यह अच्छा हुआ कि मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने प्रेस कांफ्रेंस कर वोट चोरी के आरोप लगा रहे राहुल गांधी के आरोपों का न केवल बिंदुवार जवाब दिया, बल्कि उन्हें बेनकाब करते हुए यह भी कहा कि वे या तो अपने निराधार आरोपों के संदर्भ में शपथ पत्र दें या सात दिनों के अंदर देश से माफी मांगें।

राहुल गांधी को ऐसी चेतावनी देना आवश्यक था, क्योंकि वे अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा और गरिमा पर जानबूझकर चोट करने में लगे हुए हैं। इसके पहले वे और कुछ अन्य विपक्षी नेता ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप लगाया करते थे। जब ऐसे आरोप निराधार साबित हुए तो वे वोट चोरी की नई कहानी लेकर सामने आ गए।

मुख्य चुनाव आयुक्त ने जो कुछ कहा, उसका यही अर्थ था कि यह कहानी फर्जी है। उन्होंने हाउस नंबर जीरो वाले मतदाताओं के मामले में राहुल और उनके जैसे अन्य नेताओं को न केवल आईना दिखाया, बल्कि वस्तुस्थिति से भी अवगत कराया। इसी तरह उन्होंने महाराष्ट्र चुनावों में कथित धांधली के राहुल के आरोपों की पोल खोली। इसके साथ ही उनकी ओर से यह भी स्पष्ट किया कि यह पहली बार नहीं है कि बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले मतदाता सूची का गहन पुनरीक्षण हो रहा है। ऐसा 2003 में भी हुआ था।

इसमें संदेह है कि राहुल गांधी और अन्य विपक्षी नेता मुख्य चुनाव आयुक्त की बातों पर गौर करेंगे और अपना रवैया बदलेंगे। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि गत दिवस ही राहुल ने मुख्य चुनाव आयुक्त की प्रेस कांफ्रेंस से पहले बिहार में एक रैली को संबोधित करते हुए कहा कि भाजपा और चुनाव आयोग मिलकर वोट चोरी कर रहे हैं। उनकी मानें तो पिछले लोकसभा चुनाव में भी वोटों की चोरी हुई थी।

अच्छा होगा कि राहुल अथवा उनके साथी-सहयोगी यह समझा दें कि यदि ऐसा हुआ था तो कांग्रेस 99 सीटें कैसे पा गई और भाजपा 240 पर क्यों सिमट गई? वास्तव में राहुल गांधी का इरादा तथाकथित वोट चोरी के मामले को उजागर करना नहीं, बल्कि चुनाव आयोग एवं भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बदनाम करके अविश्वसनीय बनाना है। वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि संभवत: यह जान गए हैं कि चुनावी मैदान में जीत हासिल करना उनके बस की बात नहीं।

जो भी हो, यह आवश्यक हो जाता है कि सुप्रीम कोर्ट इस पूरे प्रकरण में हस्तक्षेप करे। उसे हस्तक्षेप केवल इसलिए नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह इस मामले की सुनवाई कर रहा है, बल्कि इसलिए भी करना चाहिए कि एक संवैधानिक संस्था की जड़ें खोदी जा रही हैं। आखिर सुप्रीम कोर्ट ऐसा होते हुए कैसे देख सकता है-और वह भी तब जब वह बिहार में मतदाता सूची के सत्यापन की प्रक्रिया को सही ठहरा चुका है।