दस रिपोर्ट्स और एक्सपर्ट्स से जानिए प्रदूषण की असल वजह, भौगोलिक स्थिति, इंवर्जन लेयर, वाहन और पराली है प्रमुख वजह
सीएसई की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में लगभग 6 महीने मौसम में बहुत अधिक बदलाव नहीं होता। मौसम स्थिर रहता है और हवा की गति धीमी रहती है। दिल्ली में 1990 के दशक में ग्लोबलाइजेशन के बाद गाड़ियों की संख्या तेजी से बढ़ी। 1998 से 2008 के बीच बड़ी संख्या में बसों और गाड़ियों को सीएनजी में बदले जाने के बाद प्रदूषण के स्तर में कुछ कमी आई।
नई दिल्ली, अनुराग मिश्र/विवेक तिवारी
दिल्ली-एनसीआर गैस चैंबर में तब्दील हो चुका है। ग्रैप-4 लागू होने के बावजूद भी प्रदूषण की वजह से आम आदमी का सांस लेना भी दूभर है। स्कूल-कॉलेज फिलहाल ऑनलाइन माध्यम से संचालित किए जा रहे हैं। रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुके प्रदूषण के दिल्ली-एनसीआर में लगातार बढ़ने के पीछे भौगोलिक स्थिति के साथ-साथ पड़ोसी राज्यों से आने वाला प्रदूषण, पराली का धुआं, गाड़ियों और निर्माण कार्य से होने वाला प्रदूषण बड़े कारणों में से एक है। विशेषज्ञों मानते हैं कि ये प्रदूषण की समस्या कई दशकों के अनियंत्रित विकास और पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ का परिणाम है। ऐसे में वायु प्रदूषण की मुख्य वजहों को समझने के साथ ही चरणबद्ध तरीके से इस समस्या के समाधान के लिए कदम उठाने होंगे। जागरण प्राइम ने इस समस्या के विभिन्न घटकों को समझने के लिए वायु प्रदूषण पर दिल्ली-एनसीआर को लेकर हुए दस प्रमुख और प्रमाणिक शोध और रिपोर्ट्स का अध्ययन किया। साथ ही इस मुद्दे को बारीकी से समझने वालों से विस्तार से बात की।
हमने वैज्ञानिक, शोधकर्ताओं और चिकित्सकों से कुछ अहम सवालों को जानने की कोशिश की। जिसमें आखिर दिल्ली में बीते एक से दो दशकों में प्रदूषण का स्तर क्यों बढ़ जाता है साथ ही अक्तूबर-नवंबर के दौरान में दिल्ली की हवा दमघोंटू क्यों हो जाती है ? हमने यह भी जाना कि क्या यह प्रक्रिया पूरी तरह से भौगोलिक स्थिति की वजह से हैं या फिर इसमें अन्य कारकों की भूमिका भी कितनी अहम है ? डॉक्टरों से हमने यह पूछा कि प्रदूषण का आमजन के स्वास्थ्य पर कितना गहरा असर पड़ता है, वहीं क्या कुछ देर प्रदूषित हवा में रहने पर ही आम आदमी की सेहत गड़बड़ा सकती है ?
सीएसई की रिपोर्ट - दो दशकों में इन कारकों से बढ़ा प्रदूषण, लगातार बढ़ रहा पीएम 2.5 का स्तर
सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरमेंट (सीएसई) के प्रिंसिपल प्रोगाम मैनेजर, विवेक चट्टोपाध्याय कहते हैं कि सीएसई की रिपोर्ट में सामने आया है कि दिल्ली में लगभग 6 महीने मौसम में बहुत अधिक बदलाव नहीं होता। मौसम स्थिर रहता है और हवा की गति धीमी रहती है। दिल्ली में 1990 के दशक में ग्लोबलाइजेशन के बाद गाड़ियों की संख्या तेजी से बढ़ी इससे प्रदूषण की समस्या भी बढ़ी। 1998 से 2008 के बीच बड़ी संख्या में बसों और गाड़ियों को सीएनजी में बदले जाने के बाद प्रदूषण के स्तर में कुछ कमी आई। रिकॉर्ड से मुताबिक 2010-2011 के करीब दिल्ली की हवा में पीएम 10 की मात्रा 200 से 250 के बीच रहती थी। दिल्ली में 2010-2011 से पीएम 2.5 के स्तर को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) और वायु गुणवत्ता एवं मौसम पूर्वानुमान प्रणाली (सफर) ने रिकॉर्ड करना शुरू किया। इसके बाद लोगों को खराब होते हालात का अंदाजा मिला। सीएसई ने अपने एक अध्ययन में पाया है कि 2018 से 2024 के बीच अक्तूबर से जनवरी के बीच दिल्ली में हवा में प्रदूषण का स्तर खराब या बहुत खराब श्रेणी में ही रहता है। अध्ययन में ये भी पाया गया कि सरकार और संस्थाओं की ओर से प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए किए जाने वाले प्रयासों से खराब या बेहद खराब प्रदूषण वाले दिनों में तो कमी आई है लेकिन प्रदूषण वाले दिनों में बढ़ोतरी हुई है। इन दिनों में पीएम 2.5 का हवा में औसत स्तर 180 से 190 के बीच दर्ज किया गया। मानकों के तहत हवा में इसका स्तर 60 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से ज्यादा नहीं होना चाहिए।
प्रदूषण में गाड़ियों के धु्एं की हिस्सेदारी 15 फीसद- साइंस डायरेक्ट में प्रकाशित शोध
