विचार: अशक्त बनाती गुलामी की मानसिकता, प्रधानमंत्री मोदी का आह्वान राष्ट्रीय आवश्यकता
किसने उन्हें समझाया कि विदेशी तौर-तरीकों तथा सोच-संस्कार को अपनाए बिना वे कुछ बड़ा नहीं कर सकते? सच यही है 2035 तक मैकाले की शिक्षा-व्यवस्था से उपजी गुलामी की मानसिकता से मुक्ति का प्रधानमंत्री मोदी का आह्वान सर्वथा उपयुक्त एवं गहन राष्ट्रीय आवश्यकता है।
HighLights
औपनिवेशिक मानसिकता विकास में बाधक है
भारतीय संस्कृति की उपेक्षा हो रही
गुलामी की मानसिकता से मुक्ति ज़रूरी है
प्रणय कुमार। विभाजनकारी वृत्तियां और औपनिवेशिक मानसिकता “एक भारत, श्रेष्ठ भारत” की राह में सबसे बड़ी बाधा रही हैं। विभाजनकारी प्रवृत्तियों ने जहां देश को अशक्त बनाने तथा उसे खंड-खंड में बांटने का निरंतर प्रयत्न किया, वहीं औपनिवेशिक मानसिकता ने इसे कभी इसकी शक्ति के मूल उत्स या केंद्र से जुड़ने ही नहीं दिया। मूल से जुड़े बिना न तो प्रगति संभव है, न मौलिक पहचान ही। आशा थी कि लंबे संघर्ष से प्राप्त हुई स्वतंत्रता के पश्चात भारत शासन-प्रशासन से लेकर जीवन के बहुविध क्षेत्रों में अपनी संस्कृति, विरासत, परंपरा के अनुकूल अपना पथ प्रशस्त करेगा।
अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़े रहकर शिक्षा, चिकित्सा, शोध, विज्ञान, अनुसंधान तथा सुशासन एवं विकास के आदर्श प्रतिमान गढ़ेगा, परंतु दुर्भाग्य से सत्ता का हस्तांतरण तो हुआ, पर सत्ता-व्यवस्था का चरित्र एवं स्वरूप नहीं बदला। भारत 1947 में स्वाधीन अवश्य हुआ, पर स्व पर आधारित तंत्र, मंत्र एवं मानस आज तक निर्मित तथा विकसित नहीं कर सका। फलस्वरूप शिक्षा से लेकर कला, साहित्य और सिनेमा तक, शासन-व्यवस्था से लेकर न्याय और दंड विधान तक तथा वास्तु, विज्ञान और चिकित्सा से लेकर पर्यटन तक-परकीय तंत्र, सोच तथा दृष्टि की प्रभावी स्थिति एवं भूमिका यथावत बनी रही।
शायद ही कोई ऐसा भारतीय होगा, जिसे अपनी भाषा, अपनी वेश-भूषा, अपने सांस्कृतिक प्रतीक-पहचान के प्रति गौरवबोध रखने के कारण अपनी ही संस्थाओं-व्यवस्थाओं द्वारा कभी-न-कभी असमान व्यवहार, उपेक्षा या अपमान का दंश न झेलना पड़ा हो! न केवल कारपोरेट एवं व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में, बल्कि सरकारी संस्थाओं में भी ज्ञान तथा योग्यता का पैमाना कार्यकुशलता नहीं, अपितु आंग्ल भाषा की दक्षता को मान लिया गया है। मौलिकता एवं सहजता के अभ्यासी भारतवर्ष एवं भारतीयों को तरह-तरह के कथित शिष्टाचार के नाम पर नितांत असहज, अ-मौलिक एवं अभारतीय बनाने का अभियान- आज महानगरों से लेकर छोटे-छोटे शहरों तक चलाया जा रहा है।
मैकाले प्रणीत शिक्षण-तंत्र ने श्रम, कौशल तथा प्रतिभा तीनों का अवमूल्यन कर “सूट-बूट वाली कुलीन संस्कृति एवं आभिजात्यवादी मानसिकता” को बढ़ावा दिया है। और तो और मैकाले के मानस-पुत्रों ने पश्चिमीकरण को ही विकास एवं आधुनिकता का पर्याय मान लिया है। अपनी परंपराओं एवं त्योहारों के प्रति शंका तथा प्रश्न निर्मित करना तथा पश्चिमी त्योहारों, परंपराओं एवं दिवसों को उत्सव की तरह प्रस्तुत-प्रोत्साहित करना भी औपनिवेशिक मानसिकता का ही एक उदाहरण है।
