राज कुमार सिंह। कुछ दिन पहले केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने चुनावी सभा में यह एलान किया कि बिहार में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर फिलहाल अभी कोई ‘वैकेंसी’ नहीं है। उनका यह बयान मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार को समर्थन के रूप में देखा गया। हालांकि उससे कुछ दिन पहले शाह ने ही कहा था कि मुख्यमंत्री के नाम पर निर्णय नतीजों के बाद होगा। स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री को लेकर राजग की सहयोगी भाजपा में ऊहापोह की स्थिति है, लेकिन यह भी सच है कि नीतीश कुमार ही पूरी चुनावी चर्चा के केंद्र में हैं।

बिहार के राजनीतिक परिदृश्य पर अभी नीतीश कुमार की जदयू तीसरे नंबर पर, लेकिन राज्य की जटिल राजनीति में नीतीश का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि 2005 के बाद से उसके बिना राज्य में कोई सरकार नहीं बन पाई। बिहार के सामाजिक-राजनीतिक समीकरणों का संकेत यही है कि शायद इस चुनाव के बाद भी जदयू के बिना नई सरकार नहीं बन पाएगी। विधानसभा में तीसरे स्थान पर पहुंच जाने के बावजूद अगर कोई दल यह कहे कि उसका नेता सत्ता के खेल में इतना अपरिहार्य बना रहता है तो जाहिर है कि वह राज्य की राजनीति में बड़ा ब्रांड बन चुका है।

यह ब्रांड अचानक नहीं बन गया। लालू-राबड़ी राजनीति से असहज जार्ज फर्नांडिस सरीखे समाजवादी नेताओं ने बिहार के सामाजिक समीकरण को ध्यान में रखते हुए यह ब्रांड गढ़ा। मंडल-कमंडल के बीच राजनीतिक ध्रुवीकरण के मद्देनजर लालू के इर्दगिर्द गोलबंद ओबीसी और अल्पसंख्यक वोट बैंक में सेंध लगाए बिना ऐसे ब्रांड की स्वीकार्यता नहीं बन सकती थी। उत्तर प्रदेश की तरह बिहार भी अहसास करने लगा था कि सामाजिक न्याय की मलाई चंद दबंग और प्रभावशाली जातियां ही चट कर रही हैं। इसीलिए ईबीसी का नया वोट बैंक तैयार किया गया। कुर्मी समुदाय के साफ छवि वाले शिक्षित नेता नीतीश कुमार को उसका चेहरा बनाया गया।

जनता दल में विभाजन कर अलग समता पार्टी बनाई गई, जिसने भाजपा से गठबंधन किया। लंबे संघर्ष के बाद 2005 में यही बिहार में बदलाव का ब्रांड बनकर उभरा। बेशक ब्रांड नीतीश के शिल्पकार जार्ज थे, लेकिन मार्केटिंग भाजपा ने भी जमकर की। कारण वही कि सामाजिक न्याय के प्रतीकों में से ही किसी एक को आगे किए बिना लालू-राबड़ी राज से बिहार की मुक्ति संभव नहीं थी। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ओबीसी में भाजपा की स्वीकार्यता बढ़ी है, पर उससे पहले तक बिहार में वह अगड़ों की पार्टी मानी जाती थी, जिससे अल्पसंख्यकों की दूरियां भी जगजाहिर हैं। भाजपा का गणित यही था कि नीतीश के जरिये लालू के ओबीसी-अल्पसंख्यक वोट बैंक में सेंध लगाए बिना बिहार में न तो बदलाव संभव है और न ही उसका भविष्य। लालू-राबड़ी के जंगलराज का चुनावी नारा भी उस बदलाव की हवा में बेहद कारगर साबित हुआ। नई पीढ़ी को लालू-राबड़ी का जंगलराज याद दिलाना पड़ता है, जबकि नीतीश के शासन के सभी प्रत्यक्षदर्शी हैं।