रिसर्च जर्नल साइंस डायरेक्ट में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक 1990 के दशक में सरकार की वैश्वीकरण और उदारीकरण की नीतियों ने 1980-1981 से 2003-2004 तक सड़क वाहनों की संख्या में लगभग 92.6% की वृद्धि की है। ये वाहन मुख्य रूप से गैर-नवीकरणीय जीवाश्म ईंधन का उपभोग करते हैं, और ग्रीन हाउस गैसों, विशेष रूप से CO2 उत्सर्जन में प्रमुख योगदानकर्ता हैं । भारत में, परिवहन क्षेत्र अनुमानित 258.10 टीजी CO2 उत्सर्जित करता है , जिसमें से 94.5% योगदान सड़क परिवहन (2003-2004) का था। दिल्ली के वायु प्रदूषण के लिए गाड़ियों का धुआं सबसे बड़ा कारण हैं। पूरे साल दिल्ली के वायु प्रदूषण में गाड़ियों के धुएं की हिस्सेदारी औसतन 10 से 15 फीसदी तक रहती है। दिल्ली में लगभग 1.3 करोड़ वाहन हैं। इनके अलावा रोज लगभग एक मिलियन ट्रिप एसीआर की गाड़ियां दिल्ली में लगाती हैं। इन गाड़ियों के चलने वे निकलने वाला धुआं और उड़ने वाली धूल के चलते पूरे साल में दिल्ली के प्रदूषण में इनकी हिस्सेदारी काफी बढ़ जाती है। वाहनों की संख्या में तीव्र वृद्धि के परिणामस्वरूप वाहनों द्वारा उत्सर्जित प्रदूषकों में भी वृद्धि हुई है। दिल्ली में पंजीकृत वाहनों में 66% हिस्सा दोपहिया वाहनों का है, जो वायु प्रदूषण का प्रमुख स्रोत हैं।
आईआईटी कानपुर रिपोर्ट : निर्माण कार्य की हिस्सेदारी अहम
दिल्ली सरकार की ओर से आईआईटी कानपुर से दिल्ली में प्रदूषण के स्रोतों पर कराए गए एक अध्ययन में पाया गया कि दिल्ली की हवा में पीएम 10 की लगभग 56 फीसदी हिस्सेदारी निर्माण कार्यों की है। इसमें मुख्य रूप से कंस्ट्रक्शन और डिमॉलीशन वर्क है। वहीं दूसरी सबसे बड़ी लगभग 10 फीसदी की हिस्सेदारी उद्योगों की है। वहीं तीसरे स्तर पर लगभग 9 फीसदी के साथ गाड़ियों का धुआं है। वहीं अगर हम पीएम 2.5 की बात करें तो यहां भी 38 फीसदी के साथ पहले नम्बर पर कंस्ट्रक्चर और डिमॉलीशन ही है। दूसरे नम्बर पर 20 फीसदी के साथ गाड़ियों का धुआं है।
पराली का धुआं भी बड़ी वजह- आईआरआरआई का अध्ययन
दिल्ली में प्रदूषण का तीसरा सबसे बड़ा कारण पराली के धुएं को माना जा रहा है। दरअसल पराली का धुएं एक नीतिगत बदलाव का परिणाम हैं। पंजाब और हरियाणा मूल रूप से गेहूं का उत्पादन करने वाले राज्य हैं। लेकिन हरित क्रांति के बाद यहां बड़े पैमाने पर धान का उत्पादन शुरू हुआ। ये यहां एक कैश क्रॉप के तौर पर लगाया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (आईआरआरआई) ने अपने अध्ययन में पाया कि एक किलोग्राम चावल पैदा करने में लगभग 500 लीटर से 1,000 लीटर तक पानी खर्च होता है। ऐसे में पंजाब और हरियाणा में भूगर्भजल संकट पैदा होने लगा। इसको देखते हुए पंजाब सरकार ने एक नीतिगत फैसला 2009 में लिया। 2009 में, पंजाब सबसॉइल वाटर संरक्षण अधिनियम पारित किया, जिसके तहत सरकार द्वारा घोषित तिथि से पहले चावल की बुवाई पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कानून के अनुसार भूगर्भजल संरक्षण के लिए धान की रोपाई 10 जून के बाद किए जाने के निर्देश दिए गए। ऐसे में किसानों के पास धान काट कर फसल लगाने के लिए काफी कम समय बचने लगा। वहीं हारवेस्टर आने के बाद धान काट कर खेत खाली करने के लिए किसानों ने पराली में आग लगाना शुरू कर दिया। सरकार कई तरह के प्रयास कर रही है कि किसान पराली में आग न लगाएं। लेकिन जुर्माने और अन्य कई तरह के प्रोत्साहन के बावजूद सरकार अब तक इस प्रयास में पूरी तरह सफल नहीं हो सकी है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और निकटवर्ती क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग में इंडस्ट्री के प्रतिनिधि एवं सदस्य श्याम कृष्ण गुप्ता कहते हैं कि पराली जलाने की घटनाएं पहले की तुलना में घटी हैं। लेकिन इन पर पूरी तरह से लगाम नहीं लगी है। ये स्पष्ट है कि राज्य सरकारें कहीं न कहीं इन घटनाओं को रोकने में सफल नहीं हो पा रहीं हैं। पराली जलाने की घटनाएं रोकने के लिए हमें स्थानीय समाधान खोजने होंगे। हमें ऐसे हारवेस्टर तैयार करने होंगे जिनसे अनाज के साथ पराली भी काट ली जाए। कुछ इस तरह की व्यवस्था करनी होगी कि किसानों को पराली के दाम मिल सकें। या सरकार अपने खर्च पर पराली को काट कर इसको किसी इंडस्ट्री को दे सके। वहीं पराली की घटनाओं पर लगाम लगाने के साथ ही हमें स्थानीय प्रदूषण पर लगाम लगाने के बारे में भी सोचना होगा। सड़क की धूल और गाड़ियों के धुएं पर लगाम लगाए जाने से प्रदूषण की समस्या से काफी हद तक राहत मिल सकती है।
तीन अध्ययन रिपोर्ट बता रही दिल, किडनी, लीवर से लेकर कई अंगों को नुकसान पहुंचा रहा प्रदूषण
इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) वर्ल्ड हार्ट फेडरेशन, जयदेव इंस्टीट्यूट ऑफ कार्डियोवॉस्कुलर साइंसेज एंड रिसर्च की रिपोर्ट बताती है कि प्रदूषण स्वास्थ्य के लिए जानलेवा है। यह बीमारी से जूझ रहे लोगों के लिए तो जानलेवा है तो वहीं स्वस्थ लोगों की जीवन प्रत्याशा दर को भी कम कर देता है।
