अमेरिकी आयात में चीन के घटे हिस्से का अधिक लाभ वियतनाम, ताइवान जैसे देशों को, निवेश से ही बढ़ेंगे भारत के अवसर
ऑक्सफोर्ड इकोनॉमिक्स ने एक रिपोर्ट में बताया है कि वर्ष 2017 से 2023 के दौरान अमेरिका के आयात में चीन का हिस्सा 8% घट कर 14% रह गया। वियतनाम का हिस्सा है 1.7% बढ़ कर 3.7% ताइवान का 1% बढ़ कर 2.5% और दक्षिण कोरिया का 0.7% बढ़कर 3.8% हुआ। लेकिन अमेरिका के आयात में भारत की हिस्सेदारी 0.6% बढ़ कर 2.7% हो सकी है।
एस.के. सिंह, नई दिल्ली। अमेरिका और चीन के बीच ट्रेड वार का भारत को फायदा हुआ है। पिछले पांच वर्षों में अमेरिका को भारत के निर्यात में 46% वृद्धि हुई, जबकि भारत का कुल निर्यात 40% से कम बढ़ा है। लेकिन ट्रेड वार शुरू होने पर जो उम्मीद थी कि अमेरिका के आयात में भारत बड़ी हिस्सेदारी बनाएगा और भारत के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को गति मिलेगी, वह नहीं हो सका है। वर्ष 2017 से 2023 के दौरान अमेरिका के आयात में चीन का हिस्सा 8% घट कर 14% रह गया, लेकिन उसका ज्यादा लाभ वियतनाम, ताइवान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों को हुआ है। ऑक्सफोर्ड इकोनॉमिक्स ने एक रिपोर्ट में बताया है कि वर्ष 2017 से 2023 के दौरान अमेरिका के आयात में वियतनाम का हिस्सा है 1.7% बढ़ कर 3.7%, ताइवान का 1% बढ़ कर 2.5% और दक्षिण कोरिया का 0.7% बढ़कर 3.8% हुआ। लेकिन अमेरिका के आयात में भारत की हिस्सेदारी 0.6% बढ़ कर 2.7% हो सकी है।
ऑक्सफोर्ड इकोनॉमिक्स के अर्थशास्त्रियों का आकलन है कि भारत के निर्यात में बढ़ोतरी मुख्य रूप से कमोडिटी और ओल्ड इकोनॉमी सेक्टर में हुई है। इनमें ग्रोथ की संभावना सीमित है और प्रतिस्पर्धा बहुत ज्यादा। अमेरिका के आयात में इनकी हिस्सेदारी भी कम है। वर्ष 2023 में अमेरिका के कुल आयात में टेक्सटाइल और कपड़े सिर्फ 5% थे। ईंधन और खनिजों का हिस्सा 1% से 2% था। टेक्सटाइल और कपड़ों में भारत को चीन के अलावा वियतनाम और बांग्लादेश से कड़ी प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है। ये देश अमेरिका के बाजार में हिस्सेदारी बढ़ाने में कामयाब रहे हैं।
भारत से अमेरिका को अधिक निर्यात वाले सेक्टर में वैल्यू एडिशन भी कम होता है। शायद यही कारण है कि भारत की अर्थव्यवस्था में मैन्युफैक्चरिंग की हिस्सेदारी स्थिर बनी हुई है। आसियान देशों की जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा 20% से 25% है जबकि 2023-24 में भारत के जीवीए में मैन्युफैक्चरिंग 17.3% थी।
अमेरिका के आयात में भारत ने मुख्य रूप से इलेक्ट्रॉनिक्स में हिस्सेदारी बढ़ाई है। वर्ष 2017 की तुलना में पिछले वर्ष अमेरिका के इलेक्ट्रॉनिक्स आयात में चीन का हिस्सा 19% घट गया। हालांकि इस दौरान भारत का हिस्सा 10 गुना बढ़ने के बावजूद 2.1% ही हो सका है। अमेरिका का इलेक्ट्रॉनिक्स बाजार काफी बड़ा है। वर्ष 2023 में उसने 477 अरब डॉलर के इलेक्ट्रॉनिक्स का आयात किया था। यह अमेरिका के कुल आयात का 15% था।
