विचार: गाजा में शांति पर संदेह का साया, नेतन्याहू और हमास के पास ट्रंप की शांति योजना पर सहमति के सिवा कोई अन्य विकल्प नहीं
साख की लड़ाई में तो वह बुरी तरह हार गया है। संयुक्त राष्ट्र के जांच आयोग ने उस पर जनसंहार का आरोप लगाया है और ब्रिटेन, फ्रांस और कनाडा जैसे पारंपरिक मित्र देशों ने उसकी मर्जी के खिलाफ फलस्तीन को मान्यता दे दी है।
HighLights
- <p>गाजा में शांति पर संदेह बरकरार</p>
- <p>ट्रंप की योजना ही एकमात्र विकल्प</p>
- <p>नेतन्याहू और हमास के लिए चुनौती</p>
शिवकांत शर्मा। राष्ट्रपति ट्रंप की बीस सूत्री शांति योजना पर इजरायली कैबिनेट की मंजूरी के बाद गाजा में युद्धविराम लागू हो गया है। इससे जुड़ी शांति योजना के तीन चरण हैं। जिस पहले चरण पर हमास और इजरायल सहमत हुए हैं, उसमें सबसे पहले इजरायली हमले रुकना और इजरायली सेना को गाजा के 47 प्रतिशत क्षेत्र से पीछे हटना था। साथ ही, इजरायल आतंकी हमलों और दूसरे अपराधों के आरोपों में सजा काट रहे करीब 250 फलस्तीनी कैदियों को और गाजा के उन 1700 लोगों को रिहा करेगा जो हिरासत में हैं। हमास 28 इजरायली बंधकों की पार्थिव देह सौंपेगा और इजरायल अपनी हिरासत में मरे गाजा के 15 लोगों के पार्थिव शरीर हमास को सौंपेगा।
इजरायल, हमास, अरब देश और ट्रंप सभी एक-दूसरे की पीठ थपथपा रहे हैं। ट्रंप अपनी योजना को पश्चिम एशिया में स्थायी शांति का कदम बताकर नोबेल शांति पुरस्कार की आस लगाए बैठे थे। वह तो पूरी नहीं हो सकी, पर क्या वे टूटी आस की कड़वाहट को पीकर शांति योजना को सफल बनाने में पूरी शक्ति लगाएंगे? क्योंकि उनकी योजना के पहले चरण का क्रियान्वयन तो अपेक्षाकृत आसान था। हालांकि इसमें भी हमास की मांग पर रिहा होने वाले कैदियों के नामों और संख्या को लेकर रुकावटें खड़ी हो सकती हैं। इसके पूरा होने के बाद दूसरे और तीसरे चरणों की सौदेबाजी शुरू होगी।
योजना के अनुसार गाजा पट्टी का पूरी तरह विसैन्यीकरण होना है। यानी हर तरह के सैनिक, आतंकी और आक्रामक ढांचे को ढहाया जाएगा, जिसमें उन सुरंगों का जाल भी शामिल है जिनका प्रयोग हमास के आतंकी अपने राकेट, गन और गोला बारूद रखने के लिए करते थे। अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के आकलन के अनुसार हमास ने युद्ध के दौरान करीब 15 हजार नए लड़ाकों की भर्ती भी की थी। इजरायल चाहता है कि ये सभी सदस्य हथियार डालें और भविष्य में लड़ाई न करने का प्रण लें। हालांकि हमास की शर्त रही है कि वह स्वतंत्र फलस्तीन राष्ट्र की स्थापना होने के बाद ही हथियार डालेगा।
शांति योजना के अनुसार गाजा का प्रशासन एक शांति बोर्ड की देखरेख में फलस्तीनी विशेषज्ञों की अस्थायी समिति संभालेगी। शांति बोर्ड की अध्यक्षता खुद ट्रंप करेंगे। पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की भी इसमें प्रमुख भूमिका होगी। फलस्तीनी प्राधिकरण में सुधार करने के बाद गाजा का प्रशासन उसे सौंप दिया जाएगा, परंतु उसमें हमास की प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई भूमिका नहीं होगी।
हमास के जो सदस्य इजरायल के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को स्वीकार करेंगे, उन्हें अभयदान देकर दूसरे देशों में भेज दिया जाएगा। हालांकि अभी तक हमास इजरायल के अस्तित्व को स्वीकार करने से इन्कार करता रहा है। दूसरी ओर, नेतन्याहू ने ट्रंप की शांति योजना को पूरी तरह स्वीकार भले कर लिया हो, पर वे गाजा का प्रशासन फलस्तीनी प्राधिकरण को नहीं देना चाहते।
