जी. किशन रेड्डी। स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी ने लाल किले की प्राचीर से सिंधु जल संधि पर कहा कि ‘भारत ने अब निर्णय ले लिया है कि खून और पानी एक साथ नहीं बहेंगे। लोगों को अहसास हो गया है कि सिंधु जल संधि अन्यायपूर्ण थी। सिंधु नदी प्रणाली के पानी से दुश्मन की जमीनों की सिंचाई होती रही, जबकि हमारे किसान कष्ट झेलते रहे।’ उनका यह आक्रोश पहली बार नहीं था।

वह इस मुद्दे पर कई मंचों से प्रखरता से बोलते रहे हैं। लोकसभा में आपरेशन सिंदूर पर चर्चा के दौरान भी उन्होंने कहा था कि ‘भारत के राष्ट्रीय हितों को तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा बार-बार गिरवी रखा गया। सिंधु और झेलम जैसी नदियां, जो कभी भारत की पहचान का पर्याय थीं, भारत की अपनी नदियां और जल होने के बावजूद मध्यस्थता के लिए विश्व बैंक को सौंप दी गईं। यह भारत के स्वाभिमान और सांस्कृतिक मूल्यों के साथ एक विश्वासघात था।’

पहलगाम आतंकी हमले के बाद सबसे पहले भारत सरकार ने सिंधु जल संधि को स्थगित करने का कठोर निर्णय लिया। सिंधु जल संधि को स्थगित करने का निर्णय वह साहसिक फैसला है, जो पहले कभी नहीं लिया गया। फिर चाहे 1965, 1971 का युद्ध हो या 1999 का कारगिल संघर्ष। इस साहसिक निर्णय ने आतंक के विरुद्ध भारत के सोच, कठोर कार्रवाई और रणनीति को दुनिया के समक्ष पूरी स्पष्टता से साबित किया है।

सिंधु जल संधि हमारी स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों में की गई ऐतिहासिक गलतियों और भूलों में से एक थी। इस पर 19 सितंबर, 1960 को कराची में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान द्वारा सद्भावना के प्रतीक के रूप में हस्ताक्षर किए गए। सिंधु जल संधि में सैद्धांतिक रूप से पाकिस्तान और भारत के बीच 80:20 के अनुपात में सिंधु जल प्रणाली के वितरण पर सहमति व्यक्त की गई।

इस प्रणाली से पाकिस्तान को एक बड़ा हिस्सा मिलने के अलावा संधि ने रावी, व्यास और सतलुज की तीन पूर्वी नदियों के पानी को भारत के उपयोग के लिए और सिंधु, झेलम और चेनाब की तीन पश्चिमी नदियों के पानी को पाकिस्तान के उपयोग के लिए अनुमति दी गई। इसके अलावा 10 साल की संक्रमण अवधि पर सहमति बनी और कहा गया कि इस दौरान पाकिस्तान पश्चिमी नदियों पर लिंक नहरों की एक प्रणाली का निर्माण करेगा और इसका भुगतान भारत द्वारा किया जाएगा।

इसकी लागत 83·3 करोड़ रुपये आंकी गई थी, जो आज के हिसाब से करीब 8,000 करोड़ रुपये है। इसके अलावा विश्व बैंक की भागीदारी से पाकिस्तान को लगभग 400 करोड़ रुपये का अनुदान मिल रहा था। भारत को अपनी लिंक नहरों के निर्माण के लिए 100 करोड़ रुपये से अधिक की दरकार थी, लेकिन उसे केवल 30 करोड़ रुपये मिल रहे थे और वह भी ऋण के रूप में। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण था? उस समय भी इस संधि पर हस्ताक्षर के खिलाफ देश में व्यापक निराशा थी।

30 नवंबर, 1960 को संसद में सिंधु जल संधि पर चर्चा करते समय पाली, राजस्थान से कांग्रेस के सांसद हरीश चंद्र माथुर ने सिंधु जल संधि पर समाचार पत्र के संपादकीय का उल्लेख करते हुए कहा था, “विवाद के लगभग हर मुख्य बिंदु पर भारत ने अक्सर अपने हितों की कीमत पर पाकिस्तान की इच्छाओं के आगे घुटने टेके हैं।”

उस समय प्रचलित धारणा यह थी कि भारत ने कुछ भी हासिल किए बिना पाकिस्तान को बहुत अधिक रियायत दे दी। पार्टी लाइन से विपरीत कांग्रेस के सांसदों की भावना यह थी कि इस निर्णय से राजस्थान राज्य सबसे अधिक प्रभावित होगा। पंडित नेहरू इससे बेपरवाह दिखे और उन्होंने सदन के सदस्यों का ‘एक बाल्टी पानी’ को मुद्दा बनाने के लिए उपहास किया।

पंडित नेहरू के जवाब से असंतुष्ट अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि ‘समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद पाकिस्तान के राष्ट्रपति का यह कहना था कि नदी मार्गों के संयुक्त निरीक्षण की प्रक्रिया को स्वीकार करके भारत ने एक तरह से चेनाब और झेलम के ऊपरी क्षेत्र तक विस्तारित संयुक्त नियंत्रण के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया है और संयुक्त नियंत्रण का अर्थ संयुक्त कब्जा है।

यह सद्भावना और मित्रता स्थापित करने का तरीका नहीं। यदि पाकिस्तान कुछ गलत कहता है या गलत मांग करता है, तो इसका विरोध किया जाना चाहिए। अगर इससे रिश्ते खराब होते हैं, तो हम कभी भी अच्छे संबंध नहीं बना सकते।’ अब साढ़े छह दशक बाद सिंधु जल संधि को स्थगित करने का निर्णय एक साहसिक निर्णय है।

भारत की प्रतिक्रिया बताती है कि किसी संधि का सम्मान सद्भावनापूर्वक करने का दायित्व किसी संधि के लिए मौलिक आवश्यकता है। पाकिस्तान द्वारा आतंक जारी रखना सद्भावना का माहौल खराब करता है। प्रधानमंत्री मोदी ने कई मंचों पर दोहराया है कि ‘खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते।’ सिंधु जल संधि को स्थगित करने का विचार पहले भी कई बार किया गया, जैसे कि 26/11 के मुंबई आतंकी हमलों के बाद, लेकिन फैसला नहीं किया जा सका।

मोदी सरकार ने भारत के राष्ट्रीय हितों को केंद्र में रखते हुए यह कठोर निर्णय लेने का साहसी काम किया। भारत अब अपनी बदली हुई जनसांख्यिकी, कृषि और सिंचाई आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए एक नया दृष्टिकोण विकसित कर सकता है और अपने ऊर्जा लक्ष्यों को पूरा करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा के विकास में और तेजी ला सकता है।

(लेखक केंद्रीय कोयला एवं खान मंत्री हैं)