हर्ष वी. पंत। पहले से तल्खी के दौर से गुजर रहे भारत-कनाडा संबंधों में सोमवार को तनाव अपने चरम पर पहुंच गया। सोमवार को नई दिल्ली ने कनाडा से अपने उच्चायुक्त को वापस बुलाने के साथ ही भारत में कनाडा के मिशन से जुड़े छह राजनयिकों को शनिवार तक देश छोड़ने का फरमान सुना दिया।

जवाब में कनाडा ने भी भारतीय राजनयिकों को लेकर ऐसा ही रुख अपनाया। सोमवार देर रात कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने प्रेस कांफ्रेंस में भारत के खिलाफ आक्रामक तेवर दिखाए। असल में यह ट्रूडो की नीतियां ही हैं, जिन्होंने भारत-कनाडा संबंधों को रसातल में पहुंचा दिया है। घरेलू राजनीतिक दबावों के चलते रणनीतिक-व्यापारिक लाभ को अनदेखा कर रहे ट्रूडो ने भारत के साथ पारंपरिक प्रगाढ़ संबंधों की भी अनदेखी से गुरेज नहीं किया।

कनाडा और भारत दोनों न केवल परिपक्व लोकतांत्रिक देश हैं, बल्कि दोनों की शासन प्रणालियां भी कमोबेश एक जैसी हैं। दोनों देशों के लोगों के बीच आत्मीय संबंधों से लेकर निरंतर परवान चढ़ रहे व्यापार के बावजूद ट्रूडो केवल निहित राजनीतिक स्वार्थों के वशीभूत होकर फैसलों में लगे हैं, जिनके दूरगामी नुकसान उठाने पड़ेंगे।

भारत-कनाडा संबंधों में टकराव का एक बिंदु सिख अलगाववाद से जुड़ा है, जिसे ट्रूडो के शासन में और हवा मिली। ऐसा नहीं कि सिख अलगाववाद और चरमपंथ उनके शासन में ही शुरू हुआ। कनाडा में इसकी जड़ें बहुत पुरानी हैं, जिनके तार उनके पिता के शासनकाल से भी जुड़ते हैं।

अंतर इतना है कि ट्रूडो के पूर्ववर्तियों ने सिख अलगाववाद पर अंकुश लगाने के प्रयास किए। इससे दोनों देश कनिष्क विमान हादसे से लेकर शीत युद्ध के दौर वाली असहमतियों को पीछे छोड़कर आगे बढ़े। खासतौर से ट्रूडो से पहले प्रधानमंत्री रहे स्टीफन हार्पर के दौर में द्विपक्षीय संबंधों को नई ऊंचाई मिली, लेकिन राजनीतिक पटल पर ट्रूडो के आने से स्थितियां बदल गईं।

अपनी राजनीतिक नैया पार लगाने के लिए उन्हें खालिस्तान समर्थक जगमीत सिंह की न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी यानी एनडीपी का समर्थन भी लेना पड़ा। अब उनकी लोकप्रियता बड़े निचले स्तर पर चली गई है। कनाडा में उनके भारत-विरोधी दृष्टिकोण को लेकर भी कुछ हलकों में विरोध शुरू हो गया है।

संबंधों में खटास के ताजा प्रकरण की शुरुआत पिछले साल सितंबर में तब हुई, जब ट्रूडो ने यह आरोप लगाया कि खालिस्तानी आतंकी हरदीप सिंह निज्जर की कनाडा में हुई हत्या के पीछे उनकी पुलिस को ऐसे साक्ष्य मिले हैं जो इस हत्याकांड में भारत सरकार के अधिकारियों की संलिप्तता की ओर संकेत करते हैं।

भारत ने उनके इस आरोप को गंभीरता से नहीं लिया। उलटे भारत की यह शिकायत थी कि ट्रूडो अपनी धरती पर भारत विरोधी गतिविधियों और खालिस्तान की मुहिम के लिए हो रही लामबंदी पर अंकुश नहीं लगा रहे। निज्जर के प्रत्यर्पण को लेकर भारत के बार-बार अनुरोध को भी वह दरकिनार करते रहे।