गाजा के युद्धविराम को ट्रंप पश्चिम एशिया में स्थायी शांति का पहला कदम बताते हैं, परंतु इतना वे भी जानते हैं कि फलस्तीनियों को उनका देश मिले बिना यहां कोई शांति स्थायी नहीं हो सकती। पिछली सदी के अंत तक यह संभव लगता था। इजरायल में भी काफी बड़ा जनमत इसके पक्ष में था, लेकिन जब से नेतन्याहू ने सत्ता संभाली है, अलग फलस्तीनी राष्ट्र की संभावना को सपने में बदल दिया है।
फलस्तीनी चाहते हैं कि पश्चिमी किनारे और गाजा में उनका देश बने, जिसकी राजधानी पूर्वी यरूशलम हो। कहने को पश्चिमी किनारे पर फलस्तीनी प्राधिकरण का शासन है, परंतु इजरायल ने धीरे-धीरे वहां यहूदी बस्तियों का जाल बिछा दिया है, जिनमें लगभग सात लाख यहूदी बसते हैं। उन बस्तियों पर इजरायली शासन है।
पश्चिमी किनारे की मात्र 18 प्रतिशत भूमि पर ही फलस्तीनी प्राधिकरण का शासन है। 22 प्रतिशत भूमि पर इजरायल और फलस्तीनी प्राधिकरण का संयुक्त शासन है और जार्डन और इजरायल से लगती शेष 60 प्रतिशत भूमि पर इजरायली शासन। यदि मानचित्र पर देखें तो पश्चिमी किनारे के शहर इजरायली भूमि पर फलस्तीनी द्वीपों जैसे लगते हैं। यह सुनियोजित रणनीति के तहत किया गया लगता है ताकि फलस्तीनी शहर इजरायल के विरुद्ध एकजुट न हो सकें। सीमावर्ती जमीन को भी इजरायल ने इसलिए अपने पास रखा ताकि पड़ोसी देशों में खुलने वाली सुरंगों का जाल न बिछाया जा सके, जो गाजा में हुआ है। शायद इसीलिए नेतन्याहू पश्चिमी किनारे और गाजा में एक फलस्तीनी सरकार नहीं बनने देना चाहते।
इस समय नेतन्याहू और हमास के पास ट्रंप की शांति योजना के लिए सहमत होने के सिवा और कोई विकल्प नहीं बचा था। नेतन्याहू शांति के नोबेल की आस लगाए बैठे ट्रंप को नाराज नहीं कर सकते थे। हमास के पास भी न तो निरंतर बढ़ती आ रही इजरायली सेना से बंधकों को छिपाए रखने की जगह बची थी और न ही दुनिया से और अधिक सहानुभूति बटोरने की गुंजाइश। अब शांति कायम हो जाने और गाजा में पुनर्निर्माण शुरू होने के साथ ही दोनों को अस्तित्व की चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। नेतन्याहू के समक्ष अपनी सरकार बचाने, हमास के हमले को रोकने में हुई सुरक्षा चूक की जांच से और भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल जाने से बचने की चुनौतियां हैं। हमास के समक्ष सत्ता से बाहर रहते हुए अपना प्रभाव बनाए रखने की चुनौती है। इजरायली हमलों में मारे गए 67 हजार से अधिक लोगों के परिवारों का इजरायल विरोधी रोष उन्हें उसे बनाए रखने और संगठन खड़ा करने की आधारभूमि देगा।
इजरायली बड़ी शान से कहा करते थे कि उनकी लड़ाइयां सैनिक अकादमियों में पढ़ाई जाया करेंगी, लेकिन गाजा की लड़ाई उन्हें बहुत मायूस करेगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि इजरायल ने भले ही हमास के साथ-साथ हिजबुल्ला के फनों को भी कुचल दिया हो, परंतु उनके उद्देश्य के लिए बढ़ती सहानुभूति की लहर को नहीं थाम पाया है। साख की लड़ाई में तो वह बुरी तरह हार गया है। संयुक्त राष्ट्र के जांच आयोग ने उस पर जनसंहार का आरोप लगाया है और ब्रिटेन, फ्रांस और कनाडा जैसे पारंपरिक मित्र देशों ने उसकी मर्जी के खिलाफ फलस्तीन को मान्यता दे दी है।
(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)
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