विचार: दायित्व बोध और प्रेरणा का पर्व, छठ का संदेश- प्रकृति के हितकारी बनें और सूर्य की तरह समभाव रखें
भारत के पर्व सदियों से अमरत्व प्राप्त हैं जो खुशियों को बांटने के लिए होते हैं। प्रसाद वितरण और प्रसाद पाने में किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव इस त्योहार में नहीं किया जाता। इस त्योहार से हमें प्रेरणा मिलती है कि हमारा दायित्व क्या है हम प्रकृति के सहचर बनें, समाज के हितकारी बनें, समाज के निर्माण में सूर्य की तरह समभाव रखें। नदियों की तरह समभाव से सबका समान रूप से पोषण करें। इस प्रकार सच्चे मानवतावादी बनने में यह पर्व हमें सर्वाधिक प्रेरणा देता है।
HighLights
दायित्व बोध और प्रेरणा का पर्व
प्रकृति के प्रति हितकारी बनें
प्रो. आरएन त्रिपाठी। भारत उत्सवों का देश है। हर उत्सव अपने विविधतापूर्ण अर्थ लिए हुए है, किंतु उनके कुछ मूल्य सार्वभौमिक हैं। प्रकृति का संरक्षण और मनुष्य के साथ उसका सामंजस्य उत्सवों का ऐसा ही एक सार्वभौमिक संदेश है। सदियों से हमारी परंपरा रही है कि हम सर्वस्पर्शी उत्सवों का आनंद लें और प्रकृति के साथ यथोचित समावेशन भी करें। इसीलिए इन उत्सवों में जाति, गरीबी-अमीरी, ऊंच-नीच किसी भी प्रकार का सामाजिक, सांस्कृतिक भेदभाव नहीं रहता और सभी के समावेशन के आधार पर श्रद्धा के साथ पूर्ण समर्पण भाव के साथ ये उत्सव मनाए जाते हैं।
‘छठ’ ऐसा ही एक परंपरागत उत्सव है। इसमें पूजन के लिए नदी का जल, जो सबके लिए समान रूप से उपलब्ध है और आराधना के लिए देवता सूर्य जो सबको समान रूप से प्रकाश देते हैं। वे मानो यही कहते हैं कि यह संपूर्ण ब्रह्मांड समान भाव से मेरे लिए है, आप भी अपने आचरण से मेरे समान समानधर्मी बनें। इस पर्व पर जितनी भी वस्तुएं तैयार की जाती हैं और पर्व में जो पूजा-सामग्री प्रयुक्त होती है, उनमें से अधिकांश स्वनिर्मित होती हैं। परिवार के सदस्य उन्हें तैयार करने में योगदान करते हैं।
स्थानीयता और पर्यावरण सुरक्षा दोनों की दृष्टि से यह उत्सव अति महत्वपूर्ण है। इस उत्सव के लिए किसी प्रकार के मंदिर, धाम और आश्रम की भी आवश्यकता नहीं होती, बल्कि नदियों का खुला सार्वजनिक स्थान ही सर्वाधिक उपयुक्त होता है। मानो यह कहता है कि वास्तविक वैभव और विलास की जगह महल और मंदिर नहीं है, बल्कि मिलने-जुलने से जुड़ी परस्पर सामूहिकता है और प्रकृति प्रदत्त व्यवस्था है। व्यक्तिवाद से दूर रहकर प्रकृति की गोद में बैठकर ही अगर प्रकृति का पूजन किया जाए तो वह सर्वाधिक अच्छा होता है।
ईख, केला, फूल, फल यहां तक कि जिसमें सामान रखा जाता है वह टोकरी भी बांस की बनी होती है। समस्त पूजन सामग्री मौलिक और मूल प्राकृतिक रूप में और सबके लिए समान उपलब्धता वाली होती है। इसमें किसी प्रकार की धन-संपत्ति का दिखावा नहीं होता और न पूजा पाठ कराने वालों की ही आवश्यकता होती है। हमारे देश के अधिकांश त्योहार ऊर्जा केंद्रित होते हैं। विशेष करके छठ का जो त्योहार है, यह वैज्ञानिक ऊर्जा की प्राप्ति का भी पर्व है, क्योंकि ऊर्जा का स्रोत सूर्य है और उगता सूर्य विशेषकर हमें तमाम प्रकार के विटामिन और पोषण प्रदान करता है।
