अमित शाह। सहकारिता एक ऐसी व्यवस्था है, जो समाज में आर्थिक रूप से आकांक्षी लोगों को न सिर्फ समृद्ध बनाती है, बल्कि उन्हें अर्थव्यवस्था की व्यापक मुख्यधारा का हिस्सा भी बनाती है। सहकारिता बिना पूंजी या कम पूंजी वाले लोगों को समृद्ध बनाने का एक बहुत बड़ा साधन है। सहकारिता के माध्यम से भारत इन लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में निरंतर आगे बढ़ रहा है।

हमारे देश में सहकारिता की एक विस्तृत परंपरा तो रही है, लेकिन आजादी से पहले सहकारिता जिस प्रकार आर्थिक आंदोलन का माध्यम बनी, उसे और भी अधिक ऊर्जा और शक्ति के साथ आगे बढ़ाने का कार्य प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के कार्यकाल में शुरू हुआ। वर्ष 2021 में प्रधानमंत्री जी ने सहकारिता का स्वायत्त मंत्रालय स्थापित कर सहकारिता के लिए अवसरों के सारे बंद दरवाजे खोल दिए।

महज तीन वर्षों में देश में सहकारिता को तेज गति मिली है। इसी कड़ी में, भारत का सहकारिता आंदोलन एक ऐतिहासिक पल का साक्षी बनने जा रहा है। राजधानी दिल्ली 25-30 नवंबर के बीच में ‘अंतरराष्ट्रीय सहकारी गठबंधन (आईसीए) महासभा’ और वैश्विक सम्मेलन की मेजबानी को तैयार है।

आईसीए के 130 वर्ष के इतिहास में यह पहला मौका है, जब भारत इसका आयोजक होगा। इस सम्मेलन से संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय सहकारिता वर्ष 2025 का भी शुभारंभ होगा। आईसीए महासभा और वैश्विक सम्मेलन की मेजबानी वैश्विक सहकारी आंदोलन में भारत के नेतृत्व की स्वीकार्यता का प्रतीक है।

मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनने के बाद से समाज के पिछड़े, अति पिछड़े, गरीब और विकास की दौड़ में पीछे छूट चुके लोगों के उत्थान की दिशा में निरंतर कदम उठाए जा रहे हैं। मोदी सरकार मानती है कि यह परिवर्तन सहकारिता आंदोलन को मजबूत किए बिना नहीं हो सकता। यह आयोजन ऐसे समय में हो रहा है जब भारत ने सहकारी आंदोलन के पुनरुत्थान की दिशा में बड़े कदम उठाए हैं।

प्रधानमंत्री जी ने ‘सहकार से समृद्धि’ का मंत्र दिया है, जिसका उद्देश्य देश की सहकारी संस्थाओं को आत्मनिर्भर और स्वावलंबी बनाना है। देश में सहकारी तंत्र का विस्तार कर एक नया आर्थिक मॉडल खड़ा किया जा रहा है, जो भारतीय अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन (लाख करोड़) डॉलर तक पहुंचाने के लक्ष्य को पूरा करने में सहायक सिद्ध होगा। दुनिया के अन्य देशों के लिए यह एक विकास मॉडल के रूप में सामने आएगा।

भारत में प्राचीन काल से सहकारिता का समृद्ध इतिहास रहा है, जिसके संकेत कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी मिलते हैं। दक्षिण भारत में भी ‘निधियों’ का प्रचलन सहकारी वित्तीय व्यवस्था को दर्शाता है। पाश्चात्य विचारों से प्रभावित कई अर्थशास्त्रियों ने 21वीं सदी की शुरुआत में ही यह चर्चा प्रारंभ की दी थी कि सहकारिता का विचार आधुनिक युग में कालबाह्य हो गया है। मेरा मानना है कि भारत जैसे 140 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में छोटी जनसंख्या वाले देशों का आर्थिक मॉडल उपयुक्त नहीं हो सकता।

आर्थिक विकास के सभी मानकों में वृद्धि के साथ यह जरूरी है कि 140 करोड़ लोगों की समग्र समृद्धि हो जो सहकारिता के माध्यम से ही संभव है। इसके कई उदाहरण हैं। जैसे अहमदाबाद डिस्ट्रिक्ट कोआपरेटिव बैंक ने गत 100 वर्षों में 100 करोड़ रुपये का लाभ अर्जित किया। बैंक न केवल एनपीए को शून्य बनाए रखने में सफल रहा, बल्कि उसके पास 6,500 करोड़ से अधिक जमाराशि भी है।

