प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार का गठन होने के बाद अब प्रतीक्षा इसकी है कि नई लोकसभा का अध्यक्ष कौन होगा? इसे लेकर जहां भाजपा अपने सहयोगी दलों और विशेष रूप से तेलुगु देसम पार्टी एवं जनता दल-यू नेताओं के साथ विचार-विमर्श कर रही है, वहीं विपक्ष इस कोशिश में है कि लोकसभा उपाध्यक्ष का पद उसके हिस्से में आए। चूंकि इस बार उसका संख्याबल अधिक है, इसलिए वह लोकसभा उपाध्यक्ष पद पाने के लिए हरसंभव कोशिश कर रहा है।

कुछ विपक्षी नेताओं ने यह भी कहा है कि यदि सत्तापक्ष लोकसभा उपाध्यक्ष पद विपक्ष को देने के लिए तैयार नहीं होता तो उसकी ओर से अध्यक्ष पद के लिए भी अपना उम्मीदवार खड़ा किया जा सकता है। यदि ऐसा होता है तो ऐसा पहली बार होगा, जब इस पद के लिए चुनाव होगा। विपक्षी दलों के नेता तेलुगु देसम पार्टी और जनता दल-यू को यह नसीहत भी देने में लगे हुए हैं कि लोकसभा अध्यक्ष पद के लिए उनमें से किसी को अपनी दावेदारी पेश करनी चाहिए।

यह ठीक है कि गठबंधन सरकारों में यह पद घटक दलों के हिस्से में जाता रहा है, लेकिन मौजूदा सरकार वैसी गठबंधन सरकार नहीं, जैसी वाजपेयी अथवा मनमोहन सिंह सरकार थी। इन गठबंधन सरकारों के मुकाबले वर्तमान सरकार की स्थिति इसलिए अलग है, क्योंकि भाजपा बहुमत से पीछे रहने के बाद भी संख्याबल में मजबूत है।

फिलहाल इसके आसार कम हैं कि जनता दल-यू अथवा तेलुगु देसम पार्टी की ओर से लोकसभा अध्यक्ष पद के लिए आग्रह किया जाएगा, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वाजपेयी सरकार के समय अध्यक्ष पद तेलुगु देसम पार्टी के पास ही था। वाजपेयी सरकार एक वोट से इसीलिए गिरी थी, क्योंकि तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष ने ओडिशा के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके कांग्रेस सांसद गिरधर गोमांग को इस आधार पर सदन की कार्यवाही में भाग लेने की अनुमति दे दी थी कि उन्होंने लोकसभा की सदस्यता नहीं छोड़ी थी।

लोकसभा अध्यक्ष केवल सदन की कार्यवाही ही संचालित नहीं करता, बल्कि कुछ मौकों पर मत विभाजन के समय निर्णायक भूमिका भी निभाता है। सदस्यों को उनके कदाचरण के लिए दंडित करने और दलबदल की स्थिति में उन्हें अयोग्य ठहराने का फैसला भी वही करता है। सभी संसदीय मामलों में उसका निर्णय अंतिम होने के कारण इस पद की महत्ता बढ़ जाती है।

उचित यह होगा कि लोकसभा अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष पद को लेकर पक्ष-प्रतिपक्ष में कोई सहमति कायम हो। सदन के सुचारु रूप से संचालन के लिए यह आवश्यक है। इससे भी आवश्यक यह है कि जो भी अध्यक्ष बने, वह दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कार्य करे। उसे निष्पक्ष होना ही नहीं चाहिए, बल्कि दिखना भी चाहिए। ध्यान रहे कि जब-जब ऐसा नहीं होता, तभी सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच विवाद पैदा होते हैं।