वीरेंद्र तिवारी। अक्सर हम सोचते हैं कि यूरोप के नॉर्डिक देश 'हैप्पीनेस इंडेक्स' में हमेशा ऊपर क्यों रहते हैं? इसका जवाब मुझे किसी किताब में नहीं, बल्कि हेलसिंकी एयरपोर्ट पर एक अनुभव से मिला। आज जब भारत में इंडिगो के संकट को लेकर हर तरफ अफरा-तफरी मची है, तो यह किस्सा सुनाना और भी जरूरी हो जाता है।

बात उन दिनों की है जब मैं अपनी रिसर्च के सिलसिले में दिल्ली से नॉर्थ पोल की ओर आर्कटिक सर्कल के पास गया हुआ था। कई दिनों की भागदौड़ और काम की थकान के बाद, जब मैं वापसी के लिए हेलसिंकी-वांता (Helsinki-Vantaa) एयरपोर्ट पहुंचा, तो बस घर पहुंचने की जल्दी थी, लेकिन काउंटर पर पहुंचते ही एक बुरी खबर मिली-तकनीकी कारणों से क्रू लंदन में फंस गया था और मेरी फिनएयर की दिल्ली जाने वाली फ्लाइट रद्द हो चुकी थी।

एक आम यात्री की तरह मेरा पारा चढ़ना स्वाभाविक था। इससे पहले कि मैं चेक-इन काउंटर पर अपनी नाराजगी जाहिर करता, वहां की कस्टमर रिलेशनशिप मैनेजर तुरंत मेरे पास आईं। उनके चेहरे पर झुंझलाहट नहीं, बल्कि समाधान का भाव था। उन्होंने मेरे हाथ में 22 यूरो का एक वाउचर थमाया और बेहद विनम्रता से कहा, 'सर, जब तक हम आपके लिए कोई दूसरा विकल्प तैयार करते हैं, आप कृपया कुछ खा-पी लीजिए।'

गुस्सा पिघल गया। मैं लाउंज में गया, स्नैक्स खाए, चॉकलेट्स खरीदीं और एक घंटे बाद वापस काउंटर पर लौटा। मेरा इंतजाम हो चुका था - हेलसिंकी से बैंकॉक और वहां से एयर इंडिया के जरिए दिल्ली। उड़ान में बस तीन घंटे बाकी थे, लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई। जाते-जाते उन्होंने मुझे एक कार्ड दिया, जिस पर एक ईमेल एड्रेस और 'यूरोपियन एविएशन ला' का हवाला था। उन्होंने कहा, 'सर, हुई असुविधा के लिए आप मुआवजे के हकदार हैं। बस अपने डाक्युमेंट्स हमें मेल कर दीजिएगा।'

भारत लौटने के कुछ दिन बाद मैंने औपचारिकता पूरी कर दी। करीब दो महीने बाद मुझे फिनएयर से एक मेल आया। उसमें फ्लाइट रद्द होने के लिए कई बार माफी मांगी गई थी और अंत में एक कूपन कोड था। ऑफर था- या तो कैश ले लें, या फिर फ्यूचर फ्लाइट बुकिंग के लिए वाउचर और अगर मैं वाउचर चुनता, तो उसकी वैल्यू डेढ़ गुना, यानी 950 यूरो!

मैं आज भी बैठकर हिसाब लगाता हूँ तो हैरान रह जाता हूँ। एक यात्री को संतुष्ट करने के लिए उस एयरलाइन ने क्या कुछ नहीं किया:

  • हेलसिंकी-बैंकॉक-दिल्ली का तत्काल टिकट (कीमत लगभग 1 लाख रुपये)।
  • 950 यूरो का फ्लाइट वाउचर (कीमत लगभग 1 लाख रुपये) और 22 यूरो का नाश्ता अलग से।