अमूल भी सहकारी आंदोलन का उल्लेखनीय उदाहरण है। वर्तमान में इससे 35 लाख परिवार सम्मान और रोजगार प्राप्त कर रहे हैं और इन परिवारों की महिलाएं अग्रिम पंक्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। परिणामस्वरूप, आज अमूल का वार्षिक कारोबार 80,000 करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है। दिलचस्प बात यह है कि इन महिलाओं में से किसी ने भी 100 रुपये से अधिक का प्रारंभिक निवेश नहीं किया था।

सहकारिता आंदोलन को मजबूती प्रदान करने की दिशा में प्रधानमंत्री मोदी जी के मार्गदर्शन में सरकार ने 60 से अधिक पहलों पर काम शुरू किया है। दशकों की उपेक्षा और प्रशासनिक कुरीतियों के परिणामस्वरूप अधिकांश प्राथमिक कृषि ऋण समिति (पैक्स) आर्थिक रूप से कमजोर और निष्क्रिय हो गई थीं। सरकार ने पैक्स के कार्यक्षेत्र में विस्तार के साथ-साथ उन्हें आर्थिक रूप से व्यवहार्य बनाने का काम शुरू किया।

इनके लिए नए बाय-ला अपनाने से अब पैक्स डेरी, मत्स्य पालन, अन्न भंडारण, जन औषधि केंद्र आदि जैसे 30 से अधिक विविध क्षेत्रों में व्यावसायिक गतिविधियां संचालित करने में सक्षम हुए हैं। तीन नई राष्ट्रीय स्तर की बहु-राज्यीय सहकारी समितियों के गठन से सहकारिता का क्षितिज और व्यापक हुआ है।

राष्ट्रीय सहकारी निर्यात लिमिटेड ने विदेशी बाजारों तक सहकारी उत्पादों की पहुंच को सुगम बनाया तो राष्ट्रीय सहकारी जैविक लिमिटेड ने जैविक प्रमाणीकरण और बाजार का मंच तैयार किया।

भारतीय बीज सहकारी समिति लिमिटेड ने उन्नत बीजों की सुलभता सुनिश्चित की है। वित्तीय सहायता, कर राहत और इथेनाल मिश्रण कार्यक्रम से सहकारी चीनी मिलें समृद्ध हो रही हैं। सहकारी बैंकिंग प्रणाली को मजबूत करने के लिए सहकारी संस्थाओं के पैसे को सहकारी बैंकों में ही जमा करने पर बल दिया गया है।

राष्ट्रीय सहकारी डेटाबेस के जरिये सहकारी समितियों को पारदर्शी बनाने और प्रक्रिया को आसान बनाने से देश के सहकारी रूप से कम विकसित क्षेत्रों में सहकारी समितियों की पहुंच बनी है। इसके अतिरिक्त सरकार एक समग्र और व्यापक नई राष्ट्रीय सहकारिता नीति पर भी काम कर रही है।

आईसीए महासभा एवं वैश्विक सम्मेलन का मंच भारत के सहकारी आंदोलन द्वारा वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने, आर्थिक सशक्तीकरण, लैंगिक समानता सुनिश्चित करने और संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) की प्राप्ति हेतु भारत के अभूतपूर्व प्रयासों को रेखांकित करेगा। सम्मेलन का मुख्य एजेंडा ऐसे तंत्र का निर्माण है, जो सहकारी समितियों को उभरती चुनौतियों का सामना करने और अवसरों के उपयोग के लिए सशक्त बनाए।

इस ऐतिहासिक आयोजन की मेजबानी के अवसर पर मैं विश्व के सहकारी नेताओं, नीति निर्माताओं और मानव विकास के पक्षधरों का आह्वान करता हूं कि हम सहकारी आंदोलन को मजबूत करने के लिए सीखने, साझा करने और सहकार की भावना के साथ एकजुट हों। ‘सहकार से समृद्धि’ को लेकर भारत की प्रतिबद्धता सामूहिक समृद्धि-साझा प्रगति जैसे मूल्यों पर आधारित उज्ज्वल भविष्य का संकल्प है।

(लेखक केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री हैं)