विचार: भारत को चिंतित करता बांग्लादेश, कट्टरपंथी ताकतें मजबूत हो रही हैं
मोहम्मद यूनुस अंतरिम सरकार के एक अनिर्वाचित मुख्य सलाहकार ही हैं। उन्हें एक खास तबके और सोच वाले समूह ने ही सत्ता के शीर्ष पर बिठाया है। ऐसे में संभव है कि वे उसी तबके के निर्देश पर अपनी भारत नीति बनाएं। हालांकि यह जरूरी नहीं कि एक चुनी हुई सरकार भी भारत के प्रति ऐसा ही रवैया अपनाएगी, क्योंकि उसके सामने जनता के प्रति जवाबदेही का पहलू भी होगा। यह मानना भी ठीक नहीं होगा कि बांग्लादेश को लेकर भारत के सोच में यथास्थिति बनी रहेगी।
HighLights
शेख हसीना को मृत्युदंड की सजा।
ट्रिब्यूनल की स्वतंत्रता पर सवाल।
भारत-बांग्लादेश संबंधों पर प्रभाव।
ऋषि गुप्ता। बांग्लादेश की अपदस्थ प्रधानमंत्री शेख हसीना ने 2010 में अंतरराष्ट्रीय क्राइम्स ट्रिब्यूनल की स्थापना के समय यह कल्पना भी नहीं की होगी कि 15 साल बाद यही अदालत उन्हें मौत की सजा सुनाएगी। प्रधानमंत्री हसीना ने इस ट्रिब्यूनल की स्थापना 1971 मुक्ति संग्राम के दोषियों को सजा दिलाने के लिए की थी ताकि मानवता के खिलाफ हुए जघन्य अपराधों के दोषियों को उनकी करतूतों की सजा दिलाई जा सके। हाल में इसी ट्रिब्यूनल ने शेख हसीना को मृत्युदंड की सजा सुनाई। उनके खिलाफ बांग्लादेश में कई मामले दर्ज हैं। इनमें से अधिकांश मामले जुलाई 2024 में हुए विरोध-प्रदर्शनों से जुड़े हैं। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय ने हसीना को सुनाई गई मृत्यु की सजा को गलत ठहराया है। हालांकि उसने यह भी कहा है कि पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को दोषी करार दिया जाना पिछले साल विरोध-प्रदर्शनों के दमन के दौरान हुए गंभीर उल्लंघनों के पीड़ितों के लिए एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। उल्लेखनीय है कि उच्चायुक्त कार्यालय ने इस वर्ष फरवरी में अपनी फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट में पूर्व प्रधानमंत्री हसीना की जुलाई-अगस्त 2024 में की गई पुलिस कार्रवाई में संलिप्तता भी पाई थी।
चूंकि पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना इस समय भारत में हैं और ट्रिब्यूनल में चली कार्यवाही मौजूदा सरकार की मनमर्जी से हुई है, इसलिए उनकी गैरमौजूदगी में इस तरह के निर्णय का आना ट्रिब्यूनल की स्वतंत्रता पर सवाल उठाता है और राजनीति से प्रेरित जान पड़ता है। इस निर्णय से यह भी करीब-करीब साफ हो गया कि अब शेख हसीना की बांग्लादेश वापसी असंभव है। अंतरिम शासन के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस की सरकार ने पहले ही शेख हसीना की अवामी लीग पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया है और अब हसीना को मृत्युदंड का निर्णय उनकी वापसी की बची-खुची उम्मीदों को भी खत्म करने वाला है। इसके साथ ही बांग्लादेश के भविष्य को लेकर अब नई बहस शुरू हो गई है। एक तो यह कि ऐसा निर्णय कितना न्यायसंगत है और दूसरी यह कि हसीना के प्रत्यर्पण से जुड़ी बांग्लादेश की मांग पर भारत को क्या रुख-रवैया अपनाना चाहिए? इसके कहीं कोई आसार नहीं कि भारत शेख हसीना को बांग्लादेश को सौंपेगा। बांग्लादेश को इसकी अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए, लेकिन यह भी तय है कि वह उन्हें अपने हवाले करने की मांग करता रहेगा। इस सिलसिले में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि शेख हसीना को आनन-फानन ढाका से दिल्ली उसी सेना ने रवाना किया था, जिसके समर्थन से मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार कायम हुई।
