खाका तैयार कर लिया था।
इसमें अवामी लीग के लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने के साथ-साथ पाकिस्तानी सेना की बंगाली रेजिमेंटों के सैनिकों से हथियार लेना भी शामिल था।
याह्या खान ढाका से रवाना हुए। उसके बाद पाकिस्तानी सैनिक सादे कपड़ों में ढाका हवाई अड्डा पर उतरना शुरू हुए। फिर ढाका में आवामी लीग के नेताओं, समर्थकों और पूर्वी पाकिस्तान में अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ रहे लोगों का नरसंहार किया गया।
जब पानी सिर से ऊपर हुआ तो 26 मार्च 1971 शेख मुजीबुर रहमान और अन्य नेताओं ने पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश के नाम से स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किया और भारत से मदद मांग ली।
बर्बरता से की गईं सामूहिक हत्याएं
ऑपरेशन सर्चलाइट' के पहले ही दिन पाक आर्मी ने बांग्लादेश का झंडा उठाए जितने लोग नजर आए, उन्हें गोलियों से भून डाला। रात के 1 बजे के करीब सैनिक शेख मुजीबुर्रहमान के धानमंडी निवास पर पहुंचे। चारदीवारी फलांग कर घर में घुसे और फायरिंग शुरू कर दी। एक पहरेदार मारा गया। शेख मुजीबुर्रहमान को अरेस्ट कर लिया गया।
पाकिस्तानी सेना शेख मुजीबुर्रहमान को शहीद बनाना नहीं चाहती थी। इसलिए शेख को मारने के बजाय जिंदा पकड़ने का आदेश था। पाक आर्मी रात में ढाका यूनिवर्सिटी में घुसी। वहां निर्दोष और निहत्थे छात्रों को मारकर बिछा दिया।
यूनिवर्सिटी को बना दिया श्मशान
शर्मीला बोस ने अपनी किताब 'डेड रेकनिंग, मेमोरीज ऑफ द 1971 बांग्लादेश वॉर' लिखा है, '' ढाका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ऊला ने एक वीडियो रिकॉर्ड किया था। फुटेज में नजर आ रहा था कि सैनिक निहत्थे छात्रों को बंदी बनाते और फिर बिल्कुल पास से जाकर गोली मारते। छात्रों को टॉर्चर कर उनसे उनके साथियों के शव को दफनाने का काम कराया गया था।''
बांग्लादेश बनने से पहले भारत में क्या चल रहा था?
पाकिस्तानी सेना ने दो दिन में 1.5 लाख से ज्यादा लोगों को मार डाला। हालात ये थे कि लाखों लोग पूर्वी पाकिस्तान से जान बचाकर भागकर भारत आए। अप्रैल के पहले ही हफ्ता में 10 लाख लोग असम और पश्चिम बंगाल में शरण मांगने खड़े थे। भारत पर शरणार्थियों को दबाव बढ़ता ही जा रहा था।
देश की सीमावर्ती राज्यों से चीनी, नमक और केरोसिन तेल जैसी जरूरत की चीजें खत्म होने की खबरें आने लगी थीं। इसके एक माह बाद इन इलाकों में पीने के पानी की भी किल्लत हो गई थी। इस पूरे घटनाक्रम पर भारत की नजर थी। भारत सरकार के पास इस बारे में कोई सूचना नहीं थी कि ऑपरेशन सर्चलाइट के बाद शेख मुजीबुर्रहमान जिंदा भी हैं या नहीं।
इतिहासकार श्रीनाथ राघवन ने अपनी पुस्तक ‘ए ग्लोबल हिस्ट्री ऑफ द क्रिएशन ऑफ बांग्लादेश’ में लिखा- '' 24 मार्च को भारत में इंदिरा गांधी दूसरी बार प्रधानमंत्री बनीं। ढाका में नरसंहार और स्वाधीनता के एलान के बाद भारत में इंदिरा गांधी भावी रणनीति पर काम कर रही थीं। उनका मानना था कि इस मुद्दे पर सतर्कता से आगे बढ़ना होगा, क्योंकि पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र का सदस्य है। ऐसे में पाकिस्तान के आंतरिक मामले में भारत के हस्तक्षेप को अंतरराष्ट्रीय समुदाय सही नहीं समझेगा। ''
ऑपरेशन सर्चलाइट में कितने लोग मारे गए?