वर्ल्ड हार्ट फेडरेशन ने अपनी रिसर्च रिपोर्ट में कहा है कि वायु प्रदूषण के कारण होने वाली हृदय संबंधी बीमारियों से होने वाली मौतों की संख्या पिछले एक दशक में बढ़ रही है और आगे भी बढ़ने वाली है। दुनिया भर में सरकारें अगर सरकारें इस मुद्दे से निपटने के लिए कानून नहीं बनाती हैं, तो हृदय रोग पर वायु प्रदूषण के प्रभाव से हर साल लाखों लोगों की मृत्यु हो सकती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि वायु प्रदूषण को लेकर एक वैश्विक नीति बनाने की जरूरत है। रिपोर्ट के मुताबिक वायु प्रदूषण लक्ष्यों को पूरा करने में विफलता के कारण मोटापा और मधुमेह सहित कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ रही हैं, इसे "सबसे बड़ा पर्यावरणीय स्वास्थ्य जोखिम" बताया गया है। डब्ल्यूएचओ और अन्य एजेंसियों द्वारा सुझाए गए उपायों के बावजूद वायु गुणवत्ता के स्तर में मुश्किल से ही सुधार हुआ है, जिसके कारण हर साल लगभग 1.9 मिलियन लोग हृदय रोग से और लगभग दस लाख लोग स्ट्रोक से मर रहे हैं, इन मौतों के लिए सिर्फ वायु प्रदूषण ही जिम्मेदार है। रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण-पूर्व एशिया और पूर्वी भूमध्यसागरीय देशों में वायु प्रदूषण मानकों कसे लगभग लगभग दस गुना तक अधिक है। अध्ययन में कहा गया है कि बाहरी वातावरण में प्रदूषण के साथ ही घरों के अंतर लम्बे समय तक रहने वाला वायु प्रदूषण ज्यादा मुश्किल पैदा कर रहा है। लेंसेट कमीशन ऑन पॉल्यूशन एंड हेल्थ की रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में भारत में वायु प्रदूषण से लगभग 16.7 लाख मौतें हुईं ये उस साल देश में होने वाली सभी मौतों का 17.8% हिस्सा था। दुनिया की लगभग 91% आबादी उन जगहों पर रहती है जहां वायु गुणवत्ता सूचकांक विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के दिशानिर्देशों द्वारा निर्धारित सीमा से अधिक है।
बेंगलुरु में जयदेव इंस्टीट्यूट ऑफ कार्डियोवैस्कुलर साइंसेज एंड रिसर्च की ओर से किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि 18-45 वर्ष की आयु के भारतीय लोगों में दिल के दौरे के पीछे वायु प्रदूषण और तनाव प्रमुख कारण हैं। संस्थान के निदेशक डॉ. सी. एन. मंजूनाथ के अनुसार “पिछले 10 वर्षों में, युवा और मध्यम आयु वर्ग के लोगों में दिल के दौरे के मामलों में वृद्धि हुई है। 2014-2020 के बीच किए गए एक अध्ययन में, हृदय संबंधी बीमारियों के लिए जयदेव में भर्ती 5,500 से अधिक रोगियों में से, हमने पाया कि इनमें से 25 प्रतिशत से अधिक में मधुमेह, उच्च रक्तचाप, धूम्रपान की आदत या कोलेस्ट्रॉल जैसे कोई पारंपरिक जोखिम कारक नहीं थे। बल्कि वायु प्रदूषण एक बड़ा कारण बन कर उभरा है।
आईसीएमआर की ओर से राज्यों में स्वास्थ्य हानि और जीवन प्रत्याशा में कमी पर वायु प्रदूषण के प्रभावों पर प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वायु प्रदूषण भारत में मृत्यु के लिए एक प्रमुख जोखिम कारक बन गया है। 2017 में भारत में आठ में से एक मौत वायु प्रदूषण के कारण हुई, जिससे यह भारत में मृत्यु के लिए एक प्रमुख जोखिम कारक बन गया। रिपोर्ट में कहा गया है कि बाहरी वायु प्रदूषण के कारण लगभग 6.7 लाख मौतें हुईं और घरेलू वायु प्रदूषण के कारण 4.8 लाख मौतें हुईं। वर्ष 2017 में भारत में वायु प्रदूषण के कारण होने वाली प्रमुख गैर-संचारी बीमारियां क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव लंग डिजीज, इस्केमिक हार्ट डिजीज, स्ट्रोक, डायबिटीज और लंग कैंसर रहीं।
एम्स कॉर्डियोलॉजी के निदेशक रह चुके डॉक्टर संदीप मिश्रा कहते हैं कि वायु प्रदूषण में PM 2.5 बेहद छोटे कण होते हैं। ये इतने छोटे होते हैं कि आपकी सांस के जरिए आपके फेफड़ों तक और वहां से आपके खून तक पहुंच जाते हैं। इन प्रदूषक कणों के आपके शरीर में पहुंचने से दिल, धमनियों सहित कई जगहों पर संक्रमण फैल जाता है। ये धीरे धीरे दिल की गतिविधियों पर असर डालते हैं। ज्यादा समय तक प्रदूषित हवा में सांस लेने पर कंजेशन के चलते हार्ट अटैक की स्थिति बन सकती है। हवा में इस प्रदूषक कण की मात्रा बढ़ने से आपको कफ भी ज्यादा बनता है।
प्रदूषित हवा में मौजूद PM 2.5 दिल के साथ ही दिल तक खून पहुंचाने और ले जाने वाले पूरे सिस्टम पर असर डालता है। ऑर्गनाइजड मेडिसिन अकेडेमिक गिल्ड के सेक्रेटरी जनरल डॉ ईश्वर गिलाडा कहते हैं कि PM 2.5 के खून मे पहुंच जाने के बाद ये प्रदूषक तत्व खून के साथ पूरे शरीर में घूमते हुए दिल तक पहुंचता है। ऐसे में मरीज को सिरदर्द, चिड़चिड़ापन, चक्कर आना, बेचैनी जैसी दिक्कतें हो सकती हैं। कई बार मरीज को ऐसा लगता है की उसको सांस कम आ रही है। ऐसे में मरीज की मुश्किल बढ़ सकती है। उसे तुरंत डॉक्टर से मिलना चाहिए। PM 2.5 का असर फेफड़ों और दिल के साथ ही आपके दिमाग पर भी पड़ता है। हवा में प्रदूषण बढ़ने पर खास तौर पर सांस के मरीजों, दिल की बीमारी से जूझ रहे मरीजों और ऐसे मरीज जिन्हें पहले कोविड संक्रमण हुआ हो उन्हें ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है। ब्रांकराइटिस के मरीज अगर ज्यादा लम्बे समय तक प्रदूषित हवा में सांस लेते हैं तो उनके जीवन पर भी संकट खड़ा हो सकता है। ऐसे में इस तरह के मरीजों को खास तौर पर ध्यान देने की जरूरत है।
