विचार : कौशल वाली शिक्षा ही बनाएगी देश को अग्रणी, क्या है चुनौती और अवसर?
2024 में एक औद्योगिक शहर में किए गए सर्वेक्षण ने इस तस्वीर को और स्पष्ट कर दिया। 10 हजार युवाओं में से केवल 12 प्रतिशत ने औपचारिक प्रशिक्षण लिया था और उनमें से भी अधिकांश को उम्मीद के अनुसार रोजगार नहीं मिला। यह केवल बेरोजगारी की कहानी नहीं है बल्कि प्रशिक्षण तंत्र की कमजोरी का आईना है।
राजीव शुक्ला। भारत विश्व की सबसे युवा जनसंख्या वाला देश है, जहां 65 प्रतिशत से अधिक नागरिक 35 वर्ष से कम आयु के हैं। यह जनसांख्यिकीय लाभांश भारत की आर्थिक प्रगति को नई ऊंचाइयों तक ले जाने की क्षमता रखता है। हमारे युवा तेज तर्रार हैं, लेकिन उनका आत्मविश्वास अक्सर नौकरी के मैदान में ठहर जाता है, क्योंकि उन्हें व्यावहारिक कौशल की कमी महसूस होती है। असल सवाल यही है कि क्या केवल डिग्री लेकर हम इस अवसर को भुना पाएंगे या फिर हमें दक्षता और व्यावसायिक योग्यता की ओर गंभीरता से बढ़ना होगा।
दुर्भाग्य से 2025 तक की तस्वीर बताती है कि देश के केवल सात प्रतिशत युवा ही औपचारिक कौशल प्रशिक्षण प्राप्त कर पाते हैं। जबकि जर्मनी, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों में यह अनुपात 70 से 90 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। यही वजह है कि वहां के युवाओं की रोजगार क्षमता और उत्पादकता भारत की तुलना में कहीं अधिक है। यह अंतर भारत के लिए गंभीर संकट का संकेत है। डिग्रियों से लैस युवाओं की बेरोजगारी इस खाई को साफ दिखाती है।
हमारे विश्वविद्यालयों से हर साल लाखों छात्र निकलते हैं, लेकिन उनमें से बड़ी संख्या ऐसी होती है जिनके पास न तो उद्योगों की अपेक्षाओं के अनुरूप तकनीकी दक्षता होती है और न ही आधुनिक कार्यस्थल के अनुकूल साफ स्किल्स। राष्ट्रीय कौशल विकास निगम और श्रम मंत्रालय के अनुसार लगभग 40 प्रतिशत स्नातक युवाओं के पास रोजगार पाने के लिए आवश्यक व्यावहारिक कौशल ही नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि डिग्री और नौकरी के बीच जो सेतु होना चाहिए था, उसे हमारी शिक्षा और प्रशिक्षण व्यवस्था ने खड़ा ही नहीं किया।
2024 में एक औद्योगिक शहर में किए गए सर्वेक्षण ने इस तस्वीर को और स्पष्ट कर दिया। 10 हजार युवाओं में से केवल 12 प्रतिशत ने औपचारिक प्रशिक्षण लिया था और उनमें से भी अधिकांश को उम्मीद के अनुसार रोजगार नहीं मिला। यह केवल बेरोजगारी की कहानी नहीं है, बल्कि प्रशिक्षण तंत्र की कमजोरी का आईना है। हमारे औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान प्रशिक्षकों की भारी कमी से जूझ रहे हैं। मशीनें पुरानी हैं, पाठ्यक्रम दशकों पुराने हैं और प्रशिक्षण पद्धति में न तो आधुनिक तकनीकी संसाधनों का इस्तेमाल है और न ही उद्योगों की मांग का ध्यान रखा जाता है। ऊपर से समाज में व्यावसायिक शिक्षा को अब भी ‘दूसरे दर्जे’ की पढ़ाई माना जाता है।
परिणाम यह होता है कि डिग्रीधारी छात्र भी नौकरी की कसौटी पर खरे नहीं उतर पाते। सरकार ने इस संकट को देखते हुए प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना और राष्ट्रीय कौशल विकास मिशन जैसी पहल की हैं। कागज पर ये योजनाएं बहुत आकर्षक दिखती हैं। इनका मकसद युवाओं को उद्योग-अनुकूल प्रशिक्षण देना और स्वरोजगार के लिए तैयार करना है। हालांकि जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी कहती है।
विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार लगभग 30 प्रतिशत प्रशिक्षित युवाओं को प्रशिक्षण के बाद भी रोजगार नहीं मिला और जिन्हें मिला वे अधिकतर अस्थायी और कम वेतन वाली नौकरियों में सिमट गए। यह इस बात का सुबूत है कि केवल प्रमाणपत्र थमा देना समाधान नहीं है। प्रशिक्षण की गुणवत्ता और उसका उद्योगों से जुड़ाव ही असली सफलता तय करेगा। ग्रामीण भारत में यह समस्या और गहरी है। अधिकांश योजनाएं शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित हैं। गांवों में प्रशिक्षण केंद्रों की संख्या बहुत कम है।
डिजिटल प्रशिक्षण कार्यक्रम इंटरनेट कनेक्टिविटी की कमी और तकनीकी साक्षरता की खाई के कारण पूरी तरह कारगर नहीं हो पाते। गांव का युवा चाहकर भी शहर जाकर प्रशिक्षण नहीं ले पाता, क्योंकि वहां पहुंचने के लिए न साधन होते हैं न संसाधन। इस असमानता को मिटाए बिना भारत का कौशल संकट दूर नहीं होगा। दुनिया के सफल अनुभव बताते हैं कि यह स्थिति बदली जा सकती है। जर्मनी का डुअल एजुकेशन सिस्टम इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। वहां छात्र पढ़ाई के साथ-साथ उद्योगों में व्यावहारिक प्रशिक्षण लेते हैं।
जापान की अप्रेंटिसशिप प्रणाली और चीन के ग्रामीण प्रशिक्षण केंद्रों ने भी यह साबित किया है कि यदि उद्योग और शिक्षा मिलकर चलें तो कौशल विकास स्वतः सशक्त हो सकता है। इन देशों की सफलता का आधार यही रहा है कि उन्होंने युवाओं को केवल किताबों तक सीमित नहीं किया, बल्कि उन्हें वास्तविक काम का अनुभव दिलाया। भारत को भी इसी राह पर चलना होगा।
समय की आवश्यकता है कि कौशल योजनाओं को एक केंद्रीकृत मंच पर लाना होगा, ताकि पारदर्शिता और समन्वय सुनिश्चित हो। प्रशिक्षकों को मानकीकृत प्रशिक्षण दिया जाए और उन्हें समय-समय पर अद्यतन किया जाए। पाठ्यक्रमों को उद्योग की जरूरत के अनुसार बदलना होगा और ग्रामीण क्षेत्रों को प्रशिक्षण केंद्रों के साथ जोड़ना होगा। मोबाइल प्रशिक्षण वैन, डिजिटल क्लास और स्थानीय उद्योगों के साथ साझेदारी इस दिशा में अहम कदम हो सकते हैं। साथ ही उद्योगों को भी पाठ्यक्रम निर्माण और इंटर्नशिप अवसर उपलब्ध कराने में सक्रिय भागीदार बनना होगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कौशल विकास को केवल नौकरी पाने तक सीमित न रखा जाए। आजीवन सीखने की संस्कृति युवाओं में विकसित करनी होगी। तकनीक इतनी तेजी से बदल रही है कि एक बार सीखा गया कौशल कुछ ही वर्षों में अप्रासंगिक हो जाता है। ऐसे में युवाओं को लगातार नए कौशल सीखते रहना होगा। आनलाइन प्लेटफार्म और माइक्रो-कोर्स इसमें सहायक बन सकते हैं।
भारत की युवा शक्ति तभी वास्तविक संपत्ति बनेगी, जब उसे केवल डिग्रियां नहीं, बल्कि दक्षता भी दी जाएगी। बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण सिर्फ नौकरियों की कमी नहीं, बल्कि युवाओं में उपयुक्त कौशल का अभाव है। यदि नीति-निर्माण और क्रियान्वयन में सुधार किए जाएं, प्रशिक्षण की गुणवत्ता बढ़ाई जाए और उद्योग-शिक्षा के बीच पुल बनाया जाए, तो भारत न केवल अपने युवाओं के लिए रोजगार सुनिश्चित कर सकेगा, बल्कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा में अग्रणी भी बन सकेगा।
(लेखक कांग्रेस सांसद एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)
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