अब, जरा अपनी वर्तमान स्थिति को देखिए। आज भारत के हर एयरपोर्ट पर हाहाकार मचा है। हमारे यहां 'कस्टमर केयर' सिर्फ टोल-फ्री नंबरों पर लिखा होता है, व्यवहार में नहीं झलकता। इसका सबसे बड़ा कारण है- प्रतिस्पर्धा का खत्म होना।

जिस तरह आज घरेलू उड़ानों के 65% हिस्से पर इंडिगो का एकछत्र राज है, ठीक वैसे ही जैसे टेलीकॉम में जियो का दबदबा है। जब बाजार में विकल्प खत्म हो जाते हैं, तो ग्राहक की अहमियत भी खत्म हो जाती है। किसी भी व्यवस्था या सरकार को घुटनों पर लाने के लिए संचालन में बस दो दिन की गड़बड़ी ही काफी होती है और उसका खामियाजा हम जैसे आम यात्रियों को भुगतना पड़ता है।

यूरोप का वो अनुभव बताता है कि जब कानून सख्त हो और बाजार में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा हो, तो कंपनियां ग्राहक को भगवान मानती हैं। और जब एकाधिकार हो, तो ग्राहक बस एक मजबूरी बनकर रह जाता है।

फर्क साफ है: क्यों यूरोप का यात्री है 'किंग' और भारत का 'बेबस'?

भारतीय यात्री अक्सर सोचते हैं कि एयरलाइंस की मनमानी सिर्फ उनकी किस्मत का दोष है, लेकिन असली खेल नियमों का है। डालिए एक नजर यूरोपियन यूनियन (EU 261) और भारतीय डीजीसीए (DGCA) के नियमों के भारी अंतर पर:

फ्लाइट रद होने पर

यूरोप: अगर 14 दिन पहले सूचना नहीं दी, तो दूरी के हिसाब से €250 से €600 का नकद मुआवजा देना अनिवार्य है, चाहे आपने टिकट कितने में भी खरीदा हो।
भारत: अगर एयरलाइन ने आपको दूसरी फ्लाइट का विकल्प दे दिया, तो एक रुपया भी मुआवजा नहीं मिलता। अगर फ्लाइट नहीं दी, तो केवल टिकट रिफंड और नाममात्र का हर्जाना (अधिकतम ₹10,000) मिलता है।

फ्लाइट लेट होने पर

यूरोप: अगर आप गंतव्य पर 3 घंटे से ज्यादा देरी से पहुंचे, तो इसे फ्लाइट रद्द होने जैसा माना जाता है और पूरा नकद मुआवजा मिलता है।
भारत: देरी होने पर कैश मुआवजे का कोई नियम नहीं है। एयरलाइन को सिर्फ नाश्ता या पानी (रिफ्रेशमेंट) देना होता है, वह भी तब जब देरी कई घंटों की हो।

'तकनीकी खराबी' का खेल

यूरोप: तकनीकी खराबी एयरलाइन की जिम्मेदारी है। इसे 'बहाना' बनाकर एयरलाइन मुआवजे देने से बच नहीं सकती।
भारत: भारतीय एयरलाइंस तकनीकी खराबी को 'अपने नियंत्रण से बाहर' (Beyond Control) बता देती हैं और नियमों की आड़ में मुआवजा देने से साफ मना कर देती हैं।

यात्री की देखभाल

यूरोप: फ्लाइट लेट होने पर होटल, खाना और वहां तक जाने का ट्रांसपोर्ट खर्च एयरलाइन को ही उठाना पड़ता है।
भारत: नियम तो हैं, लेकिन अक्सर एयरलाइंस यात्रियों को एयरपोर्ट पर घंटों बिठाकर सिर्फ सैंडविच या पानी की बोतल देकर पल्ला झाड़ लेती हैं।

लेखक वीरेंद्र तिवारी दैनिक जागरण के सहयोगी प्रकाशन भोपाल नवदुनिया के संपादक हैं।