पाकिस्तानी सेना ने ऑपरेशन सर्चलाइट में अवामी लीग के कार्यकर्ता, स्वतंत्रता समर्थक आम नागरिक, ढाका विश्वविद्यालय के छात्र और शिक्षक, हिंदू समुदाय के नागरिक, बंगाली बुद्धिजीवी, पत्रकार, डॉक्टर और वकीलों को चुन-चुनकर मारा था।
पाक आर्मी ने दावा किया था- 25 हजार उपद्रवी मारे गए। जबकि बांग्लादेश की सरकार ने नरसंहार में मारे गए लोगों की संख्या आधिकारिक तौर पर 3,00,000 से ज्यादा बताई तो अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन ने आंकड़ा पांच लाख से अधिक बताया।
विदेशी पत्रकारों को भगाया, कैमरे -रील जब्त कर लिए
उस वक्त ढाका में इंटरकॉन्टिनेंटल होटल में विदेशी पत्रकार और अफसर ठहरा करते थे। 'ऑपरेशन सर्चलाइट' के वक्त भी होटल में कई विदेशी पत्रकार ठहरे हुए थे। होटल के सामने बने एक शॉपिंग सेंटर पर मशीन गन से लैस पाकिस्तानी सेना की जीप ने गोलियां बरसानी शुरू कर दी। होटल में मौजूद पत्रकार यह देखकर हैरान रह गए।
न्यूयॉर्क टाइम के 28 मार्च, 1971 अंक में छपा- शॉपिंग मॉल पर गोलियां चलती देख, जब पत्रकारों ने होटल के मुख्य द्वार पर तैनात कैप्टन के पास जाकर विरोध प्रकट किया तो उसने धमकाने वाले अंदाज में कहा- '-अगर मैं अपने लोगों को मार सकता हूं तो तुमको भी मारकर गिरा सकता हूं। इसलिए आप लोग फटाफट अपना सामान पैक करो और पाकिस्तान छोड़कर चले जाओ।''
घंटों छत पर छिपे रहे पत्रकार, मोजों में छिपाकर ले गए नोट्स
कुछ पत्रकारों के कैमरे तोड़ दिए और सिडनी शेनबर्ग समेत कुछ की रीलें जब्त कर ली गईं। हालांकि, कुछ पत्रकार पाक आर्मी के शिकंजे से बच निकले। ऐसे पत्रकारों में डेली टेलीग्राफ समाचार पत्र के रिपोर्टर साइमन ड्रिंग भी शामिल थे।
पत्रकार सलिल त्रिपाठी ने अपनी किताब 'द कर्नल हू वुड नॉट रिपेंट: द बांग्लादेश वॉर एंड इट्स अनक्वायट लिगेसी' में इस घटना का जिक्र किया है।
उन्होंने लिखा- साइमन ड्रिंग होटल की छत पर छिपे थे। सेना ने पूरे होटल में सर्च अभियान चलाया। सबको होटल से निकाल दिया। जब पाक आर्मी वहां से चली गई, तब ड्रिंग होटल से बाहर आए। फिर शहर में कई लोगों के इंटरव्यू किए। सभी नोट्स अपने मोजों में छिपाकर देश से बाहर ले गए।
'खुदा का शुक्र है- पाकिस्तान को बचा लिया'
26 मार्च की दोपहर भुट्टो कराची पहुंचे तो उन्होंने मीडिया को संबोधित करते हुए कहा- खुदा का शुक्र है कि पाकिस्तान को बचा लिया गया है। हालांकि, पूर्वी पाकिस्तानियों का मानना इससे अलग था। उनके मुताबिक, जिन्ना के पाकिस्तान की 26 मार्च, 1971 को मौत हो गई थी, जब पूर्वी पाकिस्तान की धरती खून से रंग दी गई थी।
अमेरिकी राजनयिक ने अपनी सरकार खिलाफ लिखा- असहमति नोट
