विचार: आरोप लगाने की राजनीति छोड़े विपक्ष
विपक्ष को केवल आरोप लगाने की राजनीति छोड़कर रचनात्मक भूमिका निभानी चाहिए। वर्तमान में, केवल दोषारोपण से कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकलेगा। विपक्ष को सरकार के साथ मिलकर देश के विकास में योगदान देना चाहिए।
अंशुमान राव। बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा नीत राजग की प्रचंड जीत के बाद विपक्षी दल अपने पुराने और घिसे पिटे रुख पर कायम हैं। कुछ विपक्षी नेता तो मतदाताओं के विवेक पर ही सवाल उठा रहे हैं। चुनावों पर बेतुके सवाल उठाने का यह क्रम 2014 में केंद्र में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद से ही शुरू हो गया था। क्या राजग को बिहार में अनायास ही इतनी बड़ी जीत मिल गई?
इस पहेली को सुलझाने के लिए कुछ उन परिस्थितियों पर बात करनी होगी, जिसने राजग और महागठबंधन के चुनाव लड़ने के तरीके में अंतर पैदा किया। राहुल गांधी ने बिहार में एसआइआर को निशाने पर लेते हुए वोट चोरी के खिलाफ यात्रा निकाल बड़ा सियासी माहौल खड़ा किया। तेजस्वी यादव इस यात्रा में सारथी बने। जब गठबंधन में सीट बंटवारे पर बात शुरू हुई तो राहुल गांधी विदेश चले गए। नामांकन के आखिरी दिन तक मामला नहीं सुलझा और कुछ सीटों पर फ्रेंडली फाइट हुई।
दूसरे चरण के मतदान के एक दिन पहले जब सभी दलों के नेता विभिन्न माध्यमों से मतदाताओं को अंतिम संदेश देने के लिए हाथ पैर मार रहे थे, तब कांग्रेस के शीर्ष नेता की सतपुरा टाइगर रिजर्व में जंगल सफारी करती तस्वीर दिखी। पहले चरण के मतदान से खराब मौसम के कारण 36 वर्षीय युवा तेजस्वी यादव अपने निवास पर आराम फरमाते दिखे। इसके उलट खराब स्वास्थ्य के आरोपों का सामना कर रहे 74 साल के नीतीश कुमार सड़क मार्ग से फुलपरास विधानसभा जाकर रोड शो किए। ऐसे में सवाल तो उठेगा ही कि मतदाता किसे गंभीरता से लें, उन्हें जो अपनी कार्यशैली से चुनाव को पर्यटन के रूप में लेते हैं या उन्हें जो चुनाव को जीवन-मरण का लक्ष्य बनाकर मैदान में उतरते हैं।
बिहार चुनाव में एक बड़ा अंतर गृहमंत्री अमित शाह ने अपनी रणनीति से पैदा किया। चुनाव से पहले राजग कई मोर्चे पर घिरा था। जदयू और लोजपा (आर) की अदावत के बीच उन्हें पांच दलों में सीट बंटवारे का फार्मूला तलाशना था। राजग के जीतने की स्थिति में नीतीश कुमार की महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे की तर्ज पर विदाई की धारणा की काट भी खोजनी थी। पार्टी कार्यकर्ताओं में उत्साह बनाए रखने के लिए भाजपा का सीएम बनने की संभावना की धारणा भी बनानी थी और उस युवा आक्रोश को संभालना था, जो रोजगार को लेकर उद्वेलित था और जिसने पिछले चुनाव में महागठबंधन को लगभग जीत की दहलीज पर ला खड़ा किया था।
अमित शाह ने बिहार में लगातार डटे रह कर न सिर्फ इन चुनौतियों की काट ढूंढ़ी, बल्कि भाजपा को सबसे बड़ा दल बनाया। उन्होंने एक तरफ टिकट वितरण के बाद व्यक्तिगत स्तर पर पार्टी के बागियों को मनाया तो दूसरी ओर हर क्षेत्र के कार्यकर्ताओं के साथ अलग-अलग संवाद कर उनकी नाराजगी भी दूर की। एक बड़ी चुनौती लोजपा (आर) और
जदयू कार्यकर्ताओं के बीच समन्वय स्थापित करने की थी।
नतीजे बताते हैं कि वह न केवल ऐसा करने में कामयाब रहे, बल्कि लोजपा (आर) के साथ ही राष्ट्रीय लोकमोर्चा का वोट भी सभी सहयोगियों में स्थानांतरित कराने में सफल रहे। दिल्ली में न तो पीएम का पद और न बिहार में सीएम का पद खाली है, कहकर उन्होंने एक ही झटके में विपक्ष के सबसे बड़े हथियार को भोथरा कर डाला। विपक्ष का कोई भी नेता तथ्यपूर्ण तरीके से मतदान में कथित हेराफेरी को साबित नहीं कर पा रहा है।
मतदाता सूची से 65 लाख लोगों के नाम कटने के बावजूद जनता के बीच से विरोध का स्वर नहीं उभरना साबित करता है कि एसआइआर में कोई गड़बड़ी नहीं हुई। वास्तव में राजग की बड़ी जीत के पीछे उसका जमीनी स्तर पर काम करना है। राजग को पिछले चुनाव की तुलना में महागठबंधन के मुकाबले करीब नौ प्रतिशत अधिक मत मिले। चुनाव परिणामों से साफ है कि लोजपा (आर) और राष्ट्रीय लोकमोर्चा का परंपरागत वोट सभी सहयोगी दलों में स्थानांतरित हुआ। दूसरी ओर महागठबंधन पिछले बार की तरह करीब 37 प्रतिशत मत ही हासिल कर सका और वह राजग की तरह अपने लिए नया आधार वर्ग नहीं ढूंढ़ पाया।
बिहार का जनादेश मतदाताओं की ओर से विपक्ष को अपने गिरेबां में झांकने का संदेश भी है। विपक्ष को समझना होगा कि महज आरोपों की राजनीति से उसका कायाकल्प नहीं होने वाला। कांग्रेस अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विशाल मशीनरी के जरिये जीत हासिल करने का दावा करती है तो यह सवाल तो पूछा ही जा सकता है कि कांग्रेस सेवा दल कहां है?
चुनाव प्रचार में भारतीय जनता युवा मोर्चा, एबीवीपी, महिला मोर्चा, अनुसूचित जाति, जनजाति मोर्चा, ओबीसी मोर्चा, किसान मोर्चा की तरह कांग्रेस की छात्र, महिला, युवा इकाई क्यों जमीन पर नजर नहीं आती? हर चुनाव में अधिसूचना जारी होने से चंद महीने पहले जागना, आरोप लगाना और नतीजे के बाद आरोपों को दोहराते हुए खुद को इंटरनेट मीडिया तक सीमित करने की राजनीति अब नहीं चलने वाली। हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली के बाद बिहार के नतीजों से साफ है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में औसत प्रदर्शन को भाजपा ने चुनौती के रूप में लेकर कोर्स करेक्शन किया है, जबकि 99 सीटों के साथ विपक्ष का दर्जा हासिल करने के बाद कांग्रेस यह मान बैठी है कि उसे कुछ करने की जरूरत नहीं और जनता उसे यूं ही सत्ता पर विराजमान कर देगी।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैं)

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