प्रदूषण का खेती पर असर- कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट
कार्बन का नाम सुनते ही आंखों के सामने काले धुएं की तस्वीर तैर जाती है। लेकिन ये कार्बन न हो तो आपको पेट भरने के लिए अनाज मिलना मुश्किल हो जाएगा। किसानों के हर साल पराली जलाने से जमीन में ऑर्गेनिक कार्बन में कमी आ रही है। इस ऑर्गेनिक कार्बन की कमी से जमीन बंजर हो सकती है। अगर मिट्टी में इसकी कमी हो जाए तो किसानों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले केमिकल फर्टिलाइजर भी काम करना बंद कर देंगे। मिट्टी में सामान्य तौर पर अगर आर्गेनिक कार्बन 5 फीसदी से ज्यादा है तो अच्छा है। लेकिन पिछले कुछ सालों में देश के कई हिस्सों में मिट्टी में आर्गेनिक कार्बन की मात्रा 0.5 फीसदी पर पहुंच गई है जो बेहद खतरनाक स्थिति है।
कृषि मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश भर से लिए गए 3. 4 लाख सैंपल की जांच के बाद पाया गया कि देश के 67 फीसदी हिस्से में मिट्टी में आर्गेनिक कार्बन की कमी है। खास तौर पर पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक में मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन की कमी है। फसल अवशेष प्रबंधन के लिए राष्ट्रीय नीति (एनपीएमसीआर) की रिपोर्ट के मुताबिक एक टन पराली को जलाने से मिट्टी में मौजूद सभी ऑर्गेनिक कार्बन नष्ट हो जाते हैं। इसके साथ ही मिट्टी में मौजूद 5.5 किलोग्राम नाइट्रोजन, 2.3 किलोग्राम फॉस्फोरस , 25 किलोग्राम पोटैशियम और 1.2 किलोग्राम सल्फर भी नष्ट हो हो जाता है। इसके अलावा मिट्टी में मौजूद वो सभी छोटे बड़े कीड़े मर जाते हैं जो जमीन को उपजाऊ बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं। अगर फसल अवशेष को मिट्टी में ही रखा जाए तो यह मिट्टी के पोषक तत्वों को और समृद्ध करेगा।
आईसीएआर की संस्था इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ राइस रिसर्च के प्रधान वैज्ञानिक एवं मृदा विज्ञान में विशेषज्ञता रखने वाले डॉक्टर ब्रिजेंद्र परमार कहते हैं कि आज पराली सिर्फ पंजाब और हरियाणा की नहीं बल्कि देश के कई हिस्सों में समस्या बन चुकी है। पराली जलाए जाने से भले तुरंत फसल उत्पादन पर असर नहीं पड़ रहा है लेकिन अगर ऐसे ही चलता रहा तो आने वाले समय में देश में बड़े पैमाने पर उपजाऊ भूमि ऊसर या बंजर हो जाएगी। पराली जलाए जाने से मिट्टी में अम्लीयता तेजी से बढ़ती है। पराली की राख जमीन की अम्लीयता को 10 पीएच तक पहुंचा देती है। जबकि एक अच्छी उपजाऊ जमीन में अम्लीयता 6 से 7 पीएच से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। पराली जलाए जाने के चलते आज पंजाब और हरियाणा के बहुत से हिस्सों में मिट्टी में अम्लीयता 8 पीएच तक पहुंच चुकी है। दरअसल एक अच्छी उपजाऊ मिट्टी में 45 फीसदी मिनरल मैटर होता है। 25 फीसदी पानी और 25 फीसदी हवा होती है और 5 फीसदी आर्गेनिक मैटर होता है। पराली जलाए जाने से मिट्टी की माइक्रोबायोडाइवर्सिटी खत्म हो जाती है। बहुत से छोटे कीड़े मर जाते हैं जो मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बनाए रखने में मदद करते हैं। पराली की राख जमीन में हवा जाने के रास्तों को पूरी तरह से बंद कर देती है। ऐसे में धीरे धीरे मिट्टी का रंग सफेद होने लगता है और जमीन बंजर हो जाती है। किसान धान की पराली इस लिए जलाते हैं क्योंकि उन्हें तुरंत गेहूं की फसल लगानी होती है वहीं पराली उसके लिए एक अवशेष है। ऐसे में इस समस्या से निपटने के लिए वैज्ञानिक धान की ऐसी फसलों को तैयार कर रहे हैं तो कम समय में पैदावार दें। वहीं पराली के प्रबंधन के लिए कुछ इस तरह के इंतजाम करने होंगे पराली खेतों में ही बेहद बारीक टुकड़ों में बदल दी जाए। ये पराली खेतों में सड़ कर ऑर्गेनिक मैटर में बदल जाएगी जिससे जमीन की उत्पादकता बढ़ जाएगी।
केमिकल्स भी बढ़ा रहे प्रदूषण- टेरी की रिपोर्ट
दिल्ली में प्रदूषण की तीसरी सबसे बड़ी वजह फैक्ट्रियां हैं। दिल्ली और इसके आसपास मौजूद इंडस्ट्री से PM 2.5 और PM 10 का उत्सर्जन होता है। द एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (TERI) के मुताबिक, यह हवा में मौजूद 44% PM 2.5 और 41% PM 10 के लिए जिम्मेदार है।
भारतीयों की जीवनदर में प्रदूषण की वजह से पांच साल की कमी- शिकागो विश्वविद्यालय की रिपोर्ट
शिकागो यूनिवर्सिटी के एक्यूएलआइ के विश्लेषण के अनुसार, विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देशों का पालन होने पर भारतीयों की औसत संभाव्यता जितनी होती, उसमें वायु प्रदूषण के कारण 5 वर्षों की कमी आ रही है। प्रदूषण का वर्तमान स्तर बरक़रार रहने पर उत्तर भारत के गंगा के मैदानी भागों के 51 करोड़ निवासियों की औसत जीवन संभाव्यता 7.6 वर्ष घट रही है। यह आबादी भारत की कुल आबादी का लगभग 40 प्रतिशत है।
