आदित्य सिन्हा। ब्राजील के बेलम में आयोजित काप 30 सम्मेलन ने जलवायु परिवर्तन पर विकसित देशों की गहरी असंवेदनशीलता को ही उजागर किया है। जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए वैश्विक प्रयासों को करीब तीन दशक हो चले हैं। इस कड़ी में संयुक्त राष्ट्र की पहल पर आयोजित होने वाले काप सम्मेलन अपनी भूमिका पर खरे नहीं उतर पा रहे। ये वार्षिक सम्मेलन विरोधाभासों का मंच बनकर रह गए हैं।

ऐतिहासिक रूप से दुनिया के सबसे बड़े प्रदूषक रहे विकसित देश स्थितियों को सुधारने के लिए शेष विश्व से अपेक्षाएं तो बहुत कर रहे हैं, लेकिन उन अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराने की तत्परता नहीं दिखा रहे। विकासशील देशों का कहना है कि उन्हें वार्षिक 1.3 ट्रिलियन (लाख करोड़) डालर की आवश्यकता है। जबकि विकसित देशों ने 2035 तक केवल 300 अरब डालर का ही वादा किया है। इसमें भी अधिकांश राशि ऋण के रूप में दी जाएगी। स्वाभाविक है कि इससे गतिरोध की स्थिति और गहराएगी।

बेलम सम्मेलन ने दर्शाया कि संयुक्त राष्ट्र प्रणाली उन प्रक्रियाओं और सहमति नियमों के बोझ तले दब रही है, जो कुछ देशों को मनमानी की गुंजाइश देती है। यूरोपीय संघ को ही देखें तो उसने जलवायु परिवर्तन से जुड़े वादों और उनकी पूर्ति में भारी अंतर पर विमर्श के बजाय अपने कार्बन सीमा समायोजन तंत्र यानी सीबैम को वाजिब ठहराने पर ही अधिक जोर दिया। सीबैम विकासशील देशों के लिए ग्रीन टैरिफ की तरह है, जो मुख्य रूप से यूरोपीय उद्योगों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा से बचाने के लिए तैयार किया गया है। सभी प्रमुख निर्यातकों ने चेतावनी दी है कि एकतरफा उपाय पूरी प्रणाली को नुकसान पहुंचाएंगे। इसके बावजूद यूरोपीय संघ संरक्षणवाद को प्राथमिकता देने में लगा है। अमेरिका की टैरिफ नीति पहले ही वैश्विक विश्वास पर आघात कर रही हैं। जलवायु कूटनीति अब व्यापार एवं भू-राजनीति के साथ टकरा रही है।

विकसित देशों के दोहरे रवैये और भू-राजनीतिक अस्थिरता के वर्तमान परिदृश्य में भारत गंभीर, न्यायसंगत और सिद्धांत आधारित राह दिखा रहा है। इस कड़ी में पहला बिंदु है समानता और जलवायु न्याय पर जोर देना। भारत ने दुनिया को स्मरण कराया कि पेरिस समझौते के स्वरूप को एकाएक नहीं बदला जा सकता। भारत ने दोहराया कि विकसित और विकासशील देशों में विकास के स्तर पर जमीन-आसमान का अंतर है और इस लिहाज से साझा उत्तरदायित्व के प्रयास को कमजोर करना भरोसे को कुंद करने का काम करेगा। इस दिशा में मांग एकदम सरल है कि जो देश पहले से और भारी मात्रा प्रदूषण करते हैं, उन्हें उत्सर्जन में कटौती के साथ ही विकासशील देशों का अपेक्षित समर्थन भी करना चाहिए। भारत ने जोर दिया है कि विकसित देशों को 2050 से बहुत पहले ही नेट जीरो यानी शून्य उत्सर्जन के स्तर तक पहुंच जाना चाहिए, ताकि विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए उचित आधार तैयार हो सके। इसके अभाव में वैश्विक जलवायु ढांचा असमानता बढ़ाने का एक माध्यम ही बनकर रह जाता है।