जदयू और भाजपा बिहार की राजनीति में एक-दूसरे के पूरक बने। बेशक इसका शुरुआती लाभ नीतीश को ही मिला और वे बदलाव की राजनीति के नायक बनकर एक बड़ा ब्रांड बन गए। इसका एक बड़ा कारण भाजपा में किसी व्यापक सामाजिक स्वीकायर्ता वाले चेहरे का अभाव भी रहा। इधर भाजपा भी पिछले 20 वर्षों के दौरान राज्य में अपना जनाधार बढ़ाने में सफल रही है। विधानसभा में सीटें और चुनाव में मत-प्रतिशत इसका प्रमाण है, लेकिन ब्रांड नीतीश के आसपास वह अपना कोई चेहरा स्थापित नहीं कर पाई। नीतीश के समक्ष लालू-राबड़ी की राजनीति के प्रतिनिधि अब तेजस्वी यादव हैं। वे अपना परंपरागत ‘एम-वाइ’ यानी मुस्लिम-यादव वोट बैंक तो काफी हद तक बचाए रखने में सफल रहे, लेकिन ब्रांड नीतीश के जरिये हुई सेंधमारी की भरपाई नहीं कर पाए। बिहार का यही जमीनी सामाजिक-राजनीतिक गणित दो दशक बाद भी ब्रांड नीतीश की सबसे बड़ी ताकत है। इसके बल पर वे चुनावी राजनीति में न सिर्फ जरूरी, बल्कि दोनों बड़े दलों के लिए सत्ता की मजबूरी भी बने हुए हैं। हालांकि विकास के वादों और दावों के आईने में बिहार कहां खड़ा है, इस सवाल का जवाब अब जनता नीतीश से चाहती है।

वैसे नीतीश एक नहीं, दो बार पाला बदल कर दोनों गठबंधनों में सरकार का नेतृत्व कर चुके हैं। इसलिए कोई भी उन पर सीधा हमला नहीं बोलता, क्योंकि सरकार में भागीदार तो वे स्वयं भी रहे। नीतीश से भी ज्यादा समय मुख्यमंत्री रहने के रिकार्ड बताते हैं कि अगर सरकार जन आकांक्षाओं पर खरी उतरे तो सत्ता विरोधी भावना अपरिहार्य नहीं है, लेकिन जदयू का गिरता चुनावी ग्राफ कुछ और इशारा कर रहा है। 2020 के विधानसभा चुनाव में जदयू मात्र 43 सीटों पर सिमट गई। तर्क दिया जाता है कि भाजपा की शह पर चिराग पासवान ने उसमें बड़ी भूमिका निभाई, पर एक स्थापित ब्रांड को इतना जोरदार झटका देने से भी सवाल तो उठते ही हैं, जिनका जवाब शायद इन चुनावों में मिल जाए।

पिछले विधानसभा चुनाव में राजग और महागठबंधन में कड़ा मुकाबला था। राजग 125 सीटें जीत गया था, जबकि महागठबंधन 110 पर अटक गया था। सर्वाधिक साढ़े 23 प्रतिशत वोट राजद को मिले थे, जबकि 19.8 प्रतिशत वोटों के साथ भाजपा दूसरे स्थान पर रही। 15.7 प्रतिशत वोटों के साथ सत्ता संतुलन की चाबी जदयू के हाथ रही। हालांकि नीतीश की बढ़ती उम्र और सेहत को लेकर उठते सवालों के चलते जदयू नेताओं में भी अपने राजनीतिक भविष्य के प्रति चिंता दिखती है। इस चिंता से जदयू के वोट बैंक को इन चुनावों में प्रभावित होने से बचाने की चुनौती नीतीश कुमार के समक्ष है। अच्छी बात यह है कि नीतीश पर व्यक्तिगत आरोप अभी तक कोई नहीं लगा पाया। फिर भी अगर जदयू का वोट बैंक दरका तो सत्ता के खेल में ब्रांड नीतीश का दबदबा भी प्रभावित हो सकता है। बिहार के दो प्रमुख दलों भाजपा और राजद के लिए नीतीश तभी तक जरूरी हैं, जब तक कि सरकार बनाने के लिए मजबूरी बने हुए हैं। इस बार ईबीसी के लिए कई छोटे दल भी चुनावी ताल ठोक रहे हैं, जो जदयू के वोट बैंक में ही सेंध लगाएंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)