दक्षिण एशिया के लोगों की जीवन प्रत्याशा पर असर
प्रदूषण का घातक प्रभाव जितना दक्षिण एशिया में दिखता है उतना दुनिया के किसी दूसरे क्षेत्र में नहीं दिखता। दुनिया में प्रदूषण से जीवन पर कुल जितना बोझ पड़ता है उसमें से आधे से अधिक इसी क्षेत्र में पड़ता है। अगर प्रदूषण का वर्तमान उच्च स्तर बना रहता है, तो इस क्षेत्र के निवासियों की ज़िंदगी औसतन 5 वर्ष के आसपास, और अधिक प्रदूषित क्षेत्रों में तो उससे भी अधिक घट जाने की आशंका है। वर्ष 2013 से पूरी दुनिया में जितना प्रदूषण बढ़ा है उसका लगभग 44 प्रतिशत योगदान अकेले भारत से है।
एक्यूएलआइ की निदेशक क्रिस्टा हेसेनकॉफ कहती हैं कि हमने एक्यूएलआइ को अत्याधुनिक विज्ञान पर आधारित विश्व स्वास्थ्य संगठन के नए दिशानिर्देश के अनुसार अपडेट किया है। सरकारों को प्रदूषण को अति आवश्यक नीतिगत मुद्दे के रूप में प्राथमिकता देनी होगी।
मिक्सिंग हाईट भी प्रदूषण बढ़ने की वजह
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के पर्यावरण विभाग के प्रोफेसर सुदेश यादव कहते हैं, दिल्ली में प्रदूषण का स्तर अधिक हो चुका है। मिक्सिंग हाईट कम होने की वजह से भी प्रदूषक कणों का फैलाव हवा में नहीं हो पाता है, जिससे यह वातावरण में फंसे रह जाते हैं। गर्मी में मिक्सिंग हाईट तीन किमी तक होती है, जबकि ठंड में यह 1.5 किमी से लेकर 300 मीटर तक रह जाती है। इसकी वजह से प्रदूषण बढ़ जाता है। मौजूदा समय में हवा की गति कम होने की वजह से भी प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है। हवा की गति अधिक होने की स्थिति में वह प्रदूषकों को फैला देती है। स्थिर तापमान, ठहरी हवा, मिक्सिंग हाईट और पराली, निर्माण कार्य से बढ़े प्रदूषण के कॉकटेल ने स्थिति को अधिक विकराल बना दिया है। बाहरी राज्यों से आ रहा पराली का धुआं मुसीबत को दोगुना कर रहा है। सर्दियों के मौसम में पराली का धुंआ उत्तर और उत्तर-पश्चिम दिशा से आने लगता है, जिससे दिल्ली सबसे अधिक प्रभावित होती है। निर्माण कार्य की वजह से प्रदूषकों का बढ़ना भी दिल्ली में प्रदूषण का बड़ा कारण है। निर्माण कार्यों की वजह से पार्टिकुलेट मैटर का प्रदूषण सबसे अधिक बढ़ता है।
भौगोलिक स्थिति भी वजह
अरावली की पहाड़यां दिल्ली - एनसीआर के लिए एक प्राकृतिक बैरियर का काम करती हैं। थार से उड़ने वाले धूल के अंधड़ इन पहाड़ियों के चलते दिल्ली तक नहीं पहुंचते हैं। लेकिन असंतुलित विकास के चलते इन पहाड़ियों को भी नुकसान पहुंचा है। केंद्रीय विश्वविद्यालय राजस्थान (सीयूराज) के एक अध्ययन के मुताबिक 1975 से 2019 के बीच अरावली की लगभग 9 फीसदी पहाड़ियां गायब हो चुकी हैं। अध्ययन में कहा गया है कि अगर तेजी से बढ़ते शहरीकरण और खनन की मौजूदा गति जारी रहा तो 2059 तक यह नुकसान बढ़कर लगभग 22 फीसदी हो जाएगा । शोाकर्ताओं के अनुसार दिल्ली एनसीआर इस नुकसान के कारण और प्रभाव दोनों के केंद्र में होगा। अध्ययन में ये अनुमान लगाया गया है कि जेसे जैसे अरावली समतल होगी थार रेगिस्तान का दिल्ली की ओर विस्तार बढेगा। यहां धूल भरा और शुष्क मौसम हो जाएगा। वहीं प्रदूषण का स्तर और भयावह होगा। मौसम में अनिश्चित्ता भी बढ़ेगी। 2269 पहाड़ियां अरावली का निर्माण करती हैं तो गुजरात से राजस्थान और हरियाणा होते हुए दिल्ली तक फैली हैं।
क्या है समाधान
विशेषज्ञों का मानना हे कि दिल्ली के प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए सरकार को एक व्यापक नीति बनानी होगी। इसके तहत एक तरफ जहां दिल्ली में गाड़ियों पर लगाम लगनी होगी वहीं सार्वजनिक परिवहन को बेहतर बनाना होगा। यमुना बायोडायवर्सिटी पार्क के प्रभारी वैज्ञानिक एवं पर्यावरण विद डॉ. फैयाज खुदसर कहते हैं कि धूल न उड़े इसके लिए एक थ्री स्टोरी फॉरेस्ट मॉडल अपनाना होगा जिसमें बड़े पेड़ लगाने के साथ ही सड़कों के किनाने स्थानीय घास लगानी होगी जो मिट्टी को बांध कर रखे। कंस्ट्रक्शन को लेकर एक नीति बनानी होगी। सालभर दिल्ली एनसीआर में कंस्ट्रक्चर के काम चलते रहते हैं इस पर लगाम लगानी होगी। वहीं दिल्ली के पास एक बड़ा फ्लड प्लेन है इसमें बड़े पैमाने पर स्थानीय पेड़ लगाए जा सकते हैं जो प्रदूषण कणों के लिए बैरियर का काम करेंगे। अरावली पर भी स्थानीय पेड़ों की बड़े पैमाने पर प्लांटिंग किए जाने की जरूतर है।
प्रदूषण से जुड़े अहम सवाल-जवाब
एक्यूआई का मतलब क्या होता है ?
AQI यानी एयर क्वालिटी इंडेक्स या वायु गुणवत्ता सूचकांक हवा में प्रदूषण कितना है, यह जानने का एक तरीका है। इससे पता चलता है कि हवा हमारे लिए कितनी साफ या गंदी है।
एक्यूआई में कौन से प्रदूषक तत्व को मापा जाता है ?
