जागरण संपादकीय: राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव
टिकट वितरण में पार्टी कार्यकर्ता की कर्मठता एवं समर्पण सरीखे पहलू अक्सर गौण हो जाते हैं। उसमें केवल जिताऊ कोण पर ही पूरा जोर दिया जाता है। ऐसे में निष्ठावान कार्यकर्ताओं को किनारे करके धनबल बाहुबल और जातीय-धार्मिक पहलुओं को प्राथमिकता दी जाने लगी है। खासतौर से चुनाव जितने खर्चीले होते जा रहे हैं उसे देखते हुए धनबल की महत्ता बढ़ती जा रही है।
राहुल वर्मा। समकालीन भारतीय राजनीति में दलबदल एक ऐसी दलदल है जिसमें लगभग हर कोई राजनीतिक दल धंसा हुआ है। ज्यादा दूर न जाएं तो चाहे अप्रैल से जून तक चले लोकसभा के चुनाव हों या बीते दिनों हुए हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव से लेकर इन दिनों चुनावी प्रक्रिया का सामना कर रहे महाराष्ट्र-झारखंड का उदाहरण लें तो कुछ नेताओं को लेकर आपको दुविधा हो सकती है कि वे इन दिनों किस पार्टी के साथ जुड़े हैं। दोनों राज्यों में सभी दल असंतुष्ट और बागी प्रत्याशियों से जूझ रहे हैं। असल में नेताओं और दलों ने दलबदल को इतना सामान्य बना दिया है कि मानो यह कोई मुद्दा ही नहीं है। हालांकि ऐसा है नहीं। चाहे नैतिकता का तकाजा हो या फिर आदर्श राजनीतिक व्यवस्था की बात करें तो दलबदल की यह परिपाटी राजनीतिक तंत्र में भरोसे और विश्वसनीयता का सवाल निश्चित रूप से उठाती है। इस बहस में पहला प्रश्न तो यही कौंधता है कि आखिर हमारी व्यवस्था में यह सिलसिला क्यों कायम है? इसके उत्तर की पड़ताल करें तो उसमें राजनीतिक एवं चुनाव सुधारों का अभाव दिखेगा। हमारे कुछ नेताओं की निहित स्वार्थ से प्रेरित वह मानसिकता भी इसके मूल में है जो किसी भी स्थिति में सत्ता में भागीदार न सही तो कम से कम उसके करीब जरूर रहना चाहती है।
दलबदल अमूमन दो तरह से होता है। एक तो चुनाव से पहले और दूसरा चुनाव के बाद। स्वाभाविक है कि चुनाव में टिकट से वंचित रह जाने की स्थिति में लोग पाला बदल लेते हैं। हालांकि इसके उतने खतरे नहीं, क्योंकि चुनाव से पहले ही मतदाताओं के समक्ष स्थिति स्पष्ट रहती है कि कौन किसके पाले में है। दोनों स्थितियों में चुनाव बाद होने वाला दलबदल कहीं अधिक गंभीर प्रकृति का है, क्योंकि उसमें मतदाताओं के साथ छल होने का जोखिम अधिक रहता है। शायद यही कारण रहा कि चुनाव बाद होने वाले दलबदल पर अंकुश के लिए वर्ष 1985 में राजीव गांधी सरकार ने दलबदल निरोधक कानून बनाया, जिसे 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने और सशक्त बनाने का काम किया। इससे चुनाव बाद दलबदल की समस्या का कुछ हद तक समाधान अवश्य हुआ, लेकिन उसका पूरी तरह निराकरण नहीं हो पाया। नेताओं ने इसका भी तोड़ निकाल लिया है। चूंकि दलबदल के लिए एक निश्चित संख्या की आवश्यकता होती है तो उसका बंदोबस्त करने के बाद अब यह कहीं अधिक संस्थागत रूप से होने लगा है। यहां तक कि निर्वाचन के बाद जनप्रतिनिधियों द्वारा सदन की अपनी सदस्यता से इस्तीफा देकर बहुमत के आंकड़े को ही विरूपित कर दिया जाता है। उसके बाद उपचुनाव से चुनावी प्रक्रिया और भी बोझिल होने लगी है। वहीं एक साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाले गठबंधन के दल भी जब सत्ता की खातिर अपनी राह अलग कर लेते हैं तो वह भी जनमत और जनादेश के साथ एक प्रकार का छल होता है।
