सीपी राधाकृष्णन। भारत के सनातन सांस्कृतिक आत्मा को यदि किसी एक पवित्र मंच पर सजीव रूप में देखा जा सकता है, तो वह है काशी-तमिल संगमम। यह एक ऐसा अनूठा उत्सव है, जहां उत्तर और दक्षिण की संस्कृति, सभ्यताएं, भाषाएं और परंपराएं एक विराट भारतीय परिवार की तरह एक-दूसरे का आलिंगन करती हैं।

संगमम के चौथे संस्करण के अवसर पर मैंने गहराई से यह अनुभव किया कि काशी और तमिलनाडु का यह संबंध केवल भौगोलिक या ऐतिहासिक नहीं, बल्कि हजारों वर्षों से बहती आध्यात्मिक सांस्कृतिक धारा का अविरल प्रवाह है। काशी अविनाशी है, अनादि काल से है। काशी को प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति की राजधानी कहा जाता है। दूसरी ओर तमिलनाडु, जिसकी भाषा विश्व की प्राचीनतम जीवित भाषाओं में से एक है, भारत की सनातन परंपरा, साहित्य, संगीत और दर्शन का महान वाहक रहा है।

काशी-तमिल संगमम इन दोनों सभ्यतागत स्तंभों के बीच के सेतु को पुनः सुदृढ़ करता है। उत्तर और दक्षिण के बीच यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान कोई नया प्रसंग नहीं है। देवारम नालवर के भक्ति गीतों से लेकर काशी में गूंजते संत कबीर के भजनों तक साधना की भाषा एक ही रही है। वह है भक्ति, ज्ञान, मानवता की भाषा।

काशी में तमिल संतों की उपस्थिति और दक्षिण भारत में काशी को ‘मोक्ष की नगरी’ के रूप में मान्यता, इस गहरे संबंध को प्रमाणित करती है। प्रधानमंत्री मोदी की दूरदर्शिता और एक भारत, श्रेष्ठ भारत के दृढ़ संकल्प से 2022 में यह कार्यक्रम शुरू हुआ। आज यह कार्यक्रम राष्ट्रीय एकता के एक प्रमुख प्रतीक के रूप में विकसित हुआ है। यहां गंगा की संस्कृति और कावेरी की परंपराएं एक-दूसरे से मिलकर भारत की सांस्कृतिक अखंडता को आगे बढ़ाती हैं।

प्रधानमंत्री ने हाल में ‘मन की बात’ में इस उत्सव का उल्लेख करते हुए कहा था कि “यह संगमम विश्व के प्राचीनतम नगरों में से एक काशी और विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में से एक तमिल का संगम है।” उन्होंने तमिल भाषा और संस्कृति को भारत का गौरव बताते हुए सभी से तमिल सीखने का आग्रह भी किया। यह आग्रह भारत की भाषाई विविधता को अपनाने की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम है।

काशी-तमिल संगमम के प्रत्येक संस्करण में तमिलनाडु के छात्र, अध्यापक, लेखक, मीडिया प्रोफेशनल्स, कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों के लोग, महिलाएं और आध्यात्मिक विद्वान काशी आते रहे हैं। इस दौरान वे काशी के मंदिरों, तमिल से संबंधित केंद्रों और अयोध्या एवं प्रयागराज जैसे नगरों से परिचित होते हैं। चौथे संस्करण ने संगमम की सीमा और महत्वाकांक्षा को बढ़ाया है। काशी-तमिल संगमम 4.0 में युवाओं की भागीदारी विशेष रूप से उल्लेखनीय रही है।

विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों के छात्रों को इस कार्यक्रम से जोड़ने का उद्देश्य भावी पीढ़ी में राष्ट्रीय एकता की चेतना को और गहराई देना है। संगमम के दौरान उत्तर प्रदेश के 300 विद्यार्थी तमिलनाडु पहुंचे हैं और विभिन्न संस्थानों में तमिल भाषा सीख रहे हैं। उन्हें तमिलनाडु की समृद्ध परंपराओं, त्योहारों और भारतीय परंपरा की एकता से भी परिचित कराया जाएगा। तमिलनाडु से भी 50 तमिल शिक्षक वाराणसी पहुंचे हैं और संगमम के दौरान 1,500 से अधिक छात्रों को तमिल सिखाने का प्रयास कर रहे हैं। तमिल की मधुर ध्वनि काशी में गूंजी, इससे अधिक गौरव की बात क्या हो सकती है?