भारत ने स्पष्ट रूप से कहा है कि उपलब्ध कराए जा रहे वित्तीय संसाधन खैरात न होकर अनुच्छेद 9.1 के तहत एक कानूनी दायित्व है। उसने जलवायु वित्त की एक सार्वभौमिक रूप से सहमति प्राप्त परिभाषा, अनुकूलन वित्त में 15 गुना वृद्धि और पूर्वानुमानित रियायती संसाधन प्रवाह की मांग की है। इसमें अरबों नहीं खरबों डालर चाहिए होंगे। इस क्रम में भारत ने निजी वित्त या ऋण एवं भारी पैकेजों पर निर्भर रहने की भ्रांति को भी उजागर किया है। ऐसे उपाय ऋण संकट को ही बढ़ाते हैं। इसलिए वास्तविक अनुदान को वरीयता दी जानी चाहिए। दुनिया विकासशील देशों से केवल यही उम्मीद नहीं कर सकती कि वे अपनी ऊर्जा प्रणालियों को बदलें और कृषि को लचीला बनाएं। इस सबके फेर में हो यह रहा है कि विकासशील देश महंगे कर्जों का ऊंचा ब्याज चुकाने में लगे हैं।

भारत का दृष्टिकोण है कि प्रौद्योगिकी उपलब्धता एक अधिकार होना चाहिए न कि सौदेबाजी का जरिया। जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए जिन प्रौद्योगिकी की आवश्यकता है, वे बौद्धिक संपदा अधिकारों की आड़ में विकासशील देशों के लिए पहुंच से बाहर हो जाती हैं। इसलिए बौद्धिक संपदा और बाजार बाधाओं को दूर किया जाए। यह तो वही स्थिति हुई कि समाधान पहले से मौजूद है, लेकिन उसकी उपलब्धता में अवरोध से समस्या को ही बढ़ाया जा रहा है। यह किसी लापरवाही से कम नहीं। भारत ने सीबैम जैसे एकतरफा जलवायु टैरिफों की ओर भी ध्यान आकर्षित कराया कि ये न केवल अनुच्छेद 3.5 का उल्लंघन करते हैं, बल्कि जलवायु नीति को संरक्षणवाद के हाथों का खिलौना भी बना देते हैं। भारत ने स्पष्ट रूप से चेताया कि ऐसे उपायों से बहुपक्षीयता की भावना को चोट पहुंचती है। इनके जरिये उन देशों को निशाना बनाया जाता है, जिन्हें सतत विकास के लिए नीतिगत उपायों की आवश्यकता होती है।

जलवायु परिवर्तन की विकराल होती समस्या के समाधान में भारत की कथनी एवं करनी में भी भेद नहीं है। उसकी उपलब्धियां उसके प्रति भरोसे का निर्माण करती हैं। आंकड़े दर्शाते हैं कि 2005 के बाद से भारत ने उत्सर्जन की तीव्रता को 36 प्रतिशत से अधिक कम किया है और गैर-जीवाश्म क्षमता के लिए निर्धारित 2030 के लक्ष्य को पांच साल पहले ही हासिल कर लिया। भारत ने 256 गीगावाट से अधिक की स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन क्षमता विकसित है। हाइड्रोजन, परमाणु ऊर्जा और जैव ईंधन में गहरी छाप छोड़ने वाले मिशन शुरू किए हैं। सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से दो अरब से अधिक पेड़ लगाए हैं। वह अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन जैसे कई वैश्विक मंचों के नेतृत्व से भी जुड़ा है।

कॉप के इस सम्मेलन का अभी तक यही सार सामने आ रहा है कि जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने की संक्रमण अवधि के बीच व्यापार युद्ध जैसी स्थितियों के साये में समृद्ध देश अपनी आवश्यक भूमिका से किनारा कर रहे हैं। जबकि भारत ने दिखाया है कि ईमानदार राह कैसी होती है। सवाल यह है कि क्या विकसित दुनिया इसे अपनाने के लिए तैयार है।

(लेखक लोक-नीति विश्लेषक हैं)