AQI में PM2.5, PM10, NO2, SO2, CO और O3 जैसे प्रदूषकों को मापा जाता है। ये प्रदूषक हमारी सेहत के लिए हानिकारक होते हैं।
AQI की गणना कैसे की जाती है?
AQI की गणना हवा में मौजूद प्रदूषकों की मात्रा को मापकर की जाती है। हर प्रदूषक के लिए एक मानक तय होता है और उसी हिसाब से AQI का स्कोर दिया जाता है।
वैश्विक AQI मानक क्या है?
अलग-अलग देशों में AQI मापने के अलग-अलग तरीके अपनाए जाते हैं। भारत में AQI 0 से 500 के बीच होता है। 0-50 अच्छी हवा और 400 से ऊपर गंभीर प्रदूषण माना जाता है
AQI निगरानी में किस तकनीक का उपयोग होता है?
आजकल हवा की गुणवत्ता की निगरानी के लिए नए उपकरणों का उपयोग होता है। भारत में SAFAR जैसी ऐप से हम AQI को अपने मोबाइल पर चेक कर सकते हैं। सैटेलाइट से ली गई तस्वीरें और कंप्यूटर मॉडल भी AQI का पूर्वानुमान लगाने में मदद मिलती है।
पार्टिकुलेट मैटर क्या है?
पार्टिकुलेट मैटर (PM) या कणिका पदार्थ, हवा में मौजूद ठोस और तरल कणों का मिश्रण है. ये कण कई तरह के होते हैं, जैसे कि धूल, धुआं, कालिख, पराग, और तरल बूंदें. ये कण आकार, संरचना, और उत्पत्ति में बहुत अलग-अलग होते हैं. इनमें अकार्बनिक आयन, धातु यौगिक, मौलिक कार्बन, कार्बनिक यौगिक, और पृथ्वी की पपड़ी से यौगिक शामिल हो सकते हैं.
पार्टिकुलेट मैटर को उनके आकार के आधार पर तीन श्रेणियों में बांटा गया है:
पीएम10 और पीएम 2.5 में क्या अंतर है ?
इन कणों का व्यास 10 माइक्रोन या उससे कम होता है. ये कण नंगी आंखों से दिखाई देते हैं और सांस के ज़रिए फेफड़ों में जा सकते हैं। पीएम2.5 कणों का व्यास 2.5 माइक्रोन या उससे कम होता है। ये कण इतने छोटे होते हैं कि इनमें से कई हज़ार बिंदु पर समा सकते हैं।
पीएम1 क्या है ?
ये अल्ट्रा-फ़ाइन कण होते हैं। ये कण हवा में घुले रह सकते हैं और कुछ सेकंड से लेकर महीनों तक वायुमंडल में बने रह सकते हैं।
ग्रैप क्या होता है और इसे पहली बार कब लागू किया गया ?
दिल्ली में प्रदूषण गंभीर स्थिति में पहुंच गया है। बच्चों से लेकर युवा और बुजुर्गों को स्वास्थ्य संबंधी परेशानी हो रही है। चिकित्सक लोगों को घरों से बाहर न निकलने की सलाह दे रहे हैं। वहीं, वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीएक्यूएम) ग्रेप के चरण लागू करता है, जिसका मतलब बिगड़ी वायु गुणवत्ता में सुधार लाना होता है। GRAP पहली बार जनवरी 2017 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा अधिसूचित किया गया था। नवंबर 2016 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) इस योजना को लेकर आया था।
2016 में इसे सुप्रीम कोर्ट से स्वीकृति मिल गई थी। इस योजना को पर्यावरण प्रदूषण (रोकथाम और नियंत्रण) प्राधिकरण (ईपीसीए) द्वारा राज्य सरकार के प्रतिनिधियों और विशेषज्ञों के साथ की गई कई बैठकों के बाद तैयार किया गया था। पर्यावरण प्रदूषण (रोकथाम और नियंत्रण) प्राधिकरण पहले एनसीआर में ग्रेप के चरणों को लागू करता था, लेकिन यह भंग हो चुका है और अब सीएक्यूएम इसे 2021 से लागू करता आ रहा है।
ग्रैप लागू करने की प्रक्रिया क्या है ?
ग्रेप जब लागू किया जाता है तो सीएक्यूएम की बैठक होती है, उसमें सभी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, औद्योगिक क्षेत्र प्राधिकरण, नगर निगम, भारतीय मौसम विभाग के क्षेत्रीय अधिकारी, और स्वास्थ्य सलाहकार शामिल होते हैं। ग्रेप के चरण जब लागू होते हैं तो वायु गुणवत्ता (AQI) को देखा जाता है। उसी के अनुसार ग्रेप लागू किया जाता है।
वायु प्रदूषण में एयरशेड की भूमिका कितनी अहम होती है ?
डब्लूआरआई इंडिया के सीनियर प्रोग्राम मैनेजर भव्य शर्मा बताते हैं कि दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण के कई प्रमुख कारण हैं। इस दौरान वाहन की गतिविधियां, निर्माण कार्य से जुड़े काम बढ़ जाते हैं। दिल्ली-एनसीआर एक एयरशेड में आता है। एयरशेड ऐसा क्षेत्र होता है जहां वायु गुणवत्ता समान होती है। अगर कुछ प्रदूषक इसमें मिल जाते हैं तो उसमें कमी आ जाती है। जिस वजह से दिल्ली-एनसीआर की वायु गुणवत्ता एक समान हो जाती है।
हवा की गति कम होने से भी क्या प्रदूषण बढ़ता है ?
दिल्ली और आसपास के इलाको में हवा में बढ़ते प्रदूषण की एक बड़ी वजह हवा की गति काफी कम होना है। मौसम वैज्ञानिक समरजीत चौधरी कहते हैं कि अक्टूबर और नवम्बर के महीने में हवा की स्पीड काफी कम हो जाती है। इससे प्रदूषण हवा में काफी देर तक फंसा रहता है। इस समय उत्तर पश्चिमी हवाएं दर्ज की जा रही हैं। ये हवाएं पाकिस्तान, हरियाणा और पंजाब होते हुए दिल्ली और एनसीआर के हिस्सों तक पहुंचती हैं। अपनी भौगोलिक स्थिति के चलते यहां हवा के साथ आया पराली का धुआं फंस जाता है जिससे प्रदूषण के स्तर में बढ़ोतरी हो जाती है। पराली के धुएं और त्योहारिक गतिविधियों के चलते अगले कुछ दिनों में दिल्ली और आसपास के इलाकों में हवा में प्रदूषण का स्तर बढ़ने की संभावना है।
प्रदूषण में इंवर्जन लेयर की भूमिका कितनी अहम होती है ?
