जागरण संपादकीय: सुप्रीम कोर्ट का सही सवाल, जाम में फंसना और फिर भी टोल देने तो गलत होगा
बात केवल उन सड़कों पर लगने वाले जाम की ही नहीं है जिन पर टोल वसूला जाता है। देश भर में तमाम ऐसी सड़कों पर भी जाम लगता है जिन पर टोल वसूली नहीं होती। ये सड़कें भी लोगों के पैसे से ही बनती हैं। जाम से लोगों के कीमती वक्त की बर्बादी तो होती ही है लाखों लीटर पेट्रोलियम पदार्थ भी बर्बाद होता है।
केरल में एक व्यक्ति के जाम में फंसने और फिर भी टोल देने के मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण यानी एनएचएआइ से यह सही सवाल पूछा कि अगर घंटों जाम में फंस रहे हैं तो फिर टोल क्यों दें? सुप्रीम कोर्ट को इस मामले की सुनवाई इसलिए करनी पड़ी, क्योंकि केरल हाई कोर्ट ने इसी प्रकरण पर आदेश देते हुए यही कहा था कि आखिर ऐसे किसी व्यक्ति को टोल क्यों देना चाहिए, जो 11-12 घंटे जाम में फंसा हो?
यह आश्चर्य की बात है कि एनएचएआइ को केरल हाई कोर्ट का यह फैसला रास नहीं आया और उसने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना बेहतर समझा। समझना कठिन है कि एनएचएआइ इस मामले में हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट क्यों पहुंचा? इस प्रश्न पर भारत सरकार और विशेष रूप से राजमार्ग मंत्रालय को गंभीरता से विचार करना चाहिए।
क्या वह यह चाहता है कि लोग घंटों जाम में फंसे रहें, समय एवं ईंधन जाया करें और फिर भी टोल के रूप में पैसे चुकाएं? यह तो एक तरह की जबरदस्ती है। राष्ट्रीय राजमार्ग हों या फिर प्रांतीय राजमार्ग अथवा अन्य सड़कें, यदि किसी सड़क पर घंटों जाम लगता है तो फिर लोगों से निर्धारित टोल लेने के बजाय उन्हें राहत दी जानी चाहिए।
यह सही है कि सड़कें आर्थिक विकास का माध्यम हैं और देश की प्रगति के लिए अच्छी सड़कें चाहिए तथा उनका निर्माण एवं रखरखाव तभी संभव है, जब उन पर चलने वाले वाहन चालकों से टोल लिया जाए। ऐसा ही किया जा रहा है। इसमें हर्ज नहीं, लेकिन इसकी अनदेखी की जा रही है कि सड़कों पर जाम तो नहीं लग रहा है और मिनटों का सफर घंटों में तो नहीं तय हो रहा है?
बात केवल उन सड़कों पर लगने वाले जाम की ही नहीं है, जिन पर टोल वसूला जाता है। देश भर में तमाम ऐसी सड़कों पर भी जाम लगता है, जिन पर टोल वसूली नहीं होती। ये सड़कें भी लोगों के पैसे से ही बनती हैं। जाम से लोगों के कीमती वक्त की बर्बादी तो होती ही है, लाखों लीटर पेट्रोलियम पदार्थ भी बर्बाद होता है। यह उस संसाधन की बर्बादी है, जिसे आयात किया जाता है और जिस पर अच्छी-खासी विदेशी मुद्रा खर्च होती है।
होना तो यह चाहिए कि एनएचएआइ जाम विहीन यातायात सुनिश्चित करने के लिए सक्रियता दिखाए। यदि वह ऐसा करे तो राज्य सरकारें और उनकी एजेंसियां भी सक्रिय होंगी। यदि वही उलटी गंगा बहाएगा तो बात कैसे बनेगी? यह निराशाजनक है कि राजमार्गों एवं अन्य सड़कों के बेहतर निर्माण एवं रखरखाव और टोल वसूली की प्रक्रिया के सुगम तथा सुविधाजनक होने के दावे लोगों का मुंह चिढ़ाते दिखते हैं। आखिर इन दावों पर खरा उतरना इतना कठिन क्यों है?
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