कनाडा में अतिवादी गतिविधियां इतने चरम पर पहुंच गईं कि वहां पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या का जश्न मनाया जाने लगा और भारतीय राजनयिकों को खुलेआम धमकियां दी जाने लगीं। ऐसी हरकतों पर लगाम लगाने के बजाय ट्रूडो सरकार उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर राजनीतिक एवं सामाजिक सुरक्षा-स्वीकार्यता प्रदान करती रही। जबकि इसी सरकार ने अपने ट्रक ड्राइवरों की हड़ताल को निर्ममता से कुचलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।

कनाडा के ताजा आरोप ये हैं कि भारत सरकार की शह पर लारेंस बिश्नोई गैंग उनके देश में खालिस्तान समर्थकों को निशाना बना रहा है। इस आरोप के पक्ष में कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं हैं। यही कारण है कि पश्चिम के तमाम पारंपरिक सहयोगी देश भी इस मुद्दे पर कनाडा का साथ देते नहीं दिख रहे हैं, जबकि अधिकांश मुद्दों पर इन देशों में असंदिग्ध सहमति नजर आती है।

वास्तव में कनाडा का रवैया ‘उलटा चोर कोतवाल को डांटे’ वाली कहावत को चरितार्थ करने जैसा है, क्योंकि भारत यही शिकायत करता रहा है कि कनाडा संगठित अपराध करने वालों की सुरक्षित ऐशगाह बना हुआ है। भारतीय उच्चायोग ने 2022 में कनाडा सरकार को आगाह किया था कि पंजाब में हिंसक वारदातों को अंजाम देने वालों की आपराधिक गतिविधियां उसकी जमीन से संचालित हो रही हैं। कनाडा ने भारत की इन शिकायतों पर कोई ध्यान नहीं दिया। उलटे भारत पर ही अनर्गल आरोप लगाए। चूंकि ट्रूडो सरकार के आरोपों में कोई आधार नहीं रहा इसलिए इससे खुद उसकी ही फजीहत हुई। ताजा मामला भी इसका अपवाद नहीं।

पिछले हफ्ते ट्रूडो सरकार ने निज्जर हत्याकांड से जुड़ी जांच में भारतीय राजनयिकों पर शिकंजा कसने का जो दांव चला, उससे द्विपक्षीय संबंधों में तनाव बढ़ना तय था और इसकी परिणति सोमवार को भारत सरकार के अप्रत्याशित कदम के रूप में सामने भी आई। अब इसकी भरी-पूरी आशंका दिख रही है कि ट्रूडो के सत्ता में रहते हुए कनाडा के साथ भारत के संबंधों में सुधार के आसार नहीं बनेंगे।

उन्हें यह समझना होगा कि उनकी धरती पर पनप रहे हिंसक संगठन भविष्य में आंतरिक स्तर पर समस्याएं पैदा कर सकते हैं। कनाडा में विदेशी मूल के लोगों के बेलगाम आगमन एवं बसावट को लेकर भी कुछ वर्गों में असंतोष पनप रहा है। लोग यह भी कह रहे हैं कि अपनी सरकार की नाकामियों पर पर्दा डालने और जनता का ध्यान बंटाने के लिए ट्रूडो भारत पर हमलावर हैं। खालिस्तानी समर्थकों के साथ ही जिहादी तत्वों को भी उनके शासन में खुली छूट मिली हुई है, जिसकी वजह से वहां ईसाई, हिंदू, यहूदी और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाया जा रहा है।

वहां फलस्तीन के समर्थन में भी कुछ हिंसक प्रदर्शन हुए थे और चर्चों एवं मंदिरों को क्षति पहुंचाई गई थी। संभव है कि चुनाव में ट्रूडो को इस सबका खामियाजा भुगतना पड़े और उससे बचने के लिए ही वह भारत को बदनाम करने का अंतिम दांव चल रहे हैं। इसके पूरे आसार हैं कि यह दांव कारगर नहीं होगा।

(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष हैं)