बाबा साहब भीमराव अंबेडकर यूनिवर्सिटी के पर्यावरण विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डा. शैलेंद्र कुमार यादव कहते हैं कि तापमान के गिरने, हवा की गति कम होने से प्रदूषण बढ़ रहा है। जितनी हवा चलेगी उतना प्रदूषण कम होगा। यही नहीं, इन्वर्जन लेयर के नीचे होने से भी प्रदूषण का स्तर बढ़ता है। इनवर्जन लेयर विभिन्न कारणों से बनती है। यह लेयर सूर्य की रोशनी को नीचे नहीं आने देती, जिससे जमीन की सतह का तापमान बढ़ नहीं पाता और स्मॉग की मोटी लेयर नीचे ही बन जाती है। इस स्मॉग में कोहरा, धुआं और प्रदूषण का मिश्रण होता है। हवा कम होती है, जिससे यह स्मॉग साफ नहीं हो पाता। वहीं दिल्ली में ठंड बढ़ने पर लैंडलॉक्ड स्थिति बन जाती है, जिससे हवा बंधने लगती है।
दुनिया के कई देशों ने प्रदूषण पर कैसे लगाम लगाई है ?
शारदा यूनिवर्सिटी के पर्यावरण विभाग की प्रोफेसर डा. सुमन कहती है कि बीजिंग-लंदन से सबक लिया जा सकता है। वहां कोयला के इस्तेमाल को घटाया गया, कार्बन उत्सर्जन बढ़ाने वाली गाड़ियों में कमी की गई और स्वच्छ ईंधन को अपनाने के कड़े उपाय किए गए, तकनीक के इस्तेमाल को बढ़ाकर परंपरागत तरीकों से बढ़ रहे प्रदूषण पर लगाम लगाने की कोशिशें शुरू हुईं। सबसे रोचक कदम था पूर्वी चीन के नानजिंग में वर्टिकल फॉरेस्ट लगाने का. जिसकी क्षमता हर साल 25 लाख टन कार्बन डाई ऑक्साइड को सोखने की थी और हर रोज ये 60 किलोग्राम ऑक्सीजन उत्पादन कर सकता था। एयर क्वालिटी सुधारने के लिए तकनीक का इस्तेमाल कर उत्तरी चीन के शहरों में 100 मीटर ऊंचे 'स्मॉग टॉवर' लगाए गए.
प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों के लिए जरूरी किया गया कि उनपर काबू पाने के उपाय भी वे खुद करें और साथ ही ग्रीन तकनीक को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी भी उनपर डाली गई। इनपर निगरानी के लिए सख्त नियम बनाए गए और उन्हें लागू किया गया। 15 साल बाद 2013 आते-आते बीजिंग समेत चीन के कई शहरों में हवा में प्रदूषण का स्तर राष्ट्रीय मानकों के लेवल पर आ गया था। कम समय में किस हद तक बदलाव लाया जा सकता है इसका उदाहरण बीजिंग में देखने को मिला जब साल 2013 में PM2.5 पॉलुटेंट का लेवल 90 µg/m3 था लेकिन 4 साल बाद 2017 में यह घटकर 58 µg/m3 तक आ गया।
वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन एक दूसरे से कैसे जुड़े हैं?
यूएन इंवायरनमेंट प्रोग्राम के अनुसार वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन स्वाभाविक रूप से जुड़े हुए हैं। सभी प्रमुख वायु प्रदूषक जलवायु पर प्रभाव डालते हैं और अधिकांश ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) के साथ आम स्रोत साझा करते हैं, विशेष रूप से जीवाश्म ईंधन के दहन से संबंधित। वे कई तरीकों से एक-दूसरे को बढ़ाते भी हैं। उदाहरण के लिए, खतरनाक जीएचजी मीथेन ग्राउंड-लेवल-ओजोन के निर्माण में योगदान देता है, और बढ़ते तापमान के साथ ग्राउंड-लेवल ओजोन का स्तर बढ़ता है। बढ़ते तापमान से जंगल में आग लगने की घटनाएं बढ़ती हैं, जो बदले में कण वायु प्रदूषण के स्तर को और बढ़ा देती हैं।
वायु प्रदूषण मानव स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करता है ?
यूएन इंवायरनमेंट प्रोग्राम के अनुसार मानव स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय वायु प्रदूषक, और जिसके बारे में हम सबसे ज़्यादा जानते हैं, वह है सूक्ष्म कण। इसका व्यास 2.5 माइक्रोमीटर या उससे कम होता है, यही वजह है कि इसे PM 2.5 के नाम से भी जाना जाता है। ये सूक्ष्म कण मानव आंखों के लिए अदृश्य होते हैं और मानव बाल की चौड़ाई से 40 गुना छोटे होते हैं। वे हमारे शरीर को बहुत नुकसान पहुंचा सकते हैं: ये कण इतने छोटे होते हैं कि हमारे फेफड़ों में गहराई तक घुस जाते हैं, जहां वे संवेदनशील फेफड़ों के ऊतकों में सूजन पैदा करते हैं और रक्त प्रवाह में प्रवेश कर सकते हैं, जिससे हृदय और मस्तिष्क जैसे अंग प्रभावित होते हैं। WHO का अनुमान है कि, वैश्विक स्तर पर, वायु प्रदूषण प्रति वर्ष लगभग 7 मिलियन असामयिक मौतों के लिए जिम्मेदार है।
ओज़ोन प्रदूषण क्या है। ये कहां से आता है ?
ओजोन एक गैस है। ओजोन के प्रदूषण का कोई खास सोर्स नहीं होता है। बेहद गर्म मौसम में गाड़ियों और पावर प्लांट से निकलने वाला धुआं आपस में क्रिया करके ओजोन बनाने लगता और हवा में ओजोन का स्तर बढ़ने लगता है। ये ओजोन हवा के उस स्तर में बढ़ने लगती है जहां हम सांस लेते हैं। ऐसे में हमारे लिए मुश्किल बढ़ जाती है।
क्या प्रदूषण दिल की बीमारियों को बढ़ाता है ?
