जागरण संपादकीय: गंभीर आपराधिक आरोपों में गिरफ्तारी के बाद पद छोड़ने वाली व्यवस्था पर इतना हंगामा क्यों?
अब स्थिति यह है कि नेतागण गंभीर मामलों में गिरफ्तार होने और जेल जाने पर भी इस्तीफा देने की जरूरत नहीं समझते। अब तो वे जेल से ही सरकार चलाने का दम भरते हैं और ऐसा कर भी चुके हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में अरविंद केजरीवाल ने ऐसा ही किया था।
गंभीर आपराधिक आरोपों में गिरफ्तार या हिरासत में लिए जाने पर प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्रियों और केंद्रशासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री या मंत्रियों को पद से हटाने के प्रविधान वाले विधेयकों पर लोकसभा में विपक्ष का जरूरत से ज्यादा हंगामा समझ नहीं आया। यह अच्छा हुआ कि गृहमंत्री अमित शाह ने अपनी ओर से इन विधेयकों को संसद की संयुक्त समिति को भेजने का प्रस्ताव रखा, जिसे लोकसभा अध्यक्ष ने स्वीकार भी कर लिया।
कम से कम अब तो विपक्ष को विरोध के सुर थाम कर इस पर विचार करना चाहिए कि आखिर ऐसी कोई व्यवस्था क्यों नहीं बननी चाहिए, जिससे उच्च पदों पर बैठे लोगों की गंभीर मामलों में गिरफ्तारी अथवा उन्हें हिरासत में लिए जाने पर उनके लिए पद छोड़ना आवश्यक हो जाए?
जो पहल की जा रही है, उसमें यह कहा गया है कि केंद्र सरकार अथवा केंद्रशासित प्रदेशों में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन लोगों को तब अपना पद छोड़ना होगा, जब उन्हें किसी संगीन मामले में गिरफ्तार किया जाता है अथवा हिरासत में लिया जाता है। यह रियायत दी गई है कि ऐसी स्थिति में इन व्यक्तियों को 30 दिनों के अंदर इस्तीफा देना होगा। इस समयसीमा के अंदर इस्तीफा न देने पर उन्हें स्वत: पदमुक्त माना जाएगा। आखिर ऐसी किसी व्यवस्था में समस्या क्या है?
क्या इसकी अनदेखी कर दी जाए कि महत्वपूर्ण पदों पर बैठे व्यक्तियों पर गंभीर आरोप लगते हैं और कई बार प्रथमदृष्ट्या वे सही भी दिखते हैं, लेकिन कोई इस्तीफा देने की पहल नहीं करता। एक समय ऐसा ही होता था। इस संदर्भ में गृहमंत्री अमित शाह ने स्वयं अपना उदाहरण दिया कि जब उन्हें गुजरात के मंत्री रहते गिरफ्तार किया गया था तो उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था। क्या ऐसा अन्य नेताओं को नहीं करना चाहिए?
एक वक्त यही परंपरा थी और इसका निर्वाह कई नेताओं ने किया। बतौर उदाहरण लालकृष्ण आडवाणी ने जैन हवाला कांड में अपना नाम आने पर लोकसभा से त्यागपत्र देने के साथ यह घोषणा भी की थी कि जब तक वे दोषमुक्त नहीं हो जाते, तब तक संसद नहीं लौटेंगे। उन्होंने ऐसा ही किया। ऐसे उदाहरण कुछ और नेताओं ने भी प्रस्तुत किए। अब स्थिति यह है कि नेतागण गंभीर मामलों में गिरफ्तार होने और जेल जाने पर भी इस्तीफा देने की जरूरत नहीं समझते।
अब तो वे जेल से ही सरकार चलाने का दम भरते हैं और ऐसा कर भी चुके हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में अरविंद केजरीवाल ने ऐसा ही किया था। जमानत मिलने के बाद वे तब इस्तीफा देने को बाध्य हुए, जब बतौर मुख्यमंत्री उनके लिए कार्य करना कठिन हो गया। क्या विपक्ष यह चाहता है कि राजनीति में शुचिता और नैतिकता की स्थापना के लिए कुछ भी न किया जाए?
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