विचार: यथार्थवादी हुई भारतीय विदेश नीति, भारत को हर मोर्चे पर रहना होगा सावधान
हाल के समय में पाकिस्तान-अफगानिस्तान संबंधों में काफी कड़वाहट आई है, जिससे अफगानिस्तान के लिए भारत की महत्ता बढ़ी है। इसके अलावा चीन के अफगानिस्तान में बढ़ते हुए प्रभाव से मुकाबला करने के लिए भी भारत को तालिबान के साथ चलना पड़ेगा।
HighLights
- <p>भारत की विदेश नीति में यथार्थवाद का उदय</p>
- <p>तालिबान नेता मुत्तकी की भारत यात्रा</p>
- <p>अफगानिस्तान में भारत का निवेश और हित</p>
पवन चौरसिया। आज की भूराजनीतिक घटनाओं के विश्लेषण से स्पष्ट है कि राष्ट्रों के परस्पर संबंध जितने यथार्थवाद और साझा लाभ के कारण मधुर हो सकते हैं, उतने विचारधारा और साझा मूल्यों के दम पर नहीं। अमेरिका के विषय में तो यह बात द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही लागू है, जो राष्ट्रपति ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में और मुखर रूप से सामने आ रही है। यदि ऐसा न होता तो ‘वार आन टेरर’ छेड़ने वाला अमेरिका सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के बजाय आतंक को अपनी ‘राज्य-नीति’ के रूप में प्रयोग करने वाले एवं अधिकांश समय सैन्य तानाशाही में रहने वाले छद्म लोकतंत्र पाकिस्तान को प्राथमिकता नहीं दे रहा होता।
भारत की भी विदेश नीति आदर्शवाद से प्रभावित होकर लंबे समय तक लोकतंत्र, मानवाधिकार और स्वतंत्रता जैसे अपने राष्ट्रीय मूल्यों को विश्व में भारत के अंतरराष्ट्रीय संबंधों को स्थापित करने का आधार बनाकर चलती रही, जिसके चलते कई नुकसान झेलने पड़े। प्रधानमंत्री मोदी के शासन में इसमें परिवर्तन देखने को मिला। भारत ने भी वैश्विक राजनीति में विशुद्ध यथार्थवाद को गले लगाना शुरू कर दिया है।
अब भारत विदेश नीति में आवश्यकताओं और हितों को अपनी मान्यताओं के ऊपर रखता है। भारत द्वारा अफगानिस्तान के विदेश मंत्री और तालिबान के नेता आमिर खान मुत्तकी की मेजबानी इसका उदाहरण है। सनद रहे कि मुत्तकी का संगठन तालिबान जिस कट्टर इस्लामिक वहाबी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है, भारत उसका समर्थन करना तो दूर, उसे समझने और स्वीकार करने को भी राजी नहीं है, परंतु यथार्थवादी नीति का प्रदर्शन करते हुए भारत ने मुत्तकी के स्वागत के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी।
नई दिल्ली में विदेश मंत्री एस.जयशंकर ने आमिर खान मुत्तकी के साथ मुलाकात की। भारत ने अफगानिस्तान की संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और स्वतंत्रता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई। भारत ने काबुल में अपने तकनीकी मिशन को पूर्ण दूतावास का दर्जा देने की घोषणा की, जो तालिबान से संबंधों में सुधार का एक बड़ा संकेत है। जयशंकर ने सद्भावना के रूप में उन्हें पांच एंबुलेंस भी सौंपी, जो भारत की अफगानों के प्रति मानवतावादी दृष्टिकोण को रेखांकित करता है। मुत्तकी ने भी भारत को “करीबी दोस्त” मानते हुए पारस्परिक विकास एवं क्षेत्रीय स्थिरता के लिए गहरे सहयोग का वादा किया। जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताया।
मुत्तकी ने यह आश्वासन दिया कि अफगान क्षेत्र का उपयोग भारत सहित किसी भी देश के खिलाफ धमकी या नुकसान के लिए नहीं होगा। भारत ने छह विकास परियोजनाओं, एमआरआइ और सीटी स्कैनर जैसे चिकित्सा उपकरण, टीके, कैंसर की दवाएं और संयुक्त राष्ट्र समर्थित नशा मुक्ति सहायता सहित नई मानवीय पहलों का भी वादा किया। इसके इतर मुत्तकी ने भारतीय कंपनियों को अफगानिस्तान के खनन, ऊर्जा, बुनियादी ढांचे और कनेक्टिविटी जैसे क्षेत्रों में निवेश के लिए आमंत्रित किया। भारत ने अभी तक तालिबान सरकार को औपचारिक मान्यता नहीं दी है, लेकिन इस दौरे से दोनों देशों के बीच संबंधों को मजबूत करने की संभावनाएं खुल सकती हैं।
पहले की तुलना में आज के अफगानिस्तान की घरेलू और क्षेत्रीय वास्तविकताएं बदल गई हैं। अफगानिस्तान में तालिबान के समक्ष कोई सक्षम संगठित विपक्ष नहीं है। ऐसे में भारत के पास भी तालिबान से सहयोग बढ़ाने के अलावा कोई विशेष विकल्प नहीं है। भारत अपनी पुरानी गलती को नहीं दोहराना चाहता, जब उसने तालिबान की पिछली सरकार से कोई संपर्क नहीं रखा और उसका खामियाजा उसे 1999 के कंधार विमान अपहरण कांड में उठाना पड़ा। उस समय पाकिस्तानी आतंकी विमान को कंधार ले गए थे। यदि भारत का उस समय तालिबान से कोई संपर्क होता तो शायद विमान छोड़ने की शर्तों को कम कठिन बनाया जा सकता था।
भारत ने अफगानिस्तान में लगभग तीन अरब डालर का निवेश किया है, जिसकी रक्षा के लिए तालिबान के साथ काम करना आवश्यक हो जाता है। भारत द्वारा विकसित किया जा रहा ईरान का चाबहार बंदरगाह भी अफगानिस्तान के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे पर एक प्रमुख पारगमन केंद्र के रूप में इसकी स्थिति इसे इस क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण वाणिज्यिक केंद्रों में से एक के रूप में विकसित होने की क्षमता प्रदान करती है।
तालिबान को अफगानिस्तान की सियासत से बेदखल तो नहीं किया जा सकता, लेकिन यह दबाव जरूर डाला जा सकता है कि वह अफगानिस्तान की धरती का प्रयोग भारत-विरोधी गतिविधियों के रूप में न होने दे और पिछले शासन की तरह क्रूरता न दिखाए और अपने यहां महिलाओं, बच्चों एवं अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करे।
भारत तालिबान को मान्यता देने के लिए संयुक्त राष्ट्र और अन्य वैश्विक शक्तियों से मिलकर काम कर सकता है और बदले में तालिबान से कुछ रियायतें हासिल कर सकता है, जिसमें सबसे आवश्यक है कि वह पाकिस्तान की गतिविधियों पर नजर बनाए रखने में भारत का सहयोग करे। हाल के समय में पाकिस्तान-अफगानिस्तान संबंधों में काफी कड़वाहट आई है, जिससे अफगानिस्तान के लिए भारत की महत्ता बढ़ी है। इसके अलावा चीन के अफगानिस्तान में बढ़ते हुए प्रभाव से मुकाबला करने के लिए भी भारत को तालिबान के साथ चलना पड़ेगा।
(लेखक इंडिया फाउंडेशन में रिसर्च फेलो हैं)
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