सरकार के प्रयासों से भारत के कुल निर्यात में इलेक्ट्रॉनिक्स की हिस्सेदारी बढ़ रही है। इसके बावजूद अमेरिका के बाजार में भारत का शेयर बहुत कम है। भारत के इलेक्ट्रॉनिक्स निर्यात में स्मार्टफोन ज्यादा है। सेमीकंडक्टर जैसे अत्याधुनिक इलेक्ट्रॉनिक गुड्स में दक्षिण कोरिया और ताइवान काफी आगे हैं। चीन अब भी अमेरिका का सबसे बड़ा इलेक्ट्रॉनिक्स सप्लायर बना हुआ है। अमेरिका ने 2023 में 27% इलेक्ट्रॉनिक्स चीन से ही खरीदा। चीन का हिस्सा घटने का ज्यादा फायदा वियतनाम और ताइवान को मिला है। वियतनाम के हिस्सेदारी 7.2% बढ़ कर 10.1% और ताइवान की 6.4% बढ़ कर 10.4% हो गई। अमेरिका के इलेक्ट्रॉनिक्स बाजार में मलेशिया और थाईलैंड का शेयर भी भारत के दोगुना से ज्यादा, लगभग 5.5% है।
भारत का इलेक्ट्रॉनिक्स आयात भी बढ़ा
भारत से इलेक्ट्रॉनिक्स निर्यात में जो बढ़ोतरी हुई, उसमें घरेलू वैल्यू एडिशन बहुत कम है। प्रोडक्ट की डिमांड की तुलना में भारत में इंटरमीडिएट गुड्स का उत्पादन बढ़ने की दर कम है। इसकी भरपाई कंपोनेंट के आयात से होती है जो ज्यादातर चीन से आता है। प्रमुख इंडस्ट्रियल सेक्टर में भी भारत के लिए चीन आयात का सबसे बड़ा स्रोत है। इलेक्ट्रॉनिक्स, मशीनरी और केमिकल तथा फार्मा मूल्य के लिहाज से तीन सबसे बड़े आयात सेक्टर हैं और इनका लगभग एक-तिहाई आयात चीन से होता है। सेमीकंडक्टर डिवाइस जैसे कुछ खास कंपोनेंट के आयात में चीन का हिस्सा 67% तक है।
इलेक्ट्रॉनिक इंडस्ट्रीज एसोसिएशन ऑफ इंडिया (ELCINA) के मुताबिक भारत में अलग-अलग सेगमेंट में असेंबलिंग तो बढ़ी है, लेकिन अब भी 60% से अधिक कंपोनेंट आयात किए जाते हैं और ज्यादा आयात चीन से ही होता है। इंडस्ट्री चैंबर सीआईआई ने भी एक रिपोर्ट में कहा है कि रक्षा, इलेक्ट्रॉनिक्स, सेमीकंडक्टर और अन्य एडवांस मैन्युफैक्चरिंग में दुर्लभ खनिजों (क्रिटिकल मिनरल) का काफी महत्व है। लेकिन इन खनिजों के मामले में भारत काफी हद तक आयात पर निर्भर है, वह भी चीन पर।
चीन-अमेरिका टैरिफ वार
चीन पर निर्भरता कम करने के लिए अमेरिका और यूरोप के देशों ने ‘चाइना प्लस वन’ की नीति तो 2013 में ही शुरू की थी, लेकिन इसमें तेजी पिछले पांच साल में आई है। डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति काल में अमेरिका ने 2018 और 2019 में चीन से आयात पर शुल्क बढ़ाया था। उसके बाद दोनों देशों के बीच ट्रेड वार शुरू हो गई। ट्रेड वार से पहले अमेरिका में चीन से सिर्फ 0.8% आयात पर टैरिफ लगता था, जो बाद में 60% से अधिक हो गया। ट्रंप प्रशासन ने टैरिफ और बढ़ाने की चेतावनी दी थी, लेकिन 2020 की शुरुआत में दोनों देशों के बीच बातचीत के बाद कुछ वस्तुओं पर टैरिफ कम कर दिया गया। हालांकि ज्यादातर वस्तुओं पर बढ़ा हुआ टैरिफ बरकरार है।
