नये वैश्विक पेमेंट सिस्टम, न्यू डेवलपमेंट बैंक का दायरा बढ़ाने पर सहमति, मोदी-जिनपिंग बातचीत पर भी रही खास नजर
मूल रूप से आर्थिक संगठन होने के बावजूद ब्रिक्स घोषणापत्र में आतंकवाद से लेकर युद्ध तक हर मुद्दे को जगह दी गई। भारत के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि चीन के साथ संबंधों में तनाव कम करना है। हालांकि यह ब्रिक्स सम्मेलन का हिस्सा नहीं था लेकिन पांच साल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का मिलना और सीमा विवाद सुलझाने पर सहमत होना महत्वपूर्ण है।
एस.के. सिंह, नई दिल्ली। रूस के कजान में आयोजित ब्रिक्स देशों के 16वें शिखर सम्मेलन में कई महत्वपूर्ण बातें देखने को मिलीं। आर्थिक सहयोग बढ़ाने के लिए ये देश कुछ नए प्लेटफॉर्म बनाने और पुराने को मजबूत करने पर सहमत हुए हैं। ये नया क्रॉस बॉर्डर पेमेंट सिस्टम और ग्रेन एक्सचेंज बनाने पर राजी हुए हैं, जो एक तरह से पश्चिमी देशों को चुनौती है। इसी तरह, 2015 में बने न्यू डेवलपमेंट बैंक (एनडीबी) के कामकाज का दायरा बढ़ाया जाएगा। आईएमएफ और डब्लूटीओ जैसे संस्थानों के महत्व को स्वीकार तो किया गया है, लेकिन उनमें विकासशील जगत का प्रतिनिधित्व बढ़ाने पर भी जोर दिया गया है। दरअसल, देखा जाए तो ब्रिक्स विश्व राजनीति में एक प्रभावशाली ब्लॉक के रूप में उभर रहा है। मूल रूप से आर्थिक संगठन होने के बावजूद इसके घोषणापत्र में आतंकवाद से लेकर युद्ध तक, हर तरह के मुद्दों को जगह दी गई है। भारत के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि चीन के साथ संबंधों में तनाव कम करना कही जा सकती है। हालांकि यह ब्रिक्स सम्मेलन का हिस्सा नहीं था, लेकिन पांच साल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का मिलना और सीमा विवाद सुलझाने पर सहमत होना महत्वपूर्ण है। इस पर पूरी दुनिया की नजर थी।
पश्चिम के विशेषज्ञ अभी तक ब्रिक्स को ज्यादा महत्व नहीं देते थे, लेकिन अब उनका भी नजरिया बदलेगा। इस सम्मेलन में करीब तीन दर्जन देशों और संगठनों के नेता पहुंचे। यह बताता है कि पश्चिमी देशों के प्रभाव से बाहर निकल कर उन्हें विकासशील देशों के इस संगठन से जुड़ना बेहतर विकल्प लग रहा है। इतने नेताओं को बुलाना विश्व मंच पर पुतिन के महत्व को भी दर्शाता है। इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट के गिरफ्तारी वारंट के कारण वे पिछले साल दक्षिण अफ्रीका में हुए सम्मेलन में नहीं गए थे।
इस साल जनवरी में मिस्र, इथियोपिया, ईरान और संयुक्त अरब अमीरात के जुड़ने के बाद ब्रिक्स प्लस में नौ देश हो गए हैं। सऊदी अरब अभी तक इसमें शामिल तो नहीं हुआ, लेकिन उसके विदेश मंत्री इस सम्मेलन में आए। करीब तीन दर्जन और देश ब्रिक्स से जुड़ना चाहते हैं। तब इसका राजनीतिक और आर्थिक महत्व और बढ़ जाएगा। अंतरराष्ट्रीय इनवेस्टमेंट फर्म नेटिक्सिस की एशिया-पैसिफिक चीफ इकोनॉमिस्ट एलिसिया गार्सिया हेरेरो जागरण प्राइम से कहती हैं, “तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन और संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस का सम्मेलन में होना भी बड़ी उपलब्धि है। वे यूक्रेन मसले पर संयुक्त राष्ट्र में शांति प्रस्ताव ला सकते हैं।” एलिसिया के मुताबिक यह संगठन स्पष्ट रूप से पश्चिम विरोधी ब्लॉक बनता जा रहा है।