वर्ल्ड हेल्थ फेडरेशन की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक दशक में वायु प्रदूषण के चलते दिल की बीमारियों से होने वाली मौतों में लगभग 27 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई है। रिपोर्ट इंगित करती है कि हवा में प्रदूषण छोटे प्रदूषक अदृश्य कण हृदय की लय, रक्त के थक्के जमने, धमनियों में प्लाक बनने और रक्तचाप को प्रभावित कर रहे हैं। भारत में आईसीएमआर सहित कई संस्थानों ने भी बढ़ती दिल की बीमारियों के लिए वायु प्रदूषण को एक बड़ा कारण माना है। आईसीएमआर की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2017 में भारत में हर आठ मौतों में से एक मौत वायु प्रदूषण के कारण हुई।
हवा में सबसे ज्यादा पर्टिकुलेट मैटर कहां से आता है ?
दिल्ली सरकार की ओर से आईआईटी कानपुर से दिल्ली में प्रदूषण के श्रोतों पर कराए गए एक अध्ययन में पाया गया कि दिल्ली की हवा में अब पीएम 10 की बात की जाए तो लगभग 56 फीसदी हिस्सेदारी चल रहे निर्माण कार्यों की है। इसमें मुख्य रूप से कंस्ट्रक्शन और डिमॉलीशन वर्क है। वहीं दूसरी सबसे बड़ी लगभग 10 फीसदी की हिस्सेदारी उद्योगों की है। वहीं तीसरे स्तर पर लगभग 9 फीसदी के साथ गाड़ियों का धुआं है। वहीं अगर हम पीएम 2.5 की बात करें तो यहां भी 38 फीसदी के साथ पहले नम्बर पर कंस्ट्रक्चर और डिमॉलीशन ही है। दूसरे नम्बर पर 20 फीसदी के साथ गाड़ियों का धुआं है।
वाहनों की बढ़ती संख्या प्रदूषण के लिए कितनी उत्तरदाई है ?
दिल्ली एनसीआर में वाहनों की बढ़ती संख्या भी प्रदूषण में बढ़ोतरी का अहम कारण है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (एमओईएस) के तहत भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) पुणे द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली-एनसीआर में प्रमुख प्रदूषकों के उत्सर्जन सूची में वाहनों के उत्सर्जन की भागीदारी में 2010 की तुलना में 2018 में भारी इजाफा हुआ है। अध्ययन के अनुसार 2010-18 की अवधि के दौरान दिल्ली की सड़कों पर वाहनों की संख्या में चार गुना से अधिक की वृद्धि हुई है। 2010 में राजधानी में जहां वाहनों का उत्सर्जन लगभग 25.4% प्रतिशत था तो वहीं 2018 में बढ़कर 41 प्रतिशत हो गया है जबकि एनसीआर में ये आकंड़ा 32.1 प्रतिशत से बढ़कर 2018 में 39.1 प्रतिशत तक पहुंच गया है।
सर्दियां आते ही प्रदूषण क्यों बढ़ता है ?
सर्दियां आने पर तापमान कम हो जाता है और हवा में नमी का स्तर बढ़ने लगता है। हवा की स्पीड कम हो जाती है। वहीं तापमान कम होने से वायुमंडल की ऊपरी परत जिसे मिक्सिंग हाइट भी कहा जाता है नीचे आ जाती है। ऐसे में स्थानीय तौर पर उड़ने वाले धूल या प्रदूषण के कण लम्बे समय तक हवा में बने रहते हैं। ऐसे में लोगों को ज्यादा देर तक प्रदूषण का सामना करना पड़ता है।
पराली के धुएं के लिए पाकिस्तान किस तरह जिम्मेदार है ?
सैटेलाइट तस्वीरें स्पष्ट तौर पर दर्शा रही है कि पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में हरियाणा और भारतीय पंजाब की तुलना में अधिक पैमाने पर पराली जलाई जा रही है। मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार, इस समय चल रही उत्तर-पश्चिमी हवाएं पाकिस्तान से उठने वाले धुएं को उत्तर भारत के कई राज्यों तक पहुंचा रही हैं।
पाकिस्तान पर क्या पराली न जलाने के लिए भारत दबाव बना सकता है ?
भारत सरकार माले डिक्लेरेशन के तहत इस मामले को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठा सकती है। माले डिक्लेरेशन के तहत साउथ एशिया में ट्रांस बाउंड्री पॉल्यूशन पर लगाम लगाने के लिए समझौते किए गए थे। इस समझौते में बांग्लादेश, भूटान, भारत, ईरान, मालदीव गणराज्य, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका शामिल हैं।
प्रदूषण के लिए क्लाउड सीडिंग की बात चल रही है। यह प्रक्रिया क्या होती है ?
क्लाउड सीडिंग मौसम में बदलाव करने की एक वैज्ञानिक तरीका है जिसके तहत आर्टिफिशियल तरीके से बारिश करवाई जाती है। क्लाउड सीडिंग की प्रक्रिया के दौरान छोटे-छोटे विमानों को बादलों के बीच से गुजारा जाता है जो वहां सिल्वर आयोडाइड, पोटेशियम आयोडाइड और शुष्क बर्फ (ठोस कार्बन डाइऑक्साइड) को छोड़ते हुए निकल जाते हैं। इसके बाद बादलों में पानी की बूंदें जमा होने लगती हैं, जो बारिश के रूप में धरती पर बरसने लगती हैं। क्लाउड सीडिंग के जरिए करवाई गई आर्टिफिशियल बारिश सामान्य बारिश की तुलना में ज्यादा तेज होती है।
कृत्रिम बारिश करवाने में किस तरह की चुनौतियां है ?
कृत्रिम बारिश को करवाने में कई चुनौतियों का सामना भी करना पड़ता है। सबसे पहली बात तो ‘क्लाउड सीडिंग’ की कोशिश तभी की जा सकती है जब वातावरण में नमी या बादल हों। बगैर इसके कृत्रिम बारिश करवा पाना संभव ही नहीं है। दूसरी बात इस तकनीक के इस्तेमाल के लिए केंद्र और राज्य सरकार दोनों से मंजूरी चाहिए होगी। ‘क्लाउड सीडिंग’ की प्रभावशीलता और पर्यावरण पर इसके प्रभाव को लेकर शोध और चर्चा जारी है ऐसे में हमें पता नहीं है कि आने वाले समय में इससे किसी तरह का नुकसान हो सकता है या नहीं।