ऑक्सफोर्ड इकोनॉमिक्स के अनुसार वर्ष 2017 से 2023 के दौरान अमेरिका के आयात में चीन का हिस्सा 8% घट कर 14% रह गया। उस समय राष्ट्रपति ट्रंप ने जो टैरिफ लगाने की घोषणा की थी, अगर वे पूरी तरह लगाए जाते तो चीन का हिस्सा घट कर 4% रह जाता। अमेरिका ने चीन पर निर्भरता लगभग हर क्षेत्र में कम की है।
अमेरिकी कंपनियों के लिए चीन से सामान मंगवाना महंगा हुआ तो वे दूसरे देशों में विकल्प तलाशने लगीं। इसकी काट के तौर पर चाइनीज कंपनियों ने दक्षिण-पूर्व एशिया और मेक्सिको के जरिए अमेरिका को निर्यात का रास्ता अपनाया। ट्रेड वार के बाद अमेरिका को चीन से सीधे निर्यात में जितनी गिरावट आई, इन देशों को निर्यात में उतनी ही वृद्धि हुई है। इन देशों से अमेरिका को निर्यात भी लगभग उतना ही बढ़ा है। चीन के निर्यात में आसियान देशों और मेक्सिको का हिस्सा करीब 13% और अमेरिका का 17% था। अब अमेरिका का हिस्सा 15% से कम हो गया है, लेकिन आसियान देशों और मेक्सिको का 18% हो गया है। चीन की जगह अब मेक्सिको अमेरिका को निर्यात करने वाला सबसे बड़ा देश बन गया है।
भारत से अमेरिका को निर्यात
निर्यात पोर्टल पर दी जानकारी के अनुसार 2017-18 में भारत से अमेरिका को 47.88 अरब डॉलर के कुल निर्यात में इलेक्ट्रॉनिक्स का हिस्सा 2.06% (98.6 करोड़ डॉलर) और बाकी मर्केंडाइज गुड्स का 76.25% था। कुल निर्यात 2023-24 में बढ़ कर 77.52 अरब डॉलर हो गया, जिसमें इलेक्ट्रॉनिक्स की हिस्सेदारी बढ़ कर 12.96% (10 अरब डॉलर) हो गई जबकि बाकी मर्केंडाइज गुड्स की 69.55% रही। मौजूदा वित्त वर्ष में सितंबर तक भारत ने अमेरिका को 40.38 अरब डॉलर का निर्यात किया। इसमें इलेक्ट्रॉनिक्स 12.68% ( 51.19 करोड़ डॉलर) और बाकी मर्केंडाइज गुड्स 68.86% हैं। यहां बाकी मर्केंडाइज गुड्स में इंजीनियरिंग गुड्स, जेम्स-ज्वैलरी, फार्मा, रेडीमेड गारमेंट, पेट्रोलियम, मैनमेड यार्न-फैब्रिक, केमिकल्स, लेदर और प्लास्टिक को शामिल किया गया है।
वर्ष 2017-18 से 2023-24 तक भारत से अमेरिका को कुल निर्यात तो करीब 12% बढ़ा, लेकिन फैक्टरी में बनी सभी वस्तुओं का प्रदर्शन समान नहीं रहा। जेम्स-ज्वैलरी के निर्यात में तो गिरावट आई है। रेडीमेड गारमेंट और लेदर गुड्स जैसे अधिक रोजगार वाले सेक्टर का निर्यात तुलनात्मक रूप से कम बढ़ा है। इंजीनियरिंग गुड्स, फार्मा, केमिकल और मैनमेड फाइबर-यार्न के निर्यात में वृद्धि की दर कुल निर्यात वृद्धि के आसपास रही है। पेट्रोलियम उत्पादों और प्लास्टिक के निर्यात में इस दौरान 100% से ज्यादा वृद्धि हुई जबकि इलेक्ट्रॉनिक्स निर्यात 919% बढ़ा है।
प्रोडक्ट की हिस्सेदारी के लिहाज से देखें तो कुल निर्यात में इलेक्ट्रॉनिक गुड्स का हिस्सा 2.06% से छह गुना से ज्यादा बढ़ कर 12.96% पर पहुंचा है। इंजीनियरिंग गुड्स, फार्मा केमिकल, मैनमेड फाइबर-यार्न का हिस्सा लगभग स्थिर है। लेकिन कुल निर्यात में जेम्स-ज्वैलरी की हिस्सेदारी 20.92% से घट कर 12.78% रह गई है। रेडीमेड गारमेंट और लेदर उत्पादों की हिस्सेदारी भी कम हुई है।
