संक्रांत सानु। आईआईटी के जिन परिसरों में प्रयोगशालाओं, तकनीक, विज्ञान की गूंज होनी चाहिए, वहां अब विरोध, धरना और राजनीतिक नारे सुनाई देने लगे हैं। उसके इस वैचारिक भटकाव का उदाहरण बर्कले में एक सम्मेलन का आईआईटी-बांबे का सह-प्रायोजक बनना रहा। साउथ एशियन कैपिटलिज्म नामक यह आयोजन इंस्टीट्यूट फार साउथ एशिया स्टडीज और यूनिवर्सिटी आफ मैसाचुसेट्स-एम्हर्स्ट द्वारा किया गया। यह आयोजन भारतीय उद्योग और उद्यमिता को शोषण की व्यवस्था बताता था।

विरोध में आवाज उठने पर आईआईटी बांबे को स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा कि उसका इस आयोजन से कोई लेना-देना नहीं। यह ध्यान रखा जाए कि आईआईटी की स्थापना का उद्देश्य विशिष्ट तकनीकी संस्थानों की रचना था, जहां से विज्ञानी, अभियंता और प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ निकलकर भारत को आत्मनिर्भर बना सकें। प्रयोगशाला-आधारित शिक्षा, उपयुक्त अनुसंधान और पूर्व छात्रों का वैश्विक नेटवर्क ही आईआईटी की वास्तविक पहचान रहा है। इसी विशेष ध्येय ने उन्हें भारत के अन्य विश्वविद्यालयों से अलग और विशिष्ट बनाया, किंतु यूपीए शासनकाल में यह ध्येय विचलित होने लगा।

यशपाल समिति ने 2008–09 में अनुशंसा की कि आईआईटी और आईआईएम को बहुविषयी विश्वविद्यालय बनाया जाए। यह योजना सतही रूप में आकर्षक प्रतीत होती थी, किंतु वस्तुतः यह मार्गभ्रष्ट करने वाली थी। तकनीकी उत्कृष्टता के लिए निर्मित संस्थान को सामान्य विश्वविद्यालय का रूप देने का अर्थ था उसकी विशिष्ट पहचान का ह्रास।

आईआईटी में मानविकी विषयों का प्रसार संस्थान की प्रतिष्ठा में कोई नवीन मूल्य नहीं जोड़ सका है। इसके विपरीत, इसने उनकी स्थापित ख्याति का सहारा लेकर परिसर को राजनीतिक आंदोलनों और विचारधारात्मक टकरावों का मंच बना दिया है। इंजीनियरिंग छात्रों के लिए कुछ मानविकी विषयों का परिचय निश्चय ही हितकर है, लेकिन अब आईआईटी मानविकी विषयों में पूर्ण स्नातकोत्तर और शोध कार्यक्रम चला रहे हैं।

आईआईटी-मद्रास ने 2006 में पंचवर्षीय एमए प्रारंभ किया, जिसे बाद में द्विवर्षीय पाठ्यक्रमों-अर्थशास्त्र, अंग्रेजी और विकास-अध्ययन-में विभक्त किया गया। आईआईटी-गांधीनगर ने 2014–15 में ‘समाज एवं संस्कृति’ में एमए प्रारंभ किया। आईआईटी-बांबे और आईआईटी-दिल्ली अब अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, साहित्य तथा मनोविज्ञान में पीएचडी तक प्रदान कर रहे हैं। यह आईआईटी के उद्देश्य से उलट है। जहां अभियंताओं को व्यापक दृष्टिकोण देना था, वहां अब सामान्य विश्वविद्यालय जैसी समानांतर मानविकी शिक्षा स्थापित हो रही है।

मानविकी की वजह से परिसर में प्राय: राजनीति स्वतः प्रवेश कर जाती है। आईआईटी-मद्रास का अंबेडकर–पेरियार स्टडी सर्किल 2015 से विवादों में है। आईआईटी-बांबे में नागरिकता संशोधन कानून पर विरोध-आंदोलन हुए। आईआईटी कानपुर में छात्रों ने जामिया, एएमयू के समर्थन में जुलूस निकाला और फैज की कविता ‘हम देखेंगे’ पढ़ी। उस कविता को लेकर ‘सांप्रदायिक’ होने का आरोप लगा और आंतरिक जांच समिति गठित करनी पड़ी। ये दृश्य उन सामान्य विश्वविद्यालयों के प्रतीत होते हैं जहां वर्षों से राजनीति का वर्चस्व रहा है, किंतु आईआईटी जैसे तकनीकी संस्थानों के लिए यह अस्वाभाविक और हानिकारक है।

आईआईटी-दिल्ली के मानविकी विभाग की एक सहयोगी प्राध्यापिका ने 2023 में हिंदू धर्म को ‘प्रपंच’ करार दिया। ऐसे कथन आईआईटी की प्रतिष्ठा का उपयोग कर वैचारिक कलह फैलाते हैं, जबकि उनका संस्थान की तकनीकी पहचान से कोई संबंध नहीं है। आईआईटी का नाम इस प्रकार राजनीतिक और विचारधारात्मक युद्धभूमि बनाने के लिए प्रयुक्त होना संस्थान और राष्ट्र, दोनों के लिए घातक है। आईआईटी को ‘सामान्य विश्वविद्यालय’ बनाने का नुकसान यह है कि मानविकी विषयों का फैलाव महंगे विज्ञान और तकनीकी विषयों पर बोझ डालता है।

मानविकी के लिए पहले से ही भारत में पर्याप्त विश्वविद्यालय हैं, किंतु अभाव है तो तकनीकी विशेषज्ञों और नवाचार-आधारभूत संरचनाओं का। यदि संसाधन सीमित हैं तो उनका प्रयोग वहीं होना चाहिए, जहां उनका अधिकतम राष्ट्रीय लाभ हो। यह सच है कि भारत को दोनों प्रकार की संस्थाएं चाहिए-सामान्य बहुविषयी विश्वविद्यालय और विशिष्ट तकनीकी संस्थान, किंतु यदि तकनीकी संस्थानों को ही सामान्य बना दिया जाएगा तो हम अपनी विशेषता खो देंगे। अब समय है कि हम आईआईटी को उनके मौलिक मार्ग पर पुनःस्थापित करें।

विधि में संशोधन कर यह सुनिश्चित करना होगा कि आईआईटी तकनीकी विश्वविद्यालय ही बने रहें। मानविकी विषय केवल स्नातक स्तर की पूरक शिक्षा तक सीमित हों। राजनीतिक गतिविधियों को परिसरों से दूर रखा जाए, ताकि कक्षाएं और प्रयोगशालाएं पुनः नवाचार का केंद्र बन सकें। पूर्व छात्रों को भी अपना योगदान प्रयोगशालाओं, अनुसंधान-केंद्रों और तकनीकी छात्रवृत्तियों में लगाना चाहिए। जब चीन कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई), चिप-डिजाइन और क्वांटम कंप्यूटर में तीव्र गति से प्रगति कर रहा है, तब भारत अपने श्रेष्ठतम संस्थानों को राजनीति का अखाड़ा बनाने की भूल नहीं कर सकता। आईआईटी को तकनीकी उत्कृष्टता के केंद्र के रूप में सुरक्षित रखना ही होगा। यही समय है स्पष्ट शब्दों में कहने का-आईआईटी हमें पुनः चाहिए।

(लेखक आईआईटी के स्नातक और गरुड़ प्रकाशन के संस्थापक हैं)