ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आंधी में भी अक्षुण्ण रही संस्कृत, विद्वानों जीवित रखा संस्कृत बौद्धिक विचार और साहित्य
संस्कृत भारत की एक शास्त्रीय भाषा है जो दुनिया की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक है और इसे 'देववाणी' भी कहा जाता है। इसे व्याकरण की दृष्टि से भी शुद्ध और वैज्ञानिक माना जाता है। लेकिन, सत्रहवीं शताब्दी से लेकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के भारत में मजबूती से पांव पसारने के दौरान इसे गंभीर चुनौतियों से भी दो-चार होना पड़ा।

ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आंधी में भी अक्षुण्ण रही संस्कृत (सांकेतिक तस्वीर)
पीटीआई,लंदन। संस्कृत भारत की एक शास्त्रीय भाषा है जो दुनिया की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक है और इसे 'देववाणी' भी कहा जाता है। इसे व्याकरण की दृष्टि से भी शुद्ध और वैज्ञानिक माना जाता है। लेकिन, सत्रहवीं शताब्दी से लेकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के भारत में मजबूती से पांव पसारने के दौरान इसे गंभीर चुनौतियों से भी दो-चार होना पड़ा।
मगर, ब्रिटिश साम्राज्यवाद की आंधी में भी यह अक्षुण्ण बनी रही क्योंकि विद्वानों ने अपने बुद्धि-कौशल से संस्कृत बौद्धिक विचार, साहित्य और कला को देश के दूर-दराज की बस्तियों में भी जीवित रखा। प्रतिष्ठित कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के नेतृत्व में किए गए एक शोध प्रोजेक्ट में इस आशय को उजागर किया गया है।
दक्षिण भारत के कावेरी डेल्टा में व्यापक सर्वे कर रहे विशेषज्ञ
शोधकर्ता बताते हैं कि ब्राह्मण बस्तियों, अग्रहार, मठों या दूर-दराज के गांवों में फैले ऐसे सैकड़ों अल्पज्ञात विशेषज्ञों ने अपनी विद्वतापूर्ण साहित्यिक गतिविधियों के माध्यम से इसे सदैव अक्षुण्ण बनाए रखा। उन्होंने अपने बुद्धि-कौशल से इस पारंपरिक मान्यता को भी खारिज कर दिया कि भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का विस्तार संस्कृत को किसी भी तरह प्रभावित कर सकताहै।
बहरहाल, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ अब दक्षिण भारत के कावेरी डेल्टा में स्थित इन्हीं स्थलों का पहला व्यापक सर्वेक्षण कर रहे हैं। इसका उद्देश्य उन ब्राह्मण विद्वानों की खोज करना है जो संस्कृत में कविताएं, नाटक, दर्शन, धर्मशास्त्र, कानूनी ग्रंथ और अन्य प्रकार के साहित्य लिखते रहे, जबकि उस समय अंग्रेजों और अंततः अंग्रेजी ने देश पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी।
उन ग्रंथों का अध्ययन करेंगे जिनका कभी अनुवाद/मुद्रण नहीं हुआ
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एशियाई व मध्य-पूर्वी अध्ययन संकाय और सेल्विन कालेज के प्रोजेक्ट प्रमुख डा. जोनाथन ड्यूक्वेट ने कहा, "इन लोगों में साहित्यिक प्रतिभाएं थीं। वे ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण हस्तियां थीं। लेकिन, भारत में बहुत से लोग उन्हें नहीं जानते। इनमें से कुछ विद्वानों का संस्कृत विद्या पर बहुत बड़ा प्रभाव था।
एक बहुत छोटा अल्पसंख्यक वर्ग अभी भी उनका सम्मान करता है, लेकिन उन्हें और उनके कार्यों को लगभग भुला दिया गया है। हम उन ग्रंथों का अध्ययन करेंगे जिनका कभी अनुवाद या मुद्रण नहीं हुआ। बहुत संभव है कि हमें ऐसे ग्रंथ भी मिलें जिनका पाश्चात्य विद्या में कभी अध्ययन नहीं किया गया या यहां तक कि उन्हें सूचीबद्ध भी नहीं किया गया। हमें यह स्पष्ट करने में सक्षम होना चाहिए कि किसने क्या, कब और कहां लिखा था।"
1799 के बाद तंजावुर क्षेत्र में फैलने लगे अंग्रेजी पढ़ाने वाले स्कूल
यह सर्वविदित है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता ने भारत में पारंपरिक शिक्षा और ज्ञान प्रणालियों को पूरी तरह बदल दिया। 1799 के बाद, जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने संस्कृत संरक्षण का केंद्र माने जाने वाले तंजावुर पर नियंत्रण कर लिया, तो इस क्षेत्र में अंग्रेजी पढ़ाने वाले स्कूल फैलने लगे।
संस्कृत का अध्ययन हमेशा एक कुलीन अल्पसंख्यक वर्ग द्वारा किया जाता रहा था, जहां ब्राह्मण वेद सीखने और संस्कृत दर्शन एवं साहित्य का अध्ययन करने के लिए पारंपरिक स्कूलों में जाते थे। लेकिन 1799 के बाद, धीरे-धीरे कम ब्राह्मण परिवारों ने अपने बेटों को पुजारी बनाने का लक्ष्य रखा और उन्हें नए पाश्चात्य शिक्षा-प्रभावित स्कूलों में भेजने लगे।
बड़े शहरों में हो रहे बदलावों से अछूती रहीं दूर-दराज की बस्तियां
डा. ड्यूक्वेट बताते हैं, "इससे संस्कृत विद्या पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ सकता था, लेकिन यह आंशिक रूप से इन ग्रामीण बस्तियों के कारण बची रही। इसकी वजह यह भी हो सकती है कि ये बस्तियां दूर-दराज के इलाकों में थीं, जहां संभवत: अंग्रेजी का प्रभाव नगण्य था।
लेकिन, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि विद्वान अपनी भूमि छोड़कर अन्यत्र नहीं गए, वे वहीं रहे जिसने उन्हें बड़े शहरों में हो रहे कुछ बदलावों से बचाया। एक धारणा है कि संस्कृत केवल कुलीन वर्ग, दरबारों और महानगरीय केंद्रों तक ही सीमित थी। लेकिन हमारी परियोजना यह दर्शाएगी कि ग्रामीण इलाकों में भी यह बिल्कुल जीवंत थी।"

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