मैन्युफैक्चरिंग में निवेश की जरूरत
मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में आयात पर निर्भरता कम करने के लिए सप्लाई चेन में बड़े पैमाने पर निवेश चाहिए। चीन में एफडीआई का फ्लो कम होने के बावजूद भारत अभी तक बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश आकर्षित नहीं कर पाया है। ऑक्सफोर्ड इकोनॉमिक्स में मैक्रो फोरकास्टिंग और एनालिसिस विभाग की लीड इकोनॉमिस्ट अलेक्जेंड्रा हरमन ने जागरण प्राइम से कहा, “हमारा मानना है कि भारत को घरेलू स्तर पर कंपोनेंट उत्पादन और सप्लाई चेन मजबूत करने की जरूरत है। इसके लिए घरेलू और विदेशी दोनों स्रोतों से मैन्युफैक्चरिंग में व्यापक निवेश की आवश्यकता होगी। फिलहाल ढांचागत बाधाएं और नौकरशाही इसमें बड़ी अड़चन हैं। खासकर जब जमीन और श्रम नियमों का मामला हो।”
चीन-अमेरिका के बीच तनाव बढ़ने के बाद कई विदेशी कंपनियां भारत में निवेश कर रही हैं। लेकिन ऑक्सफोर्ड इकोनॉमिक्स के अनुसार ज्यादा मौका चीन से निवेश आकर्षित करने में है। चीन में घरेलू मांग कमजोर पड़ने और वैश्विक स्तर पर ट्रेड बैरियर का सामना करने की वजह से चाइनीज कंपनियां दूसरे देशों में अपनी मौजूदगी बढ़ाने की संभावनाएं तलाश रही हैं।
निवेश की जरूरत हर क्षेत्र में है। दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के सीनियर प्रोफेसर सुरेंद्र कुमार कहते हैं, “टेक्नोलॉजी इतनी डेवलप हो गई है कि पुराने तरीके से आप प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते। हमें एक तरफ सेमीकंडक्टर या डिफेंस जैसे आधुनिक क्षेत्र में जाना पड़ेगा, तो दूसरी तरफ फूड प्रोसेसिंग जैसी श्रम-सघन इंडस्ट्री को साथ लेकर चलना पड़ेगा।”
दूसरे देशों से प्रतिस्पर्धा के लिए टेक्नोलॉजी की जरूरत है जिसमें भारत काफी हद तक आयात पर निर्भर है। ग्लोबल रिसर्च फर्म नेटिक्सिस की चीफ इकोनॉमिस्ट (एशिया पैसिफिक) एलिसिया गार्सिया हेरेरो कहती हैं, “भारत पेटेंट के मामले में चीन, यूरोपियन यूनियन या अमेरिका की तुलना में बहुत पीछे है। इनोवेशन में छलांग लगाने के लिए भारत को गठजोड़ करने की जरूरत है।”
फिलहाल सेमीकंडक्टर डिजाइन में भारत मजबूत है क्योंकि 20% सेमीकंडक्टर डिजाइन इंजीनियर यहीं हैं। लेकिन ज्यादातर भारतीय इंजीनियर स्टार्टअप और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए काम करते हैं, इसलिए देश के स्तर पर इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी नहीं बन पाती है। सेमीकंडक्टर डिजाइन में खर्च भी बहुत होता है।
भारत के लिए अब भी अवसर
