बलबीर पुंज। हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने उन शक्तियों को फिर बेनकाब कर दिया, जो पर्यावरण-मानवाधिकार के मुखौटे पहनकर देश के विकास को दशकों से बाधित कर रही हैं। इसी योजनाबद्ध प्रपंच का परिणाम है कि भारत और चीन, जो 1985 तक आर्थिक विकास की दृष्टि से बराबर थे और दोनों देशों में प्रति व्यक्ति जीडीपी समतुल्य (293 डालर) था, उनके बीच अब बहुत अंतर आ गया है। चीन की वर्तमान प्रति व्यक्ति जीडीपी 13,300 डालर है, तो भारत का आंकड़ा 2,800 डालर है। चीनी अर्थव्यवस्था लगभग 19.5 ट्रिलियन डालर और भारतीय अर्थव्यवस्था चार ट्रिलियन डालर की है।

यह विषमता केवल संयोग नहीं, बल्कि विकास विरोधी ताकतों का भी प्रत्यक्ष परिणाम है। सबसे पहले पूरा मामला जान लेते हैं। 11 अगस्त को शीर्ष अदालत ने मेधा पाटकर को मानहानि के मामले में निचली अदालत द्वारा दोषसिद्धि के निर्णय को बरकरार रखा। इससे पहले दिल्ली उच्च न्यायालय से भी मेधा को निराशा हाथ लगी थी। पाटकर को राहत केवल इसकी है कि निचली अदालत द्वारा लगाया आर्थिक दंड निरस्त कर दिया गया।

मामला 2000 का है, जब दिल्ली के वर्तमान उपराज्यपाल वीके सक्सेना की पंजीकृत समिति ‘नेशनल काउंसिल आफ सिविल लिबर्टीज’ (एनसीसीएल) गुजरात में सरदार सरोवर बांध परियोजना का समर्थन कर रही थी, जबकि पाटकर के नेतृत्व में ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ (एनबीए) पर्यावरण-मानवाधिकार के नाम पर विरोध कर रहा था। उस समय एनसीसीएल ने एक समाचार पत्र में ‘मेधा पाटकर और उनके नर्मदा बचाओ आंदोलन का असली चेहरा’ नाम से विज्ञापन प्रकाशित किया। इसके प्रत्युत्तर में पाटकर ने ‘देशभक्त का असली चेहरा...’ नाम से एक प्रेस-नोट जारी किया। इसके ही खिलाफ वीके सक्सेना ने सफल कानूनी लड़ाई लड़ी। इस प्रकरण ने मानहानि के साथ उस विडंबना को भी उजागर किया, जिसमें भारत की विकासयात्रा चीन और अन्य देशों से पिछड़ती चली गई।

चीन ने यांग्त्जी नदी पर 22,500 मेगावाट की क्षमता वाला विशाल ‘थ्री गार्जेस बांध’ लगभग एक दशक में पूरा कर लिया। इस दौरान 13 नगर, 140 कस्बे और 1,350 गांव डूब गए और लगभग 13 लाख लोगों का विस्थापन हुआ। इसके विपरीत नर्मदा नदी पर बना सरदार सरोवर बांध चीनी बांध की तुलना में काफी कम शक्तिशाली (1,450 मेगावाट) है। इससे केवल 178 गांव ही प्रभावित हुए और विस्थापितों की संख्या भी अपेक्षाकृत कम थी। सरदार सरोवर बांध परियोजना पूरा करने में भारत को 56 वर्ष लग गए। इस बांध की आधारशिला 1961 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने रखी थी।

2017 में प्रधानमंत्री मोदी ने इसका उद्घाटन किया। इस परियोजना को बाधित करने की कोशिश मेधा पाटकर के एनबीए ने 1985 से ही प्रारंभ कर दी थी, इसके लिए भारतीय न्यायिक प्रक्रिया का भी दुरुपयोग किया गया। 2017 में इस बांध के शुरू होने से आज मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में बिजली के अतिरिक्त गुजरात के 9,490 गांवों को स्वच्छ पेयजल मिल रहा है। गुजरात के 3,112 गांवों में 18 लाख हेक्टेयर से अधिक, राजस्थान के बाड़मेर-जालौर में 2.46 लाख हेक्टेयर और महाराष्ट्र में आदिवासी क्षेत्र के 37,500 हेक्टेयर भूखंड को सिंचाई हेतु पानी प्राप्त हो रहा है।

