सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर के खजाने की खोजबीन पूरी हो गई। दो दिन तक चले इस अभियान में इस मंदिर के खजाने से कुछ विशेष नहीं मिला। जहां पहले दिन कुछ बर्तन और खाली संदूक मिले, वहीं दूसरे दिन सोने की एक और चांदी की तीन छड़ें मिलीं। आम धारणा यह थी कि खजाने में बहुत सारी संपत्ति मिलेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। संभवत: इसका कारण यह रहा कि 54 वर्ष पहले जब इस खजाने को खोला गया था तो उसकी संपत्ति एक बैंक में जमा कर दी गई थी।

इसके बाद भी प्रश्न यह है कि क्या इतने वर्षों में खजाने में कोई सामग्री नहीं रखी गई? वस्तुस्थिति जो भी हो, इस मंदिर के खजाने को खोलने के निर्णय का विरोध भी किया गया। चूंकि खजाना खोलने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया था, इसलिए विरोध का कोई औचित्य नहीं बनता। प्रश्न यह नहीं है कि इस मंदिर के खजाने से अपेक्षित संपदा क्यों नहीं मिली, बल्कि यह है कि मंदिरों की संपत्ति और विशेष रूप से चढ़ावे में मिली सामग्री के रखरखाव की प्रक्रिया पारदर्शी क्यों नहीं है? यह सही समय है कि सभी मंदिरों को मिलने वाले चढ़ावे की सामग्री का रखरखाव पारदर्शी तरीके से किया जाए। इसका कोई औचित्य नहीं कि मंदिर के खजाने दशकों बाद खोले जाएं।

एक ओर जहां यह आवश्यक है कि मंदिरों के चढ़ावे में मिले धन एवं अन्य सामग्री का रखरखाव पारदर्शी तरीके से किया जाए, वहीं दूसरी ओर इसकी भी आवश्यकता है कि उसका उपयोग धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक कार्यों में ही किया जाना सुनिश्चित किया जाए। यही बात मंदिरों की अन्य संपत्ति पर भी लागू होती है। इसे पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के उस आदेश ने रेखांकित भी किया, जिसमें कहा गया है कि मंदिरों को दान की गई धनराशि का समुचित उपयोग किए जाने की पारदर्शी व्यवस्था बने।

हिमाचल हाई कोर्ट ने मंदिरों की आय को देवी-देवताओं की संपत्ति बताया और यह स्पष्ट किया कि चढ़ावे में मिले धन का उपयोग सामाजिक, शैक्षणिक, धर्मार्थ कार्यों में खर्च किया जाए। उसने अपने आदेश में यह भी साफ किया कि मंदिर के ट्रस्टी केवल उसके संरक्षक हैं और उसकी संपत्ति पर सरकार का कोई अधिकार नहीं बनता।

हाई कोर्ट ने मंदिरों की आय और व्यय का विवरण सार्वजनिक तौर पर जारी रखने के निर्देश देते हुए यह भी कहा कि सरकारों को मंदिरों की आय को अपनी योजनाओं पर खर्च करने का अधिकार नहीं, लेकिन यह देखने में आ रहा है कि कई राज्यों में मंदिरों का संचालन ऐसे ट्रस्टों की ओर से किया जा रहा है, जिनमें सरकार का दखल होता है। आखिर जब अन्य समुदायों के धार्मिक स्थलों का संचालन उस समुदाय विशेष के लोग करते हैं तो मंदिरों के मामले में ऐसा क्यों नहीं है?