वर्ष 2018 में ट्रंप के टैरिफ को अमेरिकी कंपनियां अस्थायी मान रही थीं। लेकिन उस समय लगाए गए ज्यादातर टैरिफ बाइडेन के समय भी जारी हैं। बल्कि इन्फ्लेशन रिडक्शन एक्ट के तहत बाइडेन ने चीन के खिलाफ व्यापार बाधाएं बढ़ाई ही हैं। चाइनीज इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए तो अमेरिका का बाजार लगभग बंद हो गया है। यूरोपियन यूनियन भी अगले महीने चीन के ईवी पर टैरिफ बढ़ाने वाला है। दूसरा टैरिफ वार शुरू हुआ तो पश्चिम की मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों के चीन से बाहर निकलने की गति बढ़ सकती है। चाइनीज कंपनियां भी अपने प्लांट दूसरे देशों में लेकर जा सकती हैं।
हाल में एपल, फॉक्सकॉन, सैमसंग समेत अनेक वैश्विक कंपनियों ने भारत में अपने प्लांट लगाए हैं या उनका विस्तार किया है, लेकिन यह भारत की क्षमता की तुलना में बहुत कम है। जापानी इन्वेस्टमेंट बैंक नोमुरा के अनुसार अप्रैल 2018 से अगस्त 2019 के दौरान 56 कंपनियां चीन से बाहर गईं, जिनमें से सिर्फ तीन भारत आईं, 26 कंपनियां वियतनाम, 11 ताइवान, 8 थाईलैंड और दो इंडोनेशिया गईं। बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप के 2023 के एक सर्वेक्षण में उत्तर अमेरिका की 90% से अधिक मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों ने बताया कि उन्होंने चीन से उत्पादन कुछ हद तक या पूरी तरह से दूसरे देशों में स्थानांतरित कर दिया है।
आगे भारत में निवेश बढ़ने की संभावना अधिक है। एलिसिया कहती हैं, “मुझे लगता है कि आने वाले समय में सप्लाई चेन में बदलाव होने पर वियतनाम से ज्यादा फायदा भारत को होगा।” उनके मुताबिक वियतनाम से निर्यात में चाइनीज कंटेंट बहुत होता है। अगर उसने इसे कम नहीं किया तो उसके लिए अमेरिकी टैरिफ से बचना मुश्किल होगा। दूसरी ओर, वियतनाम के लिए ऐसा करना भी मुश्किल है। भारत के लिए चीन से अलग सप्लाई चेन विकसित करना आसान है।
भारत के पास बड़ी इकोनॉमी होने का भी फायदा है। वियतनाम जैसे देश आकार में बहुत छोटे हैं। वे पूरी तरह चीन की जगह नहीं ले सकते हैं। यह भारत ही कर सकता है। इसके पास युवा आबादी का लाभ होने के साथ टैलेंट भी है। यहां मजदूरी भी तुलनात्मक रूप से कम है। शायद यही कारण है कि सैमसंग, पेगाट्रॉन, राइजिंग स्टार और विस्ट्रॉन ने बड़े निवेश की घोषणा की है। 2023 में फॉक्सकॉन ने भारत में 100 अरब डॉलर के ऐतिहासिक निवेश की प्रतिबद्धता जताई। एप्पल ने 2030 तक अपने कुल आईफोन उत्पादन का एक-चौथाई हिस्सा भारत में तैयार करने की योजना बनाई है।
सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री के लिए 76,000 करोड़ रुपये की इन्सेंटिव योजना के बाद इसमें भी बड़े निवेश हो रहे हैं। भारत का पहला सेमीकंडक्टर फैब्रिकेशन प्लांट गुजरात के धोलेरा में टाटा समूह ताइवान की पावरचिप (PSMC) के साथ साझेदारी में स्थापित कर रहा है। टाटा ग्रुप असम में एक चिप असेंबली प्लांट भी स्थापित कर रहा है। इसके अलावा गुजरात के साणंद में सीजी पावर, जापान की रेनेसेस इलेक्ट्रॉनिक्स के साथ साझेदारी में एक चिप पैकेजिंग प्लांट स्थापित करेगी। अमेरिकी सेमीकंडक्टर कंपनियों माइक्रोन, एएमडी और एप्लाइड मैटेरियल्स ने भी भारत में महत्वपूर्ण निवेश की घोषणा की है।