काशी-तमिल संगमम 4.0 की एक और विशिष्ट और प्रेरक पहल ‘अगस्त्य अभियान’ है। यह अभियान तमिलनाडु के तेनकाशी से काशी तक एक प्राचीन सभ्यतागत मार्ग को पुनर्स्थापित करता है। महर्षि अगस्त्य भारतीय सभ्यता के उन महान ऋषियों में से हैं, जिन्होंने उत्तर और दक्षिण के बीच सांस्कृतिक संवाद को सुदृढ़ किया। उन्हें तमिल भाषा और सिद्ध चिकित्सा का प्रवर्तक माना जाता है। वे तमिल संस्कृति को उत्तर भारत तक ले कर आए। अगस्त्य अभियान उनके उसी योगदान को स्मरण करते हुए उत्तर-दक्षिण के सांस्कृतिक संबंधों को पुनः रेखांकित करता है।

काशी-तमिल संगमम 4.0 यह संकेत देता है कि भारत अपनी प्राचीन सभ्यतागत जड़ों को सहेजते हुए आत्मविश्वास के साथ भविष्य की ओर अग्रसर है। यह आयोजन हमें स्मरण कराता है कि राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में अतीत की स्मृतियां केवल विरासत नहीं, बल्कि वर्तमान को दिशा देने वाली प्रेरणा होती हैं। ऐसे मंचों के माध्यम से सांस्कृतिक संवाद, आंतरिक एकता और राष्ट्रीय चेतना को निरंतर सुदृढ़ किया जा रहा है। संगमम अतीत की सांस्कृतिक विरासत, वर्तमान की जीवंत सहभागिता और भविष्य के विकसित भारत जैसे राष्ट्रीय संकल्प, तीनों को एक सूत्र में पिरोता है।

यह स्पष्ट करता है कि भारत का विकास केवल आर्थिक या तकनीकी प्रगति तक सीमित नहीं है, बल्कि उसकी जड़ें सांस्कृतिक आत्मविश्वास और सभ्यतागत चेतना में निहित हैं। काशी तमिल संगमम 4.0 ने यह स्पष्ट किया कि भारत सरकार सांस्कृतिक एकीकरण के लिए पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध है। इस आयोजन ने विभिन्न समुदायों को जोड़ा है। इसने यह पुनः स्थापित किया है कि भारत की सभ्यतागत शक्ति उसकी विविधता की एकता में निहित है। आज जब विश्व विविधताओं के बीच तनाव और संघर्षों से जूझ रहा है, तब भारत का विविधता को उत्सव के रूप में स्वीकार करना वैश्विक संदर्भ में भी प्रेरणास्पद बनकर उभरता है।

महाकवि सुब्रमण्य भारती ने एक ऐसे भारत का सपना देखा था, जहां सिंधु तट पर तेलुगु गीत गाए जाएं और कावेरी की धरती के बच्चे गंगा के तट पर उत्सव मनाएं। उस स्वप्न ने काशी-तमिल संगमम के माध्यम से आज मूर्त रूप ले लिया है। इस संगमम से प्रेरणा लेकर हम कह सकते हैं: ‘कावेरी की पुत्री, गंगा के तट पर गाती है, भक्ति की मधुर धारा में, अपनी धुन मिलाती है। गंगा का पुत्र भी, कावेरी के तट पर आता है, तमिल के मीठे स्वरों में, भारत का नाद सुनाता है।’ काशी से शुरू हुआ यह कार्यक्रम, तमिल आध्यात्मिक विरासत की सबसे पवित्र जगहों में से एक रामेश्वरम में खत्म होगा। यही वह सेतु है, जो उत्तर और दक्षिण को जोड़ता है और भारत को एक परिवार होने की अनुभूति कराता है।

(लेखक उपराष्ट्रपति हैं)