उमेश चतुर्वेदी। बीते दिनों लोकसभा सदस्यों की शपथ के दौरान कुछ सदस्यों ने संविधान की प्रतियां भी लहराईं। संसद के भीतर और बाहर लहराई जाने वाली संविधान की इन प्रतियों का रंग भले ही अलग हो, लेकिन उद्देश्य एक था। वह यह कि संविधान बदलने के नैरेटिव को बनाए रखना। इसी नैरेटिव ने विपक्षी दलों को लोकसभा चुनाव में सफलता दिलाई और वे भाजपा को सीमित रखने में सफल रहे।

नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी हों या अखिलेश यादव या फिर उनके अन्य साथी, वे अभी भी इसी नैरेटिव पर अटके हैं। भाजपा के चार सौ पार के नारे और कुछ नेताओं की संविधान बदलने के लिए बहुमत की जरूरत वाली टिप्पणियों के सहारे विपक्ष ने सत्ता विरोधी नैरेटिव का कोलाज रच दिया। इसका उसे फायदा भी मिला। इसलिए विपक्ष चाहता है कि यह नैरेटिव जिंदा रहे और भाजपा सवालों के घेरे में रहे। वोटरों के मन में संदेह बना रहे, ताकि विपक्षी दल आगामी विधानसभा चुनावों में वोटों की अपनी फसल काट सकें। जल्द ही महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव होने हैं। उसके कुछ ही समय बाद झारखंड में भी चुनाव होंगे। इसलिए विपक्ष इस माहौल को भुनाए रखना चाहता है।

सवाल उठता है कि क्या भाजपा सचमुच संविधान विरोधी है? अगर वह संविधान विरोधी है तो विपक्ष ने उसके द्वारा लाए गए संविधान संशोधन प्रस्तावों का साथ क्यों दिया? लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा विपक्ष के संविधान वाले नैरेटिव की काट नहीं कर पाई। पता नहीं कैसे वह भूल गई कि मोदी सरकार के दस साल के कार्यकाल में हुए ज्यादातर संविधान संशोधनों को विपक्ष ने ही सहयोग-समर्थन देकर पारित कराया। मोदी सरकार के विगत दस वर्षों के शासन में आठ संविधान संशोधन हुए। दिलचस्प यह है कि इन सभी संशोधनों का समर्थन विपक्ष ने किया। मोदी सरकार ने शुरुआत में ही राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग गठित करने को लेकर संविधान संशोधन किया, जिसे समूचे विपक्ष ने समर्थन दिया था। यह बात और है कि पारित होने के तुरंत बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया।

जीएसटी लागू करने लिए भी संविधान संशोधन किया गया। इसका भी कांग्रेस समेत तकरीबन पूरे विपक्ष ने समर्थन किया था। चूंकि यह संघीय ढांचे से जुड़ा संविधान संशोधन था, इसलिए संविधान के अनुच्छेद-368 के प्रविधानों के तहत इसे कम से कम आधे या उससे ज्यादा राज्यों की विधानसभाओं का भी समर्थन मिलना जरूरी था। जीएसटी लागू करने वाले संवैधानिक संशोधन को मंजूरी विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्य सरकारों की ओर से भी मिली। मोदी सरकार का तीसरा संविधान संशोधन प्रस्ताव ‘पिछड़ा वर्ग आयोग’ को संवैधानिक दर्जा देने से संबंधित था। इसे भी विपक्ष का साथ मिला। आर्थिक आधार पर आरक्षण देने वाला कानून भी संविधान संशोधन के ही दायरे में आता है। इसे भी विपक्षी दलों के सहयोग से ही सरकार पारित करा पाई। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण और एससी-एसटी आरक्षण की समयसीमा बढ़ाने वाले संविधान संशोधन को भी संसदीय मंजूरी में विपक्ष की ओर से कोई बाधा नहीं खड़ी की गई। इसी तरह राज्यों को अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग की सूची में जातियों को जोड़ने का जो अधिकार दिया गया, वह भी संविधान संशोधन ही था। इस पर भी मोदी सरकार को विपक्षी दलों का सहयोग मिला। मोदी सरकार ने वित्त आयोग के अधिकारों में परिवर्तन को लेकर भी संविधान संशोधन प्रस्तुत किया। विपक्ष को इसे भी पारित कराने में कोई आपत्ति नहीं रही।