दलबदल की समस्या समय के साथ और विकराल हुई है तो उसके सबसे अधिक दोषी हमारे राजनीतिक दल हैं। छोटी पार्टियां तो निजी जागीरों की तरह चलाई ही जा रही हैं, मगर बड़े दलों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं। बड़ी पार्टियों का नेतृत्व भी हद से अधिक केंद्रीकृत हो चला है। आंतरिक लोकतंत्र भी आदर्श अवस्था में नहीं है। प्रत्याशी चयन की सुनिश्चित प्रक्रिया नहीं है। टिकट वितरण में पार्टी कार्यकर्ता की कर्मठता एवं समर्पण सरीखे पहलू अक्सर गौण हो जाते हैं। उसमें केवल जिताऊ कोण पर ही पूरा जोर दिया जाता है। ऐसे में निष्ठावान कार्यकर्ताओं को किनारे करके धनबल, बाहुबल और जातीय-धार्मिक पहलुओं को प्राथमिकता दी जाने लगी है। खासतौर से चुनाव जितने खर्चीले होते जा रहे हैं, उसे देखते हुए धनबल की महत्ता बढ़ती जा रही है। ऐसे में धनाढ्य प्रत्याशियों को तरजीह मिलने लगी है। ऐसे दावेदारों को अगर कुछ कारणों से अपने दल से टिकट नहीं मिलता तो प्रतिद्वंद्वी दल उन्हें हाथोंहाथ अपना लेता है। कई मामलों में यह भी देखा गया है कि दल की सदस्यता लेने के पांच मिनट में ही उक्त व्यक्ति को पार्टी द्वारा प्रत्याशी घोषित कर दिया जाता है। आधे घंटे पहले तक किसी के पक्ष में रैली कर रहा नेता एकाएक दूसरे दल के मंच पर पहुंचकर उसकी पैरवी करने लगता है। यह भारतीय राजनीतिक परिदृश्य की विडंबनाओं को ही उजागर करता है।
दलबदल पर विराम लगाने के लिए कोई कानूनी पहल अनिवार्य रूप से कारगर नहीं हो सकती। दलबदल निरोधक कानून के दुष्परिणामों को ही देख लीजिए। उसके लागू होने के बाद जनप्रतिनिधियों के व्यक्तिगत अधिकार बहुत सीमित हो गए हैं कि कई मुद्दों पर वे अपना पक्ष भी नहीं रख सकते। कई राजनीतिक प्रेक्षक इस स्थिति की व्याख्या ऐसे करते हैं कि दलबदल निरोधक कानून लागू होने के बाद जनप्रतिनिधि एक प्रकार से राजनीतिक दलों के ‘बंधुआ’ बनकर रह गए हैं। इसलिए बेहतर यही होगा कि जनता स्वयं इस मामले में जागरूक होकर राजनीतिक दलों को जिम्मेदार एवं जवाबदेह बनाने के लिए बाध्य करे। सभी दल हमारी राजनीतिक व्यवस्था से जुड़ी ढांचागत कमियों को दुरुस्त करने का काम करें और अर्से से लंबित राजनीतिक एवं चुनाव सुधारों की दिशा में कदम बढ़ाएं।
अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों से इस मामले में कोई सीख ली जा सकती है। हमारे राजनीतिक दल पश्चिम की सुगठित एवं सुव्यस्थित राजनीतिक व्यवस्था के सकारात्मक बिंदुओं को आत्मसात करते हुए आगे बढ़ सकते हैं। इसमें प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया से लेकर चुनावी फंडिंग और राजनीतिक समायोजन की व्यवस्था को बेहतर बनाया जा सकता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि पश्चिम के परिपक्व लोकतांत्रिक देशों में दलबदल जैसी कोई समस्या नहीं, लेकिन वह इतनी विकराल नहीं है। वहां नेताओं से लेकर राजनीतिक दल अपने वैचारिक आग्रह को लेकर खासे मुखर रहते हैं और विचारधारा की राजनीति ऐसी नहीं कि उसे एकाएक केंचुली की तरह बदल दिया जाए। जबकि भारत में विचारधारा की पालकी ढोने का दावा करने वाले नेता भी इस मामले में उसे कपड़ों की तरह बदल लेने से परहेज नहीं करते। ऐसे में यदि विचारधारा, आंतरिक लोकंतत्र और प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया को पारदर्शी बना दिया जाए तो दलबदल की बेलगाम होती समस्या पर एक बड़ी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है।
(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)