विचार: उपराष्ट्रपति चुनाव में दक्षिण बनाम दक्षिण, राधाकृष्णन के सामने सुदर्शन
पिछले उपराष्ट्रपति चुनाव में लोकसभा में भाजपा के अपने ही 303 सांसद थेलेकिन 2024 के चुनाव के बाद यह संख्या सिकुड़कर 240 रह गई है। दो बार पूर्ण बहुमत की सत्ता के बाद भाजपा को गठबंधन के सहयोगियों पर आश्रित होकर सरकार चलानी पड़ रही है। इसलिए रेड्डी के जरिये वह भाजपा के दक्षिणी दांव की काट के साथ ही उसके राजनीतिक समर्थन में भी सेंधमारी की उम्मीद लगाए है।
राहुल वर्मा। पिछले महीने जगदीप धनखड़ के अचानक इस्तीफे से रिक्त हुए उपराष्ट्रपति पद के लिए 9 सितंबर को मतदान होना है। सत्तापक्ष और विपक्ष ने अपने-अपने उम्मीदवार भी तय कर लिए हैं। जहां भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग ने महाराष्ट्र के राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन को प्रत्याशी बनाया है, वहीं विपक्षी दलों के मोर्चे आइएनडीआइए ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी पर दांव लगाया है। वे आंध्र के हैं, जबकि सीपी राधाकृष्णन तमिलनाडु के। स्पष्ट है कि दक्षिण बनाम दक्षिण का यह मुकाबला कई पैमानों पर रोचक होने जा रहा है।
संवैधानिक व्यवस्था और आदर्श लोकतांत्रिक ढांचे में उपराष्ट्रपति से राजनीतिक रूप से निरपेक्ष एवं तटस्थ रहने की अपेक्षा होती है। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति जैसे पदों की शपथ भी इस मायने में कुछ अलग होती है। उसमें संविधान के प्रति निष्ठा जैसे अन्य-पहलुओं के साथ ‘संविधान की रक्षा’ के बिंदु पर भी जोर होता है। उपराष्ट्रपति केवल एक महत्वपूर्ण संवैधानिक पद ही नहीं, बल्कि उसके पास राज्यसभा के संचालन का दायित्व भी होता है। ऐसे में, राजनीतिक कारणों और विधायी एजेंडे की दृष्टि से सत्ता पक्ष के लिए इस पद की अहमियत और बढ़ जाती है। वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए इस चुनाव का महत्व भी काफी बढ़ गया है।
जब जगदीप धनखड़ ने इस्तीफा दिया था तब तात्कालिक रूप से यही कारण बताया गया कि स्वास्थ्य के आधार पर वे अपना पद छोड़ रहे हैं, लेकिन उसके बाद का घटनाक्रम दर्शाता है कि उनकी एकाएक विदाई के पीछे कुछ और कारण रहे। सार्वजनिक जीवन में धनखड़ की सक्रियता के एकदम सीमित हो जाने से भी इन संदेहों को बल मिला कि बात उतनी सीधी भी नहीं, जितनी बताई गई। कई विपक्षी राजनीतिक दलों ने धनखड़ द्वारा सार्वजनिक जीवन से एकाएक दूरी बनाए जाने को लेकर सवाल भी उठाए। अब इससे इन्कार करना मुश्किल है कि सत्तापक्ष के साथ असहज हुए राजनीतिक समीकरण ही धनखड़ के इस्तीफे का कारण बने। राजग के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार सीपी राधाकृष्णन के स्वागत समारोह में प्रधानमंत्री मोदी की यह टिप्पणी कि ‘वे राजनीतिक खेल नहीं करेंगे’, उन्हीं अटकलों को बल देती है कि धनखड़ और सरकार के बीच अविश्वास की खाई इतनी चौड़ी हो गई थी कि फिर कभी भर नहीं पाई।
दोनों खेमों के प्रत्याशियों पर नजर डालें तो प्रत्येक पक्ष ने बहुत संभलकर कदम बढ़ाए हैं। धनखड़ का भाजपा की मूल विचारधारा के साथ बहुत गहरा संबंध नहीं था और वह दूसरे दलों से होते हुई भाजपा में आए और पार्टी ने अपनी परंपरा से इतर उन्हें एक शीर्ष संवैधानिक पद पर बिठाया। उनके साथ हुए अनुभव से सबक लेते हुए भाजपा ने इस बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ाव रखने वाले अपने खांटी कार्यकर्ता सीपी राधाकृष्णन को उम्मीदवार बनाया है। उनके पास लंबा राजनीतिक अनुभव भी है। भाजपा के लिए अपेक्षाकृत अनुर्वर राजनीतिक भूमि तमिलनाडु से वे पार्टी के सांसद भी रहे हैं। प्रदेश अध्यक्ष के रूप में उनकी सक्रियता खासी चर्चित रही। उन्होंने केरल जैसे राज्य में चुनाव प्रभार का जिम्मा भी संभाला।
