विचार: अपनी ही बिसात पर मात खा गए ट्रंप, रूसी तेल खरीद के मामले में नहीं चल पाए अपनी चाल
कुछ लोगों को लगता है कि ट्रंप भारत और रूस के बीच दरार डालने और दबाव बढ़ाकर बेहतर व्यापार सौदा पटाने के लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल कर रहे हैं। काम निकलते ही बदल सकते हैंलेकिन अमेरिका के पूर्व राजनयिकों और समीक्षकों की राय है कि ट्रंप तात्कालिक आर्थिक लाभ के लिए पांच सरकारों की 30 वर्षों की मेहनत से तैयार हुई चीन की काट को दांव पर लगा रहे हैं।
शिवकांत शर्मा। इस बात पर शायद ही किसी को आश्चर्य हुआ हो कि राष्ट्रपति ट्रंप और पुतिन के बीच शिखर वार्ता से कोई ठोस परिणाम नहीं निकला। आश्चर्य इस बात पर हुआ कि ‘पुतिन ने युद्धविराम से इन्कार किया तो गंभीर परिणाम भुगतने होंगे’ की धमकी देकर शिखर वार्ता में जाने वाले ट्रंप तीन घंटे चली वार्ता से यह कहते हुए कैसे निकले कि वे ‘अस्थायी युद्धविराम की जगह स्थायी शांति समझौते को प्राथमिकता देंगे।’ उनके बदले सुरों से तो यही संकेत मिलता है कि राष्ट्रपति पुतिन अपना पक्ष प्रभावी ढंग से रखकर उनकी राय बदलने में कामयाब रहे। इसे देखकर यही लगता है स्वनामधन्य सौदा-निपुण ट्रंप साहब की कोई चाल कारगर नहीं सिद्ध हो पाई।
शिखर वार्ता के बाद पुतिन ने कहा कि हम ईमानदारी से चाहते हैं कि यूक्रेन का संघर्ष समाप्त हो, पर इसके स्थायी और दीर्घकालिक समाधान के लिए हमें उसके बुनियादी कारणों को दूर करना होगा। पुतिन शुरू से ही यूक्रेन को नाटो में शामिल करने और यूक्रेन में रूस विरोधी सरकार लाने के कथित षड्यंत्र को इस संघर्ष का बुनियादी कारण मानते रहे हैं। यही दलील देकर उन्होंने 2014 में क्रीमिया प्रायद्वीप पर कब्जा किया था और साढ़े तीन साल पहले यूक्रेन पर हमला शुरू किया।
ऐसे में ट्रंप जिन बातों पर सहमति का इशारा कर रहे हैं, उनमें पहली तो यही हो सकती है कि ट्रंप की तरह पुतिन भी अब संघर्ष का समाधान चाहते हैं। दूसरी सहमति यूक्रेन को नाटो में शामिल न करना हो सकती है। तीसरी, दोनों का यह मानना कि बाइडन की जगह यदि ट्रंप राष्ट्रपति होते तो शायद लड़ाई छिड़ने की नौबत नहीं आती। इसके अलावा यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि दोनों ही यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की को पसंद नहीं करते।
ट्रंप ने जिन अड़चनों का संकेत दिया है, उनमें सबसे प्रमुख यूक्रेन के वे चार पूर्वी प्रांत हैं जिनके अधिकांश भाग रूसी सेना के कब्जे में आ चुके हैं। ट्रंप कई बार इशारा कर चुके हैं कि यदि यूक्रेन लुहांस्क और डोनेस्क प्रांतों की पूरी जमीन रूस को सौंप दे और क्रीमिया को भूल जाए तो बदले में रूस खरसोन और जफरीजिया प्रांतों की जीती हुई जमीन लौटा सकता है। शायद इसी मुद्दे पर आगे बात करने के लिए जेलेंस्की को व्हाइट हाउस बुलाया गया है।
हालांकि जेलेंस्की सार्वजनिक रूप से कई बार कह चुके हैं कि वे जमीन देकर आक्रांता से शांति खरीदने के लिए कभी तैयार नहीं होंगे और वह भी रूस जैसे आक्रांता से जो शांति की जुबान देकर कभी भी मुकर सकता है। जेलेंस्की तैयार भी हो जाएं तो उनकी संसद तैयार नहीं होगी। पुतिन भी यह जानते हैं। शायद इसीलिए असंभव शर्तें रख रहे हैं।