आज बांग्लादेश के माहौल पर गौर करें तो यह इस देश के इतिहास का एक दूसरा अध्याय है। पहला अध्याय 1971 के स्वतंत्रता आंदोलन, उसके पाकिस्तान से अलग होने और भारत के अथक सहयोग से उपजे परिदृश्य का है। दूसरा अध्याय जुलाई 2024 के आंदोलन से उपजा, जिसका उद्देश्य बांग्लादेश की राजनीतिक दशा-दिशा को बदलना था। बिना अवामी लीग और शेख हसीना के बांग्लादेश की परिकल्पना करना अभी मुश्किल है, लेकिन इतिहास गवाह है कि उनकी अनुपस्थिति या कमजोर होने की स्थिति में बांग्लादेश में कुछ खास ताकतें मजबूत होती गईं। इन दिनों भी ऐसी ही कट्टरपंथी ताकतें मजबूत हो रही हैं और इनमें से अधिकांश पाकिस्तान की हमदर्द हैं। उसी पाकिस्तान की, जिसने बांग्लादेश निर्माण से पहले यहां के लोगों को भयंकर यातनाएं दीं। अब जब बांग्लादेश की जनता का एक बड़ा हिस्सा अपने इतिहास को नए सिरे से लिखने पर आमादा हो और अंतरिम सरकार भी उसका साथ दे रही हो तो फिर इस पहलू को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि 1971 के इतिहास को शेख हसीना द्वारा जिस प्रकार पेश किया किया, वह भी कहीं न कहीं उनके खिलाफ गया।
बांग्लादेश में एक नई पीढ़ी 1971 के इतिहास से अपनी पुरानी पीढ़ी की तरह नहीं जुड़ पाती तो वहां विदेश नीति का बदलना भी स्वाभाविक है। चूंकि बांग्लादेश में भारत के खिलाफ माहौल बन रहा है, इसलिए शायद यह नई दिल्ली के लिए भी एक अवसर है कि वह भी उस इतिहास से परे मौजूदा परिप्रेक्ष्य में ढाका के साथ बातचीत की संभावनाएं तलाशे। हालांकि यह इतना आसान नहीं है, क्योंकि बांग्लादेश की भू-सामरिक स्थिति और वहां सक्रिय तमाम आक्रामक अतिवादी समूह भारत की सुरक्षा पर एक बड़ा सवालिया निशान लगाते हैं। हाल के दिल्ली धमाकों के भी कुछ तार बांग्लादेश से जुड़ते दिखाई दे रहे हैं। इसके अलावा भारत चीन की तरह बांग्लादेश के मामलों को केवल आंतरिक मुद्दा नहीं कह सकता, क्योंकि वहां से आने वाले घुसपैठिये लगातार भारत की संप्रभुता और अखंडता के लिए खतरा बने हुए हैं। अगर भारत बांग्लादेश की तरफ फिर से एक नए सोच के साथ हाथ बढ़ाए तब भी यह पूरी तरह निश्चित नहीं है कि उसका जवाब सकारात्मक मिले, क्योंकि भारत विरोध इस समय बांग्लादेश का एक अभिन्न अंग बन गया है और शेख हसीना के प्रत्यर्पण का मुद्दा बार-बार उठाया जाता रहेगा।
मोहम्मद यूनुस अंतरिम सरकार के एक अनिर्वाचित मुख्य सलाहकार ही हैं। उन्हें एक खास तबके और सोच वाले समूह ने ही सत्ता के शीर्ष पर बिठाया है। ऐसे में संभव है कि वे उसी तबके के निर्देश पर अपनी भारत नीति बनाएं। हालांकि यह जरूरी नहीं कि एक चुनी हुई सरकार भी भारत के प्रति ऐसा ही रवैया अपनाएगी, क्योंकि उसके सामने जनता के प्रति जवाबदेही का पहलू भी होगा। यह मानना भी ठीक नहीं होगा कि बांग्लादेश को लेकर भारत के सोच में यथास्थिति बनी रहेगी। यदि इस समय बांग्लादेश के राजनीतिक माहौल को देखा जाए तो बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के लिए सहयोगी दलों के साथ मिलकर सरकार बनाने का एक अवसर बन सकता है, जो भारत के प्रति शेख हसीना से लगाव के चलते उनका विरोधी रहा है। फिर भी यह स्मरण रहे कि विदेश नीति वैचारिक रुख के बजाय वास्तविक राजनीति पर आधारित होती है और ऐसा रुख भारत-बांग्लादेश के नीति निर्धारण में आने वाले दिनों में एक बड़ी भूमिका निभाएगा।
(लेखक एशिया सोसाइटी पालिसी इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली में सहायक निदेशक हैं)













कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।