जिस नर्मदा का पानी लोगों की प्यास बुझाने के साथ सिंचाई के काम आ रहा है, वह दशकों तक अरब सागर में बहता रहा। इस जीवनदायिनी बांध परियोजना के मार्ग में वर्षों तक रोड़े अटकाने का ‘पुरस्कार’ मेधा पाटकर को ‘राइट लाइवलीहुड अवार्ड’ (1991), ‘गोल्डमैन एनवायरनमेंट अवार्ड’ (1992), ‘बेस्ट इंटरनेशनल पालिटिकल कैंपेनर के लिए ग्रीन रिबन अवार्ड’ (1995), ‘एमनेस्टी ह्यूमन राइट्स डिफेंडर अवार्ड’, ‘बीबीसी पर्सन आफ द ईयर’ (1999) आदि के रूप में मिला। मेधा के आंदोलन पर बनी ‘ए नर्मदा डायरी’ को 1996 में सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र का फिल्मफेयर पुरस्कार भी दिया गया। मेधा के आंदोलन को अरुंधति राय के साथ अभिनेता आमिर खान आदि का समर्थन मिला।

मेधा और उनके सहयोगी जिस एजेंडे की पूर्ति हेतु काम कर रहे थे, वह भारत-विरोधी शक्तियों को भाया और उन्होंने उन्हें सिर पर बिठाया। अर्थशास्त्री और लेखक स्वामीनाथन अय्यर मानते हैं कि मेधा अब भी सरदार सरोवर बांध के विस्थापितों को लेकर झूठ बोल रही हैं, जबकि कई परिवार पहले से कहीं अधिक आर्थिक रूप से सक्षम और आत्मनिर्भर हो गए हैं।

स्वयं अय्यर भी मेधा के मायाजाल का शिकार थे। उन्होंने माना था, ‘मैंने मेधा के तर्कों को प्रेरक पाया और परियोजना का विरोध करते हुए लिखा...मैं गलत था। उन्होंने मेरे साथ हजारों मानवतावादियों को मूर्ख बनाया।’ यह कोई पहला प्रसंग नहीं है। तमिलनाडु स्थित भारत-रूस संयुक्त उपक्रम कुडनकुलम परमाणु संयंत्र इसका जीवंत उदाहरण है। देश की ऊर्जा-क्षमता बढ़ाने के इस प्रकल्प को वर्षों तक अड़चनों का सामना करना पड़ा। इसके खिलाफ जहां अमेरिकी वित्तपोषित एनजीओ सक्रिय थे, वहीं कुछ चर्च भी।

2012 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था, ‘कुडनकुलम परमाणु परियोजना और कृषि क्षेत्र में वृद्धि हेतु जेनेटिक इंजीनियरिंग के प्रयोग का विरोध करने के पीछे विदेशी वित्त प्राप्त एनजीओ का हाथ है।’ इसी प्रायोजित विरोध से इस परियोजना के व्यावसायिक संचालन में आठ वर्ष विलंब हुआ, जिससे इसकी लागत में करोड़ों रुपये की अतिरिक्त वृद्धि हो गई।

ठीक इसी तरह जब केरल में तिरुवनंतपुरम स्थित विझिंजम बंदरगाह का निर्माण शुरू हुआ, तब बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन खड़े कर दिए गए। यह आंदोलन स्थानीय मछुआरों के नाम पर चलाया गया, किंतु इसके पीछे चर्च की सक्रिय भूमिका सामने आई। अगस्त 2022 को स्वयं केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन को विधानसभा में कहना पड़ा, ‘जो विरोध हो रहा है, उसे स्थानीय मछुआरों का विरोध नहीं कहा जा सकता।’

कथित पर्यावरणीय चिंताओं के नाम पर योजनाबद्ध हिंसक प्रदर्शनों के चलते तूतूकुड़ी (तूतीकोरिन) स्थित वेदांता समूह के स्वामित्व वाले स्टरलाइट तांबा स्मेल्टर को 2018 में बंद करना पड़ा। 2017-2018 तक भारत विश्व के शीर्ष पांच तांबा निर्यातकों में शामिल था, किंतु अब देश तांबे का आयातक है। यह बताता है कि किस प्रकार पर्यावरण हित के नाम पर देश की आर्थिक-सामरिक क्षमता को क्षति पहुंचाई जाती है। यदि भारत को वर्ष 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने का उद्देश्य प्राप्त करना है, तो उसे देश-विरोधियों और उनके मुखौटों से सावधान रहना होगा।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)