छठ ऐसा पर्व है, जहां कोई मालिक नहीं, बल्कि सभी साधिकार मात्र आवश्यकता भर के भोक्ता हैं। जैसे सूर्य की पूजा समान रूप से की जाती है। नदी में की जाती है। दोनों सदा सर्वदा एकसमान सबके लिए उपलब्ध है। एक ही समय पर की जाती है। उगते और अस्त दोनों समय अर्थात वैभव-पराभव दोनों काल में इस भाव से की जाती है कि यह केवल तुम्हारा नहीं है और स्थिर भी नहीं है, ऐसे ही उन्नत्ति-पतन दोनों पड़ाव मानव जीवन में आते-जाते रहते हैं। यह पर्व संदेश देता है कि नदी केवल तुम्हारी नहीं है। घाट केवल तुम्हारे नहीं है।
तुम मात्र एक न्यासी यानी आंशिक भोक्ता हो और तुम्हें एक दिन यह सब छोड़कर के जाना होगा और ये सब यहां ऐसे ही बने रहेंगें, आपकी आगे आने वाली पीढ़ी के लिए। यही असली ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ का सिद्धांत है जिसका’छठ’ पर्व जैसा उपयुक्त उदाहरण दुनिया में नहीं है। हम मनुष्यों में भी जीव-जंतु, जड़-चेतन की तरह किसी से किसी प्रकार के अधिकार को लेकर के इस त्योहार में लड़ाई नहीं होती है।
वैसे आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो यह हमारा पंच-रचित भौतिक शरीर जिसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु की पूजा होती है, इस छठ में इस पंचरचित शरीर के आधार पर ही पूजा की जाती है। इस संपूर्ण रचनाधर्मिता के पीछे एकमात्र मनुष्य ही भोक्ता होता है बाकी सब कुछ प्रकृति ही मनुष्य को देती है और यह भी कहती है कि तुम मात्र भोक्ता हो, भोक्ता की तरह व्यवहार करो न कि मालिक की तरह, क्योकि तुम्हारी जीवन दात्री मैं ही हूं।
चार दिन चलने वाला यह पर्व शारीरिक, मानसिक और वैचारिक पवित्रता को प्राप्त कराता है। इसमें हमारी अंतःकरण की पवित्र शक्तियां भी जागृत हो जाती हैं और अंतस में जो छल, द्वेष, पाखंड, कपट है उसका क्षय हो जाता है। चित्त में विशेष प्रकार की शांति आ जाती है। यह त्योहार स्वच्छता कार्यक्रम का भी सबसे बड़ा पर्याय है और प्रधानमंत्री द्वारा चलाए जा रहे अभियान में सामूहिक स्वच्छता, सामूहिकता और सहकारिता तीनों के अनुपालन की दृष्टि से एकमात्र त्योहार है। इसकी शुचिता, पवित्रता ऐसी है जहां पर्यावरण प्रदूषण न हो, सार्वजनिक स्थलों की भी सफाई हो, प्रत्येक वस्तु का अपना महत्व हो। यह पर्व समाज में समावेशी विकास और सहचर भाव भरा सौहार्द पैदा करता है।
भारत के पर्व सदियों से अमरत्व प्राप्त हैं जो खुशियों को बांटने के लिए होते हैं। प्रसाद वितरण और प्रसाद पाने में किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव इस त्योहार में नहीं किया जाता। इस त्योहार से हमें प्रेरणा मिलती है कि हमारा दायित्व क्या है हम प्रकृति के सहचर बनें, समाज के हितकारी बनें, समाज के निर्माण में सूर्य की तरह समभाव रखें। नदियों की तरह समभाव से सबका समान रूप से पोषण करें। इस प्रकार सच्चे मानवतावादी बनने में यह पर्व हमें सर्वाधिक प्रेरणा देता है।
(लेखक भारतीय समाजशास्त्र विभाग काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी में प्रोफेसर हैं)













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