हालांकि, सवाल यह भी है कि जब पिछड़ा वर्ग को अधिकार देने की बात हो, वित्त आयोग को और अधिकार देने की बात हो, कमजोर आय वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण की बात हो, तब भला कौन राजनीतिक दल इससे इन्कार कर सकता है? हमने जिस राजनीतिक व्यवस्था को अपनाया है, उसमें विरोधी दल को सत्ता पक्ष को कठघरे में खड़ा करने और वोटों की राजनीति में मात देने के लिए हर वक्त मुद्दों की तलाश रहती है। चूंकि राजनीतिक व्यवस्था में गिरावट आ गई है और दलीय वैचारिक एवं सैद्धांतिक आधार लगातार कमजोर हुए हैं, इसलिए राजनीति के लिए अधिकांश मुद्दे ऐसे तलाशे जाते हैं, जिनका हकीकत से कोई खास लेनादेना न हो। संविधान को बदलने या हटाने का नैरेटिव या मुद्दा इसी तरह का मामला है। विवादित 42वें संविधान संशोधन को छोड़ दें तो ज्यादातर मौकों पर विपक्ष और सत्ता पक्ष ने मिलकर ही संविधान संशोधन किए हैं। संविधान संशोधन का मुद्दा भी बहुत पेचीदा है। किसी भी सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के लिए संविधान में बदलाव विपक्ष को साथ लिए बिना बहुत आसान नहीं है।

आरक्षण का नैरेटिव जिस बिंदु पर पहुंच गया है और भारत की जो जटिल जातीय संरचना है, उसमें शायद ही कोई दल होगा, जो बिना राष्ट्रीय सहमति के इस सिलसिले में कोई संवैधानिक बदलाव कर सके। केशवानंद भारती केस हो या फिर मिनर्वा मिल्स मामला, जब सर्वोच्च न्यायालय संविधान के मूल ढांचे में बदलाव न किए जाने का फैसला दे चुका है, तब ऐसी स्थिति में क्या कोई दल किसी एक सदन में बहुमत हासिल करने के बाद संविधान में आमूलचूल परिवर्तन कर पाएगा? निश्चित तौर पर इन सवालों का जवाब ‘नहीं’ में ही आएगा। अतीत के अनुभव भी इसी ओर इशारा करते हैं। मामले को देखते हुए सरकार ने भी इस नैरेटिव के संदर्भ में विपक्ष को आक्रामक अंदाज में जवाब देना शुरू कर दिया है।

स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में आपातकाल ऐसा काला धब्बा है, जिसे मिटाया नहीं जा सकता। बेशक इसके लिए इंदिरा गांधी दो बार माफी मांग चुकी हैं, लेकिन यह माफी कुछ वैसी ही है, जैसे किसी की हत्या कर दी जाए और फिर सामान्य सी माफी मांगकर मामले को रफा-दफा कर अपराधबोध से मुक्ति का प्रयास हो। संविधान की प्रतियां दिखाकर सरकार पर सवाल उठाने की विपक्ष की कोशिशों को नेस्तनाबूद करने के लिए जिस तरह केंद्र सरकार ने आपातकाल का मसला उठाया है, उससे कांग्रेस असहज है। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसके साथ खड़े ज्यादातर सहयोगी दल आपातकाल के पीड़ित रहे हैं और उस दौर में वे भाजपा के पूर्व अवतार जनसंघ के साथ खड़े रहे।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)