सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने यह सही कहा कि शीर्ष न्यायालय जनता की अदालत है और उसे इसी रूप में अपनी भूमिका निभानी चाहिए, लेकिन क्या वह ऐसा कर पा रहा है? यह प्रश्न इसलिए, क्योंकि पिछले दिनों ही सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें तय सीमा में फैसला देने का आग्रह किया गया था। इस याचिका को खारिज करते हुए कहा गया था कि भारत का सुप्रीम कोर्ट अमेरिका जैसा नहीं है। इसके अतिरिक्त यह भी बताया गया था कि हमारी ओर से एक दिन में जितने मामलों का निस्तारण किया जाता है, उतने तो कई पश्चिमी देशों में एक वर्ष में भी नहीं किए जाते।

इस तथ्य से इन्कार नहीं, लेकिन इसके बावजूद सच यह भी है कि देश की विभिन्न अदालतों में करोड़ों मुकदमे लंबित हैं। इन अदालतों में सुप्रीम कोर्ट भी शामिल है। यह ध्यान रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमों का निस्तारण एक निश्चित समय में किए जाने की मांग को वांछनीय तो बताया था, लेकिन उसे असंभव करार दिया था। आखिर जो वांछनीय है, उसे क्यों नहीं किया जाना चाहिए? यदि मामलों के निपटारों के लिए न्यायाधीशों और अदालतों की संख्या बढ़ाने की आवश्यकता है तो उसकी पूर्ति क्यों नहीं की जा सकती? यह निराशाजनक है कि इस दिशा में कोई पहल करने के स्थान पर देश की जनता को यह संदेश दिया जा रहा है कि हम समय पर न्याय नहीं दे सकते। कम से कम सुप्रीम कोर्ट के स्तर पर तो ऐसा संदेश नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि समय पर न्याय न मिलना अन्याय ही है।

अच्छा तो यह होगा कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट तय समय में न्याय देने की दिशा में आगे बढ़ें, ताकि निचली अदालतें भी ऐसा करने के लिए प्रेरित हों और जो करोड़ों लोग न्याय के लिए प्रतीक्षारत हैं, उनमें आस जगे। सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश ने गत दिवस यह भी कहा कि जनता की अदालत होने का मतलब यह नहीं कि हम संसद में विपक्ष की भूमिका निभाएं। निःसंदेह उसे निभाना भी नहीं चाहिए, लेकिन क्या यह किसी से छिपा है कि पिछले कुछ समय से सरकार के हर फैसले और यहां तक कि संसद से पारित प्रत्येक कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का सिलसिला कायम है। यदि सुप्रीम कोर्ट जनहित याचिकाओं के सहारे सरकार एवं संसद के हर फैसले की समीक्षा करेगा और यहां तक कि कानूनों की वैधानिकता परखे बिना उनके अमल पर रोक लगा देगा, जैसा कि कृषि कानूनों के मामले में हुआ था तो फिर वह विपक्ष की भूमिका का निर्वाह करता हुआ ही दिखेगा। यदि सुप्रीम कोर्ट को जनता की अदालत के रूप में अपनी छवि को मजबूत करना है तो उसे संसद के हर फैसले की समीक्षा करना छोड़ना होगा और लोगों को तय समय पर न्याय देने पर विशेष ध्यान देना होगा।