पहले झारखंड और फिर महाराष्ट्र में राज्यपाल भी रहे। उनके माध्यम से भाजपा कई निशाने साधने के प्रयास में है। तमिलनाडु में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। इससे पार्टी एक राजनीतिक संदेश देने का भी काम करेगी। राज्य में सत्तारूढ़ द्रमुक केंद्र सरकार को लेकर खासी आक्रामक रही है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, नीट परीक्षा, हिंदी भाषा एवं वित्तीय संसाधनों और संभावित लोकसभा परिसीमन के मुद्दे पर राज्य सरकार ने केंद्र और भाजपा को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ा। परिसीमन के मुद्दे पर तो दक्षिण के अन्य राज्यों को भी लामबंद करने का प्रयास किया। ऐसे में राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति बनाकर भाजपा ऐसे हमलों की धार कुंद करने की कोशिश करेगी।
विपक्षी खेमे ने भी भाजपा की इस रणनीति को भांपते हुए दक्षिण भारत से ही अपना उम्मीदवार बनाया। इसके जरिये उसने दोहरी व्यूह रचना की है। एक तो मुकाबले को दक्षिण बनाम दक्षिण करना और तमिल बनाम तेलुगु अस्मिता के जरिये राजग की सबसे बड़ी सहयोगी तेलुगु देसम पार्टी के समर्थन में सेंध लगाने की कोशिश। राज्यसभा में अक्सर राजग का समर्थन करने वाली जगनमोहन रेड्डी की पार्टी के लिए भी इससे दुविधा खड़ी हो सकती है। वैसे तो चंद्रबाबू नायडू और रेड्डी से विपक्षी खेमे को समर्थन का कोई आश्वासन नहीं मिला है, लेकिन तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी के बयानों से साफ है कि विपक्ष तेलुगु अस्मिता का मुद्दा खड़ा करने का प्रयास करेगा। हालांकि अगर तेलुगु अस्मिता के नाम पर नायडू और रेड्डी के समक्ष धर्मसंकट खड़ा करने का प्रयास होगा तो द्रमुक के मुखिया और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन को भी एक तमिल उम्मीदवार का पुरजोर विरोध करने की दुविधा घेरेगी। इस चुनाव के माध्यम से विपक्ष सरकार की उस कमजोर नस को दबाने में लगा है, जो पिछले आम चुनाव के बाद उभरी। यह कमजोरी है संसद में भाजपा का घटा आधार।
पिछले उपराष्ट्रपति चुनाव में लोकसभा में भाजपा के अपने ही 303 सांसद थे, लेकिन 2024 के चुनाव के बाद यह संख्या सिकुड़कर 240 रह गई है। दो बार पूर्ण बहुमत की सत्ता के बाद भाजपा को गठबंधन के सहयोगियों पर आश्रित होकर सरकार चलानी पड़ रही है। इसलिए रेड्डी के जरिये वह भाजपा के दक्षिणी दांव की काट के साथ ही उसके राजनीतिक समर्थन में भी सेंधमारी की उम्मीद लगाए है।
इसके बावजूद राधाकृष्णन के उपराष्ट्रपति बनने की राह में कोई खास कांटे नहीं दिख रहे हैं। सरकार उनके चुनाव को लेकर आश्वस्त है और आंकड़े भी पूरी तरह उसके पक्ष में हैं। हालांकि चुनाव के बाद नए उपराष्ट्रपति को काफी चुनौतियों के साथ जूझना होगा। इसमें सबसे बड़ी चुनौती उच्च सदन में विपक्ष को साथ लेकर चलने की होगी, जो चुनाव आयोग से लेकर तमाम मुद्दों पर सरकार के खिलाफ आक्रामक है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में फेलो हैं)
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