घोषणापत्र में ग्लोबल गवर्नेंस में छोटे देशों को भी शामिल करने का जिक्र है। चीन को छोड़ दें तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक जैसे संस्थानों में विकासशील देशों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है। इसलिए घोषणापत्र में इन संस्थानों का पुनर्गठन करने और विकासशील जगत का प्रतिनिधित्व बढ़ाने की बात कही गई है।
जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज के प्रोफेसर डॉ. अविनाश गोडबोले कहते हैं, “इस सम्मेलन में ग्लोबल साउथ यानी विकासशील देशों की आवाज के तौर पर ब्रिक्स ज्यादा मजबूत होकर उभरा है। समझौतों पर अमल की बात पहले भी कही जाती रही है, लेकिन इस बार भाषा अलग है, अमल पर जोर दिया गया है।”
ब्रिक्स का विस्तार
अंतरराष्ट्रीय रिसर्च संस्थान ब्रिक्स प्लस एनालिटिक्स के संस्थापक और मॉस्को स्थित स्बरबैंक के इनवेस्टमेंट रिसर्च हेड यारोस्लाव लिसोवोलिक के अनुसार, घोषणापत्र में ब्रिक्स के विस्तार की बात तो कही गई है, लेकिन किसी देश के सदस्य बनने अथवा सदस्यता के लिए विशेष रूपरेखा की जानकारी नहीं दी गई है। हो सकता है अगले साल ब्राजील की अध्यक्षता में होने वाली बैठक में इसे अंतिम रूप दिया जाए।
न्यू डेवलपमेंट बैंक और वैकल्पिक पेमेंट सिस्टम
ब्रिक्स देश उम्मीद के मुताबिक न्यू डेवलपमेंट बैंक में विभिन्न देशों की करेंसी का अधिक इस्तेमाल करने पर सहमत हुए हैं। बैंक की सदस्यता बढ़ाने के साथ विकासशील देशों में इसके कामकाज का विस्तार भी किया जाएगा। घोषणापत्र में तेज, कम खर्चीले, पारदर्शी, सुरक्षित और समावेशी क्रॉस बॉर्डर पेमेंट सिस्टम पर सहमति जताई गई है। साथ में यह भी कहा गया है कि इसमें ट्रेड बैरियर ना हो और इस तक पहुंच बिना भेदभाव के रहे। दरअसल, डॉलर का कद कम करने के मकसद से रूस ब्रिक्स देशों के बीच व्यापार के लिए वैकल्पिक पेमेंट सिस्टम शुरू करना चाहता है। स्विफ्ट से बाहर होने के बाद रूस इस प्रयास में लगा है। ब्रिक्स करेंसी को तो चर्चा में जगह नहीं मिली, लेकिन देशों के बीच अपनी करेंसी में व्यापार बढ़ाने की बात जरूर कही गई। चीन के साथ रूस का ज्यादातर कारोबार अपनी मुद्राओं में होता है।
एलिसिया कहती हैं, “मुझे लगता है कि इंटरनेशनल पेमेंट सिस्टम के जरिए पुतिन डी-डॉलराइजेशन रणनीति को आगे बढ़ाने में सफल रहे हैं। खास कर यह देखते हुए कि इसमें भारत, चीन, रूस जैसे देशों की अपनी करेंसी को जोड़ा गया है। पुतिन के लिए यह बड़ी उपलब्धि है क्योंकि इससे उनके लिए प्रतिबंधों का सामना करना आसान हो जाएगा।”
पढ़ें - विकासशील देशों का बड़ा मंच बन रहा ब्रिक्स
आपात स्थिति के लिए बने कॉन्टिनजेंट रिजर्व अरेंजमेंट (CRA) को ब्रिक्स प्लस देशों की जरूरत के मुताबिक संस्थागत रूप तो नहीं दिया गया, लेकिन इसे अपग्रेड करने की बात जरूर कही गई। यारोस्लाव के अनुसार, “इससे संकेत मिलता है कि आने वाले समय में विकासशील देशों की मदद में इसकी भूमिका बढ़ेगी।” सदस्य देश एक स्वतंत्र सेटलमेंट और डिपॉजिटरी इंफ्रास्ट्रक्चर ‘ब्रिक्स क्लियर’ स्थापित करने पर सहमत हुए हैं। हालांकि इससे जुड़ना स्वैच्छिक होगा। यारोस्लाव के मुताबिक, बैठक में इसकी जो अवधारणा रखी गई, वह भविष्य का आधार हो सकता है। हालांकि इसे पूरी तरह लागू करने में कई साल लग सकते हैं।
डब्लूटीओ और आईएमएफ में प्रतिनिधित्व