25 मार्च की शाम की बात है। ढाका में तैनात अमेरिकी राजनयिक आर्चर ब्लड और उनकी पत्नी मेग ने एक डिनर पार्टी का आयोजन किया था। मेहमानों में अमेरिका से आए कुछ लोग, बंगाली हाईकोर्ट के दो जज और यूगोस्लाव राजनयिक समेत कुछ बड़ी हस्तियां शामिल हुई थीं।
ये सब लोग एक पुरानी फिल्म देख रहे थे, तभी आर्चर ब्लड के फोन की घंटी बजी। फोन करने वाले ने बताया- पाक आर्मी के वाहनों को रोकने के लिए बंगाली छात्र सड़कों पर बैरिकेडिंग कर रहे हैं। अमेरिकी राजनयिक ने यह खबर मेहमानों को दी तो हाईकोर्ट के दोनों जज ने घर जाने की इजाजत मांगी। उनके निकलते ही एक अमेरिकी दंपती भी निकल गया।
'ब्लड टेलीग्राम इंडियाज सीक्रेट वॉर इन ईस्ट पाकिस्तान' नाम की किताब में लिखा है- 'कुछ मिनटों बाद ही अमेरिकी दंपती डरा-सहमा वापस लौट आया। उन्होंने बगल की सड़क पर शव पड़े देखे थे। बाकी मेहमानों ने भी उस रात अमेरिकी राजनयिक आर्चर ब्लड के घर रुकने का फैसला किया।'
खैर बाद में आर्थर ब्लड ने अपनी सरकार को 'सेलेक्टिव जिनोसाइड' टाइटल से टेलीग्राम भेजा, जिसका अर्थ था- चुन चुनकर नरसंहार किया गया। लेकिन ब्लड को सबसे हैरानी और हताशा की बात यह लगी कि न इस्लामाबाद स्थित अमेरिकी दूतावास और न अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने इस पर कोई प्रतिक्रिया दी।
कुछ दिनों बाद जब ब्लड की रिपोर्ट पर बात हुई तो हेनरी किसिंजर ने कहा- 'ढाका में तैनात हमारे राजनयिक बहुत मजबूत मानसिक शक्ति वाले व्यक्ति नहीं हैं।' इसके बाद ब्लड और उनकी टीम ने अपनी ही सरकार के खिलाफ असहमति नोट लिखा, जिस पर ढाका में अमेरिकी दूतावास के 20 कर्मचारियों ने हस्ताक्षर किए।
असहमति नोट में लिखा था- हमारी सरकार लोकतंत्र को दबाने के प्रयासों और अत्याचारों की निंदा करने में नाकाम रही है। सरकार की वर्तमान नीति के प्रति हम अपनी असहमति प्रकट करते हैं। वॉशिंगटन में इस नोट का पसंद नहीं किया और जल्द ही ब्लड का ढाका से ट्रांसफर हो गया।
पूर्वी पाक के नेताओं ने BSF से लगाई मदद की गुहार
अवामी लीग के एक वरिष्ठ नेता ताजुद्दीन अहमद बैरिस्टर अमीर-उल-इस्लाम के साथ फरीदपुर और कुष्टिया के रास्ते 30 मार्च, 1971 की शाम को पश्चिम बंगाल से लगे बॉर्डर पर पहुंचे। यहां बीएसएफ की बंगाल फ्रंटियर के महानिरीक्षक (आईजी) गोलोक मजूमदार से मिले। BSF पहले से अवामी लीग के नेताओं के बारे में खुफिया सूचनाएं जुटाने में लगी थी।
अमीर-उल-इस्लाम ने अपनी किताब मुक्तियुद्धेर स्मृति (मुक्ति युद्ध की यादें) में लिखा- गोलोक ताजुद्दीन अहमद और मुझे कार में बिठाकर कलकत्ता एयरपोर्ट ले गए। वहां उनसे पूछताछ हुई। बातचीत में पता चला ताजुद्दीन अहमद चाहते थे कि बीएसएफ बांग्लादेश की सेना यानी मुक्ति वाहिनी को हथियार देकर उनकी मदद करे।
