इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि अपने सरकारी आवास में अधजले नोट मिलने के कारण इलाहाबाद हाई कोर्ट भेजे गए जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रक्रिया आगे बढ़ती हुई दिख रही है। लोकसभा अध्यक्ष ने पर्याप्त संख्या में सांसदों के हस्ताक्षर वाले महाभियोग प्रस्ताव को स्वीकार करने के साथ ही यशवंत वर्मा पर लगे गंभीर आरोपों की जांच के लिए जो समिति गठित की, उसमें सुप्रीम कोर्ट के जज के साथ मद्रास हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी हैं।

जब यह समिति अपनी रिपोर्ट देगी, तब संसद में महाभियोग प्रस्ताव पर चर्चा की नौबत आएगी। माना जाता है कि ऐसा शीतकालीन सत्र में हो सकता है। इसका मतलब है कि यशवंत वर्मा कुछ और माह तक सुविधाओं का लाभ लेते रहेंगे और न्यायाधीश कहलाते रहेंगे। क्या यह न्यायपालिका और लोकतंत्र का उपहास नहीं होगा? जस्टिस यशवंत वर्मा के दिल्ली स्थित सरकारी आवास में इसी वर्ष मार्च में तमाम अधजले नोट मिले थे।

वे यह नहीं बता पाए कि उनके सरकारी आवास में इतनी अधिक राशि कहां से आ गई और कौन रख गया? उनकी मानें तो किसी ने उनके खिलाफ साजिश की है। क्या यह बात आसानी से हजम होने लायक है? आखिर हाई कोर्ट के जज के सरकारी आवास में कौन बड़ी संख्या में नोट रख सकता है?

यह बिल्कुल भी ठीक नहीं कि प्रथमदृष्टया गंभीर किस्म के भ्रष्टाचार के दोषी नजर आ रहे जस्टिस यशवंत वर्मा त्यागपत्र देने के बजाय महाभियोग प्रक्रिया का सामना करने की जिद ठाने हुए दिख रहे हैं। इससे तो भारतीय न्यायपालिका की प्रतिष्ठा पर चोट ही पहुंच रही है।

यह शर्मनाक है कि यशवंत वर्मा इसके बाद भी इस्तीफा देने की जरूरत नहीं समझ रहे हैं कि उनके आवास में अधजले नोट मिलने की जांच करने वाली सुप्रीम कोर्ट की समिति ने उन्हें कठघरे में खड़ा किया और उनकी यह दलील मानने से इन्कार किया कि उनकी सफाई भरोसा करने लायक नहीं है।

इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने उनकी वह याचिका खारिज कर दी, जिसमें उन्होंने अपने खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की आंतरिक जांच समिति की रिपोर्ट को चुनौती दी थी। कायदे से इस याचिका के खारिज होते ही उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए था, लेकिन ऐसा लगता है कि वे महाभियोग की प्रक्रिया का सामना करते हुए अपने बचाव के जतन करेंगे।

शायद इसलिए करेंगे कि अभी तक उच्चतर न्यायपालिका के किसी भी जज के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पारित नहीं हो सका है। नि:संदेह इसका यह मतलब नहीं कि उच्चतर न्यायपालिका में कहीं कोई भ्रष्टाचार नहीं है। सच्चाई इसके विपरीत है। अच्छा यह होगा कि भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे न्यायाधीशों से मुक्ति पाने की कोई आसान व्यवस्था बनाई जाए।