राजीव सचान। किसी भी निर्धारित प्रक्रिया की अनदेखी आम तौर पर नियमों का उल्लंघन ही होती है। जब ऐसा लगातार होता रहता है तो व्यवस्था अव्यवस्था का रूप ले लेती है और जब ऐसा होता है तो इसके घातक नतीजे सामने आते हैं। बीते दिनों एक ऐसा ही नतीजा झारखंड के पश्चिम सिंहभूम जिले में चाईबासा के सदर अस्पताल में आया। यहां थैलीसीमिया पीड़ित पांच बच्चों को एचआइवी संक्रमित रक्त चढ़ा दिया गया। इस मामले का पता तब चला, जब एचआइवी से संक्रमित हो गए एक बच्चे के माता-पिता ने ब्लड बैंक की लापरवाही की शिकायत की।

इस शिकायत के बाद थैलीसीमिया पीड़ित अन्य की जांच की गई तो चार और बच्चे ऐसे ही मिले। कायदे से पहला मामला सामने आते ही स्थानीय प्रशासन और शासन के कान खड़े हो जाने चाहिए थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सबसे पहले इस मामले का संज्ञान झारखंड हाई कोर्ट ने लिया। इसके बाद राज्य सरकार भी अपने स्तर पर कुछ करने के लिए मजबूर हुई। उसने एक उच्चस्तरीय जांच समिति गठित कर दी। फिलहाल यह समिति थैलीसीमिया पीड़ित बच्चों को एचआइवी संक्रमित रक्त चढ़ाए जाने की जांच कर रही है।

बच्चों को एचआइवी संक्रमित रक्त चढ़ाने की घटना पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने पश्चिमी सिंहभूम के सिविल सर्जन समेत अन्य अधिकारियों को निलंबित करने और सभी ब्लड बैंकों का आडिट करने का निर्देश दिया है। इसके अतिरिक्त पीड़ित बच्चों के स्वजनों को दो-दो लाख रुपये का मुआवजा देने की भी घोषणा की। उनकी ओर से यह भी कहा गया कि इन बच्चों का उपचार सरकारी खर्च पर कराया जाएगा। इसके बाद भी उन अभिभावकों की पीड़ा का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है, जिनके बच्चे थैलीसीमिया के बाद एचआइवी से भी ग्रस्त हो गए।

इतनी बड़ी त्रासदी और फिर भी मुआवजा महज दो लाख रुपये। फिलहाल इस पर कुछ कहना कठिन है कि पांच बच्चों को एचआइवी संक्रमित रक्त चढ़ाने के मामले की जांच-पड़ताल में क्या निकलकर सामने आएगा और दोषी लोगों को कोई कठोर दंड दिया जा सकेगा या नहीं? चूंकि प्रारंभिक जांच में ही यह सामने आ गया कि ब्लड बैंक में कई स्तरों पर अव्यवस्था थी, इसलिए यह तो निष्कर्ष निकलना ही है कि वहां आए रक्त के रखरखाव और उपयोग की जो भी प्रक्रिया तय थी, उसका उल्लंघन हो रहा था।

इसमें संदेह है कि इस आघातकारी और शर्मनाक घटना के दोषी लोगों को वास्तव में कठोर दंड का भागीदार बनाया जा सकेगा। इसके आसार इसके बाद भी नहीं कि इस मामले को लेकर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला कायम हो गया है और विपक्ष की ओर से राज्य के स्वास्थ्य मंत्री का त्यागपत्र मांगा जा रहा है। इसके प्रति सुनिश्चित हुआ जा सकता है कि कोई त्यागपत्र देने वाला नहीं है। अपने यहां बड़ी से बड़ी घटना घट जाती है, लेकिन जिम्मेदार लोग अपने पद का त्याग करना आवश्यक नहीं समझते। ऐसा तब भी नहीं होता, जब नियमों-मानकों की अनदेखी के चलते दर्जनों लोग मारे जाते हैं।

यदि कुछ होता है तो यह कि कुछ लोगों को निलंबित कर दिया जाता है और जनहानि की स्थिति में मुआवजे की घोषणा के साथ ही नेताओं की ओर से अफसोस जता दिया जाता है। धीरे-धीरे लोग गंभीर से गंभीर मामले को भूल जाते हैं और फिर किसी को इसकी फिक्र नहीं रहती कि दोषी लोगों को सजा मिल जा सकी या नहीं? इस मामले में भी ऐसा ही हो और कुछ समय बाद निलंबित लोग बहाल हो जाएं तो कोई नई-अनोखी बात नहीं होगी। अपने देश की समस्या ही यह है कि बड़ी से बड़ी घटनाओं के लिए जिम्मेदार लोगों को कभी भी ऐसी कोई सजा नहीं दी जाती, जो नजीर बन सके। इसके चलते वैसी घटनाएं रह-रहकर होती रहती हैं, जैसी पहले हो चुकी होती हैं।

यह पहली बार नहीं है, जब देश में किसी को एचआइवी संक्रमित रक्त चढ़ा दिया गया हो। इस तरह की घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं और आश्चर्य नहीं कि आगे भी देखने को मिलें। इसकी आशंका देश के विभिन्न हिस्सों से ब्लड बैंक की व्यवस्था दुरुस्त करने के आदेश देने संबंधी खबरों के बाद भी है। इसे और अच्छी तरह इससे समझा जा सकता है कि पिछले दिनों मध्य प्रदेश और राजस्थान में विषाक्त कफ सीरप से करीब 25 बच्चों की मौत। जानलेवा कफ सीरप से बच्चों की मौत की घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं। तब भी वे सुर्खियां बनी थीं और हर स्तर पर जांच और कठोर कार्रवाई करने के आश्वासन भी दिए गए थे। यदि ये आश्वासन सचमुच ठोस होते तो विषाक्त कफ सीरप से 25 और बच्चे नहीं मरते। इतनी अधिक मौतों के बाद यह कहा जा रहा है कि दवाओं की गुणवत्ता के परीक्षण की प्रक्रिया में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाएगा।

इसके साथ ही संबंधित कानून में संशोधन की भी बात हो रही है। इससे बहुत अधिक उत्साहित नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि कानूनों में संशोधन कर उन्हें कठोर करना समस्या के समाधान की गारंटी नहीं। इसलिए नहीं, क्योंकि करीब-करीब हर क्षेत्र में निर्धारित प्रक्रिया, तय नियमों और मानकों की अनदेखी ने एक अलिखित नियम का रूप ले लिया है। इसी कारण अपने देश में हादसे होते रहते हैं और लोगों की जान के लिए जोखिम पैदा होता रहता है। अकाल मौतों को आम तौर पर विधि का विधान या नियति का खेल मान लिया जाता है, लेकिन वे मानव जीवन से खिलवाड़ का नतीजा ही होती हैं।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)