BSF के अधिकारी अकेले इतना बड़ा फैसला नहीं ले सकते हैं। इसलिए बीएसएफ के तत्कालीन महानिदेशक के.एफ.रुस्तमजी ने ताजुद्दीन की मुलाकात इंदिरा गांधी से कराई। हालांकि, इस मुलाकात से पहले तमाम तरह की जांच-पड़ताल, बैकग्राउंड वेरिफिकेशन किया गया।
इंदिरा ने दिया मदद का भरोसा
श्रीनाथ राघवन ने ‘ए ग्लोबल हिस्ट्री ऑफ द क्रिएशन ऑफ बांग्लादेश’ में लिखा- ताजुद्दीन संग इंदिरा गांधी ने बैक टू बैक दो दिन बैठक की। इस दौरान इंदिरा ने बांग्लादेश की स्वाधीनता को स्वीकृति देने पर कुछ भी नहीं कहा।
हां सीमा पर बांग्लादेशी सैनिकों की मदद करने का भरोसा जरूर दिया, लेकिन कितनी और कैसे मदद होगी, इस पर भी कुछ नहीं कहा। इसका फैसला करने के लिए इंदिरा ने एक कमेटी बनाई।
मार्च में हुए नरसंहार.. दिसंबर में हुआ अंत
हर दिन बांग्लादेश से दिल-दहला देने वाली खबरें आ रही थीं। हालत बद से बदतर हो चुके थे। भारत में विपक्षी नेताओं के सब्र का बांध टूट चुका था। दूसरी ओर इंदिरा गांधी सेना प्रमुखों संग बैठक कर सलाह-मशविरा करने में लगी थी।
भारतीय सेना की ओर से मदद और बांग्लादेश के सैनिकों को ट्रेनिंग दी जाने लगी। तब लगा कि मुक्ति वाहिनी अपने दम भी पश्चिमी पाकिस्तान से निपट लेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। नवंबर तक भारत में पूर्वी पाकिस्तान से जान बचाकर भागे लोगों की संख्या एक करोड़ के पार पहुंच गई।
पूरी दुनिया इस पर खामोश थी, ऐसे में भारत के पास पाकिस्तान से पूर्वी सीमा पर युद्ध करने के अलावा कोई ऑप्शन नहीं बचा।
3 दिसंबर 1971 को भारत सैनिक पाकिस्तानी सेना की बर्बरता को रोकने के लिए मैदान में कूद गए। भारत-पाकिस्तान के बीच तीनों मोर्चों पर जंग चली। 13 दिन के भीतर पाकिस्तानी सेना को घुटने टेकने पड़े। इस लड़ाई में पाकिस्तान के 93 हजार से अधिक सैनिकों ने भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण किया और बांग्लादेश के रूप में नए राष्ट्र का जन्म हुआ।
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Source
- जागरण आर्काइव
- इतिहासकार श्रीनाथ राघवन की पुस्तक- ए ग्लोबल हिस्ट्री ऑफ द क्रिएशन ऑफ बांग्लादेश
- पत्रकार सलिल त्रिपाठी की किताब - द कर्नल हू वुड नॉट रिपेंट: द बांग्लादेश वॉर एंड इट्स अनक्वाइट लिगेसी
- शर्मीला बोस की किताब - डेड रेकनिंग, मेमोरीज ऑफ द 1971 बांग्लादेश वॉर
- सैम डैलरिंपल की किताब - शैटर्ड लैंड: फाइव पार्टिशन एंड द मेकिंग ऑफ मॉर्डन एशिया
- जॉन सिसॉन और लिओ रोज की किताब - वॉर एंड सेसेशन: पाकिस्तान, इंडिया एंड क्रिएशन ऑफ बांग्लादेश
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