जागरण संपादकीय: इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज पर सुप्रीम कोर्ट का यू-टर्न, क्या न्यायपालिका की प्रतिष्ठा प्रभावित?
अच्छा यह होगा कि इन प्रश्नों पर गंभीरता से विचार किया जाए क्योंकि कई बार ऐसी टिप्पणियां विवाद और अनावश्यक बहस का विषय बनती हैं। यह शुभ संकेत है कि सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान प्रधान न्यायाधीश न्यायपालिका की विसंगतियों को रेखांकित करने में लगे हुए हैं। उन्होंने कई विषयों पर दो टूक ढंग से अपनी बात कही है।
उच्चतर न्यायपालिका की प्रतिष्ठा के लिए यह ठीक नहीं कि सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक न्यायाधीश को आपराधिक मामलों की सुनवाई से रोकती है और फिर जब वहां के 13 जज इसका प्रतिवाद करते हैं तो वह अपना फैसला वापस ले लेता है। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश प्रशांत कुमार के खिलाफ दिए गए अपने आदेश को वापस लेते हुए यह कहा कि उसका इरादा उन्हें शर्मिंदा करने का नहीं था, लेकिन फैसले के वक्त जैसी टिप्पणियां की गई थीं, वे तो उनकी योग्यता और निष्ठा पर सवाल खड़े करने वाली थीं।
सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक कहा था कि ऐसा खराब और त्रुटिपूर्ण फैसला नहीं देखा? प्रश्न यह है कि अब वह कथित खराब फैसला खराब क्यों नहीं रहा? यह सामान्य बात नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले पर अपनी आपत्ति जताते हुए हाई कोर्ट के 13 न्यायाधीश अपने मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखें। यह ठीक है कि इस पत्र का संज्ञान लिया गया और उसके बाद चर्चा एवं विवाद का विषय बना सुप्रीम कोर्ट का फैसला वापस हो गया, लेकिन क्या इसी के साथ मामले का पटाक्षेप हो गया? शायद नहीं। जो भी हो, इस सवाल का जवाब मिलना ही चाहिए कि उच्चतर न्यायपालिका के न्यायाधीश किसी मामले की सुनवाई करते हुए जो टिप्पणियां करते हैं, वे कई बार उनके फैसलों का हिस्सा क्यों नहीं बनतीं?
कई बार किसी मामले की सुनवाई के दौरान की गईं तीखी टिप्पणियां कुछ और संदेश देती हैं और फैसला कुछ और कह रहा होता है। इससे भी बड़ी विडंबना यह कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से की गईं मौखिक टिप्पणियों को नजीर की तरह लिया जाता है। आखिर जो टिप्पणी फैसले का हिस्सा नहीं, उसे महत्व क्यों दिया जाना चाहिए? सबसे बड़ी बात कि ऐसी टिप्पणी होनी ही क्यों चाहिए?
अच्छा यह होगा कि इन प्रश्नों पर गंभीरता से विचार किया जाए, क्योंकि कई बार ऐसी टिप्पणियां विवाद और अनावश्यक बहस का विषय बनती हैं। यह शुभ संकेत है कि सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान प्रधान न्यायाधीश न्यायपालिका की विसंगतियों को रेखांकित करने में लगे हुए हैं। उन्होंने कई विषयों पर दो टूक ढंग से अपनी बात कही है। उनसे यही अपेक्षित है कि वे विसंगतियों को रेखांकित करने तक ही सीमित न रहें, बल्कि उन्हें दूर करने के लिए भी सक्रिय हों। उनकी सक्रियता के दायरे में उच्चतर न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति की विवादास्पद कोलेजियम व्यवस्था भी आनी चाहिए और महाभियोग की जटिल एवं लंबी प्रक्रिया भी। इसी जटिलता के कारण आज तक किसी जज के खिलाफ महाभियोग पारित नहीं हुआ। इसका यह मतलब नहीं कि उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप सही नहीं थे।
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