आज दुनिया मानती है कि ध्यान, योग एवं आसन आदि का शरीर तथा मन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, पर हमने इन्हें तब मान्यता दी, जब पश्चिम ने इन्हें स्वीकार किया। आयुर्वेद समग्र चिकित्सा-पद्धति है, परंतु हम आज भी उसे वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धति से अधिक का महत्व देने को तैयार नहीं। हमारी काल-गणना, ग्रहों-नक्षत्रों-ऋतुओं आदि की अवधारणा एवं नामकरण पश्चिम से अधिक युक्तिसंगत, तार्किक तथा वैज्ञानिक हैं, पर हम हैं कि उसे रस्मी मानते हुए पूजा-पाठ और त्योहारों तक सीमित मानते हैं। हमारा नगर-नियोजन, वास्तुशास्त्र, सांस्कृतिक धरोहर पश्चिम से अधिक विकसित एवं समृद्ध रहा है, सौंदर्य से लेकर रंग-रस-रूप-गंध आदि का हमारा सामूहिक बोध पश्चिम से अधिक समग्रता और वैविध्य लिए हुए है, पर पश्चिम के अंधानुकरण ने हमें यहां भी सरलीकरण और एकरूपता का शिकार बनाया है।
हमारा खान-पान, रहन-सहन, जीवन-व्यवहार आदि पश्चिम की तुलना में अधिक सहज एवं प्रकृति-अनुकूल है, उसमें पर्यावरण के प्रति बड़ी सूक्ष्म दृष्टि एवं गहरे सरोकार सन्निहित हैं, पर यहां भी हम पश्चिमी मानकों पर आधारित संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों से आगे की सुधि नहीं ले पाते। यह औपनिवेशिक मानसिकता नहीं तो और क्या है कि हम आज भी मध्य-काल के भारत बनाम विदेशी संघर्ष को हिंदू-मुस्लिम संघर्ष के रूप में देखते एवं प्रस्तुत करते हैं और अलाउद्दीन खिलजी और अकबर जैसे चरित्र को सिने परदे पर अभिनीत करने के लिए ‘रणवीर सिंह एवं ऋतिक रोशन’ जैसे लंबे-चौड़े कद-काठी वाले अभिनेताओं का चयन करते हैं, जबकि उन्हें तुर्क, चीनी या मंगोलों जैसा दिखाना अधिक स्वाभाविक होता।
विचार करें कि इन सबके पीछे कौन-सी मूल भावना कार्य कर रही थी या कर रही है? क्या इनके पीछे विगत आठ दशकों से चल रही शिक्षा की व्यवस्था और बौद्धिक विमर्श नहीं जिम्मेदार हैं? किसके माध्यम से अपनी भाषा, भूषा, भोजन, भजन एवं भाव के प्रति पीढ़ियों के मन में हीनता की धारणाएं विकसित की गईं? कौन पीढ़ी-दर-पीढ़ी युवा संततियों के मन में यह उतारता चला गया कि जो कुछ पश्चिम का है, वह श्रेष्ठ, युगीन, तर्कसंगत, वैज्ञानिक एवं वरेण्य है और जो भारत का है, वह तो प्रतिगामी, कालबाह्य, अप्रासंगिक, अवैज्ञानिक एवं त्याज्य है? किसने उन्हें समझाया कि विदेशी तौर-तरीकों तथा सोच-संस्कार को अपनाए बिना वे कुछ बड़ा नहीं कर सकते? सच यही है 2035 तक मैकाले की शिक्षा-व्यवस्था से उपजी गुलामी की मानसिकता से मुक्ति का प्रधानमंत्री मोदी का आह्वान सर्वथा उपयुक्त एवं गहन राष्ट्रीय आवश्यकता है।
(लेखक शिक्षाविद् एवं सामाजिक संस्था ‘शिक्षा-सोपान’ के संस्थापक हैं)






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