घोषणापत्र में नियम आधारित बहुपक्षीय ट्रेडिंग सिस्टम के तौर पर डब्लूटीओ का समर्थन किया गया है। इसके अलावा डब्लूटीओ से जुड़े मसलों के लिए ब्रिक्स इनफॉर्मल कंसल्टेटिव फ्रेमवर्क की बात कही गई है। यह संकेत है कि आने वाले समय में ब्रिक्स की ट्रेड पॉलिसी डब्लूटीओ के एजेंडे के भीतर ही होगी। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान के रूप में आईएमएफ का समर्थन करते हुए इसमें विकासशील देशों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने की बात कही गई है। विकसित और विकासशील जगत की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के संगठन के महत्वपूर्ण प्लेटफॉर्म के तौर पर जी-20 का भी समर्थन किया गया है।
गोडबोले कहते हैं, “अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के साथ चलने की जो बात कही गई है, तो मुझे लगता है कि अमेरिकी चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप के जीतने की संभावना इसकी वजह हो सकती है। इस बार घोषणापत्र में बहुध्रुवीय विश्व की बात कई बार कही गई है।”
वे कहते हैं, “खालिस्तानी नेताओं के मसले पर अमेरिका और कनाडा के साथ भारत का जो अभी विवाद चल रहा है, मुझे लगता है कि उसकी वजह से भी भारत ने ब्रिक्स का अधिक खुलकर पक्ष लिया है। इजरायल के ईरान पर हमले की भारत ने संयुक्त राष्ट्र में तो आलोचना नहीं की, लेकिन घोषणापत्र में इसकी स्पष्ट आलोचना की गई है। इजरायल के पेजर हमले का भी परोक्ष जिक्र है।”
ग्रेन ट्रेड एक्सचेंज
ब्रिक्स देशों ने ग्रेन ट्रेड एक्सचेंज गठित करने के रूस के प्रस्ताव का स्वागत किया है। बाद में इसका विस्तार दूसरे सेक्टर में किया जाएगा। संगठन में शामिल भारत, चीन, ब्राजील, रूस दुनिया के सबसे बड़े अनाज उत्पादक देशों में हैं। भारत और चीन दुनिया का आधे से अधिक चावल का उत्पादन करते हैं। चीन मक्का, सोयाबीन, गेहूं, जौ, सूरजमुखी आदि का सबसे बड़ा आयातक भी है। रूस सबसे बड़ा गेहूं निर्यातक है। ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका भी गेहूं, मक्का और सोयाबीन के बड़े निर्यातक हैं। ब्राजील और रूस 100 से अधिक देशों को अनाज निर्यात करते हैं। लेकिन इनके आयात-निर्यात की कीमतें उत्तर अमेरिका और यूरोप के एक्सचेंज से तय होती हैं।
ब्रिक्स री-इंश्योरेंस कंपनी की भी बात है, हालांकि इससे जुड़ना स्वैच्छिक होगा। पश्चिम की बीमा कंपनियां रूसी टैंकरों का बीमा नहीं कर रही हैं, जिससे रूस को तेल का निर्यात करने में दिक्कत आ रही है। यारोस्लाव के अनुसार, कुल मिलाकर कहा जाए तो आर्थिक सहयोग के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण पहल की गई हैं। लेकिन ज्यादातर पहल से जुड़ना देशों की इच्छा पर रखा गया है। इससे नए सदस्यों के लिए रास्ता आसान हो सकता है। हालांकि व्यापार के क्षेत्र में उदारीकरण, सिंगल करेंसी और केंद्रीय बैंकों के बीच सहयोग को घोषणापत्र में प्रमुखता नहीं मिली। ब्राजील की अध्यक्षता में इन पर भी ये देश आगे बढ़ सकते हैं।
चीन के साथ समझौता भारत की बड़ी उपलब्धि
ब्रिक्स सम्मेलन का हिस्सा नहीं होने के बावजूद चीन के साथ तनाव कम करना कजान में भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है। रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल मोहन भंडारी कहते हैं, “प्रधानमंत्री मोदी और चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग के बीच बातचीत होना बहुत अच्छा है, लेकिन हमें इसका अतीत भी देखना पड़ेगा। 62 साल पुरानी समस्या का हल इतनी जल्दी निकलता नहीं दिख रहा है। अक्साई चीन में भारत के 38000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर चीन का कब्जा है। इसी तरह अरुणाचल प्रदेश में भी 90000 वर्ग किलोमीटर पर उसका दावा है।”
