राजीव सचान। जम्मू कश्मीर के साथ हुए हरियाणा विधानसभा के चुनाव परिणाम अनपेक्षित रहने के कारण उनकी व्याख्या अब तक हो रही है। इसी तरह उनके राजनीतिक प्रभावों का आकलन भी जारी है। यह स्वाभाविक ही है, लेकिन इस पर भी ध्यान जाना चाहिए कि यदि हरियाणा की जनता कांग्रेस के पक्ष में फैसला सुनाती तो क्या होता?

बहुत कुछ होता और इसी क्रम में यह भी होता कि हरियाणा-पंजाब की सीमा पर ट्रैक्टर ट्रालियों के साथ धरने पर बैठे किसान नेता और उनके समर्थक दिल्ली आ धमकते। ऐसा होने के आसार इसलिए थे, क्योंकि कांग्रेस नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा यह वादा करने में लगे हुए थे कि यदि वह सत्ता में आए तो शंभू बॉर्डर खोल देंगे।

इसके चलते किसान संगठन दिल्ली को वैसे ही घेर सकते थे, जैसे उन्होंने कृषि कानून विरोधी आंदोलन के दौरान घेरा था और करीब 13 माह तक मुख्य मार्गों पर डटे रहे थे। इसके चलते दिल्ली-एनसीआर के लाखों लोगों की नाक में दम हो गया। तब केवल आवागमन ही बाधित नहीं हुआ था, बल्कि तमाम कारोबारियों को अरबों रुपये की क्षति का सामना करना पड़ा था।

यह याद रखा जाना चाहिए कि 13 माह चले आंदोलन के दौरान खुद को किसान कहने वाले लोगों ने 26 जनवरी को ट्रैक्टर परेड निकालने के बहाने लाल किले पर धावा बोलकर किस तरह देश को शर्मसार किया था। उस आंदोलन के दौरान और भी बहुत कुछ अप्रिय हुआ था, जैसे बंगाल की एक युवती से सामूहिक दुष्कर्म और पंजाब के दलित युवक लखबीर सिंह की हथेली काटकर हत्या।

आखिरकार मोदी सरकार ने तीनों कृषि कानूनों को वापस ले लिया था। यह कोई बहुत अच्छा निर्णय नहीं था, क्योंकि कृषि कानून किसानों के हित में थे। आवश्यकता इन कानूनों में संशोधन-परिवर्तन की थी, लेकिन किसान नेताओं की जिद और विपक्षी दलों की ओर से उन्हें उकसाए जाने के कारण ऐसा नहीं हो सका। इसके बाद पंजाब और उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए।

उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत के बाद स्वयंभू किसान नेता योगेंद्र यादव ने कहा था कि हमने तो विपक्ष के लिए अनुकूल पिच तैयार की थी, लेकिन विपक्ष अच्छी गेंदबाजी नहीं कर पाया। यह ठीक वैसा ही बयान है, जैसा पिछले दिनों किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने दिया। उन्होंने कहा कि हमने कांग्रेस के लिए माहौल बनाया था, लेकिन वह उसे भुना नहीं पाई। गुरनाम सिंह चढ़ूनी खुद भी हरियाणा से चुनाव लड़े थे, लेकिन उन्हें 1170 वोट ही मिले।

गुरनाम सिंह चढ़ूनी का संगठन उन किसान संगठनों में शामिल है, जो इस वर्ष फरवरी से शंभू बॉर्डर पर डेरा जमाए है और दिल्ली कूच की योजना बना रहा है। कुछ माह पहले पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट ने इस बॉर्डर को खोलने का आदेश दिया था, लेकिन इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया गया। उसने बॉर्डर खोलने के आदेश पर रोक लगा दी और किसानों से बात करने के लिए पांच सदस्यीय समिति गठित कर दी।

यह समिति किसान नेताओं से मिलकर उनके मुद्दों पर विचार करने के साथ उन्हें शंभू बॉर्डर खोलने के लिए राजी करने को लेकर गठित की गई है। सुप्रीम कोर्ट ने इस समिति का गठन करते हुए कहा था कि किसान नेता अपने आंदोलन का राजनीतीकरण करने से बचें और अनुचित मांगें न रखें।

पता नहीं उसका आशय किन अनुचित मांगों से है, लेकिन किसान संगठनों की एमएसपी की गारंटी वाला कानून बनाने, बिजली विधेयक वापस लेने समेत एक मांग यह भी है कि किसानों को प्रति माह दस हजार रुपये पेंशन दी जाए। हो सकता है कि किसान नेता इस मांग को उचित कहें, लेकिन क्या भारत जैसे देश में इस मांग को माना जाना संभव है?

सुप्रीम कोर्ट की ओर से किसान संगठनों से वार्ता के लिए समिति गठित किए हुए एक माह से अधिक का समय बीत चुका है, लेकिन अभी तक वह किसान नेताओं से बात नहीं कर सकी है। क्यों, क्योंकि वे बातचीत का निमंत्रण मिलने के बाद भी वार्ता के लिए आगे नहीं आ रहे हैं।

सनद रहे कि कृषि कानून विरोधी आंदोलन के दौरान भी सुप्रीम कोर्ट ने किसान नेताओं से बातचीत के लिए एक समिति गठित की थी। किसान नेताओं ने उस समिति का भी बहिष्कार कर दिया था। इसके बाद भी उक्त समिति ने अपनी रिपोर्ट तैयार कर सुप्रीम कोर्ट को सौंपी, लेकिन वह उस पर विचार करने को तैयार नहीं हुआ।

यह भी ध्यान रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानून विरोधी आंदोलन के दौरान दिल्ली को घेर कर बैठे किसान संगठनों को राजमार्गों से हटने का कोई आदेश देने की जरूरत नहीं समझी थी। इससे किसान नेताओं को बल मिला था और उन्हें यह संदेश गया था कि वह जो कर रहे हैं, सही कर रहे हैं। इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि हमारे देश के किसान तमाम समस्याओं से घिरे हैं और उनकी समस्याओं का समाधान इस तरह किया जाना चाहिए, जिससे खेती घाटे का सौदा न रहे।

यदि किसान संगठन यह चाहते हैं कि उनकी मांगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जाए तो उन्हें टकराव और विशेष रूप से अपने आंदोलन के जरिये लोगों को तंग करने वाला रवैया छोड़ना होगा। जो आंदोलन राजमार्ग बाधित करने और रेल रोकने को अपना हिस्सा बना लेता है, वह लोगों की सहानुभूति खो देता है।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)