भारत के सामने चुनौतियां भी
टेक्नोलॉजी सेक्टर में भी भारत के सामने चुनौतियां हैं। एक चुनौती तो कड़ी प्रतिस्पर्धा की है। चिप जैसे हाइटेक क्षेत्र में भारत ने देर से प्रवेश किया है। ताइवान और दक्षिण कोरिया जैसे देश वर्षों से इसमें हैं। मलेशिया जैसे अन्य देशों ने भी चिप बनाने की दौड़ में शुरुआती बढ़त हासिल कर ली है। भारत की तरह सिंगापुर भी इन्सेंटिव देकर विदेशी कंपनियों को आकर्षित करने का प्रयास कर रहा है।
एक और बड़ी चुनौती आयात पर निर्भरता कम करने की है। स्मार्टफोन और चिप बनाने में इस्तेमाल होने वाले दुर्लभ खनिजों समेत लगभग 85% कच्चा माल आयात करना पड़ता है। भारत की स्मार्टफोन मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री मुख्य रूप से कंपोनेंट असेंबली पर आधारित है। डिस्प्ले स्क्रीन, कैमरे, बैटरी पैक जैसे हिस्सों को जोड़कर पूरा फोन तैयार किया जाता है। यह असेंबलिंग कंपोनेंट आयात पर निर्भर करती है। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत कॉम्प्रिहेंसिव एंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट फॉर ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप या रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसेप) जैसे व्यापार समझौतों का हिस्सा नहीं है। इस पार्टनरशिप में शामिल होने पर कच्चे माल की अधिक और विश्वसनीय आपूर्ति हो सकती है तथा आयात की लागत भी कम हो सकती है।
ऑक्सफोर्ड इकोनॉमिक्स की अलेक्जेंड्रा के मुताबिक भारत के मैनपावर में कौशल की कमी भी अवसरों को भुनाने में बाधक बन रही है। एनरोलमेंट का कुल उत्तर ऊंचा है लेकिन शिक्षा की क्वालिटी प्रतिस्पर्धी देशों की तुलना में पीछे है। जीडीपी की तुलना में शिक्षा पर केंद्र और राज्य सरकारों का खर्च वर्षों से स्थिर बना हुआ है।
सरकार ने अगस्त 2023 में लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया कि वर्ष 2020-21 में जीडीपी का 4.64% शिक्षा पर खर्च किया गया था। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इसे बढ़ा कर 6% करने की सिफारिश की गई है। क्वालिटी शिक्षा की जरूरत का अंदाजा एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (ASER) से मिलता है, जिसके मुताबिक 14 से 18 साल की उम्र के 40% बच्चे दूसरी कक्षा की पढ़ाई नहीं कर सकते। स्किलिंग पर भी जोर देने की जरूरत है। एसएंडपी ग्लोबल मार्केट इंटेलिजेंस का कहना है कि विशाल कामकाजी आबादी भारत को डिजाइन और मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने में मदद कर सकती है। लेकिन इसके लिए श्रमिकों की स्किलिंग क्षमता बढ़ाने की जरूरत है।