वे कहते हैं, पाकिस्तान के साथ हमारी नियंत्रण रेखा स्पष्ट है, लेकिन चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा जमीन पर चिन्हित नहीं है। यह विवाद का कारण है। दोनों पक्ष अपने-अपने हिसाब से दावे करते हैं। दोनों देशों के बीच कूटनीतिक कार्रवाई कई साल से चल रही है। सेना के अधिकारियों की कई दौर की बातचीत हो चुकी है, लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका।
भंडारी के अनुसार अभी तो विदेश मंत्रालय इस विषय पर रक्षा मंत्रालय से बात करेगा, फिर दोनों मंत्रालयों के अधिकारी चीन में अपने समकक्ष अधिकारियों के साथ बात करेंगे। उसके बाद जमीन पर कार्रवाई होगी। दोनों देशों के अधिकारी मिलकर तय करेंगे कि वे कहां, किस बिंदु तक पैट्रोलिंग करने जा सकेंगे। यह सब पूरा होने में अभी समय लगेगा। अक्टूबर खत्म होने को है और उस इलाके में बर्फ पड़ने लगी है। गलवान झड़प के बाद चार साल से दोनों देशों के करीब 65000 सैनिक तैनात हैं। जमीनी स्तर पर निर्णय होने तक हमारी सेना पीछे नहीं हट सकती है। मौसम की वजह से जोजिला दर्रा बंद हो जाता है। इसलिए कुछ सैनिक फिलहाल हटाए जा सकते हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर उन्हें हटाने की कार्रवाई अगले साल ही संभव होगी।
भंडारी का यह भी मानना है कि इन सबके बाद दोनों देशों के बीच लेह, सेंट्रल सेक्टर और अरुणाचल प्रदेश में तीन जगहों पर हॉटलाइन स्थापित होनी चाहिए। अगर कभी कोई बात होती भी है तो हॉटलाइन पर उसे तत्काल सुलझाया जा सकता है। वे कहते हैं, भारत-चीन के अलावा दुनिया में और कोई देश नहीं जहां दो देशों के 65000 सैनिक आमने-सामने बैठे हों और चार साल से उनके बीच एक गोली न चली हो। यह दोनों पक्षों के संयम और उनकी परिपक्वता दिखाता है। हालांकि पुराने अनुभवों को देखते हुए वे चेताते भी हैं, “चीन के साथ हमारे पहले भी कई तरह के समझौते हुए हैं, लेकिन उन्हें न मानने वाला भी चीन ही है।”
2020 में गलवान में झड़प के बाद भारत ने चाइनीज कंपनियों के निवेश पर अंकुश लगाने के लिए नियम सख्त कर दिए, सैकड़ों चाइनीज ऐप पर प्रतिबंध लगा दिया और चीनी नागरिकों के लिए वीजा प्रक्रिया धीमी कर दी थी। लेकिन भारत का उद्योग जगत भी चाहता है कि चीन के खिलाफ सख्ती थोड़ी कम की जाए। उनका कहना है कि इससे हाई एंड मैन्युफैक्चरिंग प्रभावित हो रही है। भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनंत नागेश्वरन ने पिछले आर्थिक सर्वेक्षण में कहा था कि निर्यात बढ़ाने के लिए भारत या तो चीन की सप्लाई चेन के साथ अपने को जोड़े या वहां से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को प्रोत्साहित करे।
चीन को अमेरिका और यूरोप में व्यापार बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए हाल के महीनों में उसने क्वॉड संगठन में अमेरिका के सहयोगी ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे देशों के साथ संबंध सुधारने पर जोर दिया है। भारत के साथ चीन का रुख बदलने के पीछे भी यह बड़ा कारण हो सकता है। हालांकि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा है कि नियमों में ढील देने में भी सावधानी रखी जाएगी।