वैसे भी रूस को जीती हुई जमीन देकर शांति का सौदा करना संयुक्त राष्ट्र चार्टर का उल्लंघन होगा और पूरी दुनिया के लिए एक खतरनाक मिसाल कायम करेगा। सबसे बड़ा सवाल तो यूक्रेन और रूस दोनों की असुरक्षा की भावना दूर करने का है। नाटो और अमेरिका की सुरक्षा गारंटी के बिना यूक्रेन के अस्तित्व को खतरा है और इनकी यूक्रेन में उपस्थिति को रूस खतरा मानता है।
ट्रंप को लगता था कि तालियां बजाकर स्वागत-सत्कार करके वे पुतिन को किसी नाटकीय शांति समझौते के लिए तैयार कर लेंगे, लेकिन पुतिन ने सिद्ध कर दिया कि वे कूटनीतिक शतरंज के माहिर हैं। युद्धविराम भी नहीं किया और जेलेंस्की के साथ त्रिपक्षीय वार्ताओं की बात मानकर उन आर्थिक प्रतिबंधों को कुछ समय के लिए टलवा लिया, जिनकी ट्रंप धमकी दे रहे थे। वार्ता के बाद एक इंटरव्यू में ट्रंप ने कहा कि रूस पर आर्थिक प्रतिबंधों के बारे में वे दो-तीन हफ्ते बाद फैसला लेंगे। इसलिए जब तक यूक्रेन वार्ताओं का सिलसिला जारी रहता है तब तक भारत पर भी वह 25 प्रतिशत अतिरिक्त टैरिफ नहीं लगना चाहिए जो रूस से तेल खरीदने के लिए लगना था।
हालांकि ट्रंप के बारे में कोई भी अनुमान लगाना संभव नहीं है। उसी चैनल को वार्ता से पहले दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि रूस एक ऐसा ग्राहक खो चुका है जो उसका 40 प्रतिशत तेल खरीद रहा था। वे भारत की तरफ इशारा करके यह दावा कर रहे थे कि टैरिफ से बचने के लिए भारत ने रूस से तेल खरीदना बंद कर दिया है। भारत ने यदि ऐसा किया भी है तो उसका कारण यह भी तो हो सकता है कि बाजार में अब तेल की कीमतें उन्हीं दरों पर आ गई हैं, जिन रियायती दरों पर रूस से तेल मिल रहा था।
ट्रंप प्रशासन के सूत्रों के अनुसार उनकी भारत से नाराजगी की असली वजह दरअसल रूसी तेल या हथियार खरीदना नहीं है। टेलीफोन पर आधे घंटे की वह बातचीत है, जो ट्रंप और प्रधानमंत्री मोदी के बीच कनाडा के जी-7 शिखर के बाद और ट्रंप के जनरल मुनीर के साथ लंच से एक दिन पहले हुई थी।
इसी बातचीत में प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रंप को याद दिलाया था कि न तो आपरेशन सिंदूर के दौरान उनकी और मोदी की कोई बातचीत हुई और न भारत द्विपक्षीय मामलों में किसी की मध्यस्थता स्वीकार करता है। ट्रंप तभी से बौखलाए हुए हैं। दूसरी तरफ पाकिस्तान साल की शुरुआत से ही उन्हें साधने में लगा हुआ है।
कुछ लोगों को लगता है कि ट्रंप भारत और रूस के बीच दरार डालने और दबाव बढ़ाकर बेहतर व्यापार सौदा पटाने के लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल कर रहे हैं। काम निकलते ही बदल सकते हैं, लेकिन अमेरिका के पूर्व राजनयिकों और समीक्षकों की राय है कि ट्रंप तात्कालिक आर्थिक लाभ के लिए पांच सरकारों की 30 वर्षों की मेहनत से तैयार हुई चीन की काट को दांव पर लगा रहे हैं।
आर्थिक और सामरिक नुकसान भारत को भी होगा, पर आशा है कि भारत इस आपदा का प्रयोग प्रधानमंत्री के शब्दों में अपनी लकीर बढ़ाने में कर सकता है और यूरोप, चीन, रूस, ब्रिक्स देशों और पूर्वी एशिया में अपना व्यापार फैला सकता है। अमेरिका के साथ सामरिक और आर्थिक सहयोग बढ़ाना भी जरूरी होगा, लेकिन हेनरी किसिंजर का यह प्रसिद्ध कथन याद रखते हुए कि अमेरिका से दुश्मनी खतरनाक है, पर दोस्ती कहीं ज्यादा घातक हो सकती है।
(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)
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